स्त्री को भोग्या बनाने की कोशिश!

लेख 1: स्त्री भोग्या नहीं है!!

इस परंपरा के लेख 1 में कुछ प्रश्न पूछे गये थे जिन का उत्तर आगे बढने के पहले देना जरूरी है.

प्रश्न: आप ने जिन धारणाओं को स्थापित मान कर चले हैं उन में से अधिकांश गलत हैं। जैसे एक…भौतिकी का नियम है कि यदि किसी सिस्टम को बिना नियंत्रण के छोड दिया जाये तो क्रमश: वहां अराजकत्व की स्थिति आ जाती है। इस तरह की धारणाओं को प्रमाण सहित साबित करते हुए प्रयोग करना चाहिए। दिनेशराय द्विवेदी

उत्तर: दिनेश जी, भौतिकी के इस नियम को ऊष्मागतिकी का द्वितीय नियम कहते हैं. यह भौतिकी का सबसे अधिक दृड एवं स्थापित नियम हैं.

प्रश्न: स्त्री को बार बार स्त्री के अनावरण के लिये दोषी मान कर पतित तो हर सदी मे सब कहते आ रहे हैं , कुछ नए टैग खोजे [रचना]

उत्तर: यदि कोई कहे कि स्त्री भोग्या तो आपको आपत्ति है. मैं ने कहा कि स्त्री “भोग्या नहीं है” तो आपको आपत्ति है. स्त्री शब्द किसी पुरुष कें मूँह से निकला नहीं कि आपको आपत्ति है. एक बार और मेरे लेख को पढिये. इस लेख में स्त्रिंयों को नहीं बल्कि गलत सामाजिक सोच को दोषी माना गया है. भविष्य में आलेख को ठीक से समझ कर टिप्पणी करें. आपकी टिप्पणी को दस अन्य लोग पढ रहे हैं यह भी याद रखें.

प्रश्न: रचना जी का यह वाक्य बताता है कि उनके हिसाब से “पुरूष” का पर्यायवाची शब्द “असभ्य प्राणी” होता है. क्या यह सही है !! अगर ग़लत है तो डिलीट क्यों नहीं की, या मैं समझूं कि आप भी उनसे सहमत हो गए. !! ई-गुरु राजीव

उत्तर: प्रिय राजीव, सारथी का एक लक्ष्य है हर विषय पर “शास्त्रार्थ”. अत: टिप्पणियों द्वारा हर व्यक्ति यहां अपनी बात रख सकता है. चाहे उनकी बात से मैं सहमत हूँ या असहमत, उनकी टिप्पणियां नहीं मिटाई जायेंगी.  इसके लिये सारथी चिट्ठे की टिप्पणी-नीति पर एक नजर डाल लें.

आईए अब आगे बढें:

जैसा मैं ने अपने पिछले लेख में कहा था, बढ रहे सामाजिक अराजकत्व का एक फल है स्त्री को भोग्या के रूप में देखना, दिखाना एवं भोग्या के रूप में उसका पेशेवर (विभिन्न पेशों द्वारा) शोषण करना.

स्त्री को सही नजरिये से देखने की जरूरत एवं सही नजरिया न हो तो उसके विध्वंसक फल को अच्छी तरह समझ कर अधिकतर सभ्य समाजों ने इसके लिये तमाम तरह के आचारविचार एवं वर्जनाओं का निर्माण किया था. इन वर्जनाओं में से कुछ काफी मुख्य हैं:

1. व्यापारिक (या शोषण के)  लक्ष्य के साथ स्त्री नग्नता के प्रदर्शन की मनाही

2. स्त्रियों को हर जगह पुरुषों की तुलना में अधिक सुरक्षा

3. ऐसे पेशों में स्त्रीजनों के जाने की मनाही जहां स्त्री का यौनिक शोषण होता है या होने की संभावना है

स्त्री एवं पुरुष के शारीरिक बनावट एवं मानसिक  अंतर के कारण कुछ पेशों में स्त्री का न जाना बेहतर है. उदाहरण के लिए मेडिकल कालेजों में शवों के रखरखाव एवं चीरफाड संबंधित नौकरी  सामान्यतया पुरुषों को ही दी जाती है. यह लिंग-आधारित  भेदभाव नहीं बल्कि स्त्री को अतिरिक्त सुरक्षा देने के हिसाब से किया जाता है.  इसी तरह सेना में सबसे आगे जो “पैदल” टुकडी युद्ध के लिये जाती है उसमें भी सामान्यतया स्त्रियों को नहीं रखा जाता है. स्त्री के प्रति स्नेह एवं आदर की भावना के कारण पुरुष-प्रधान समाजों में भी स्त्री को यह अतिरिक्त सुरक्षा दी जाती है एवं स्त्रियों ने हमेशा इसे अच्छा मान कर स्वीकार किया है.

इस अतिरिक्त सुरक्षा के लिये बसों में स्त्रियों के लिये अलग सीट निर्धारित किये जाते थे. उनके लिये टिकट काऊटरों पर अलग कतार लगती थी. रेलगाडी के लगभग हर स्लीपर कोच में 6 स्त्री-शयिकाओं को एक कमरे के रूप मे अंदर से बंद किया जा सकता था. लडकेलडकियों के लिये अलग छात्रावास बनाये जाते थे. स्त्रीपुरुषों के लिये अलग अलग मूत्रालय होते थे.   लेकिन आज ये चीजें लुप्त होती जा रही हैं. बसों में अलग सीट, टिकटघर में अलग कतार, स्लीपरकोच में स्त्रियों का हिस्सा लुप्तप्राय हो गया है. यह अफसोस की बात है.

स्त्री स्त्री है, पुरुष नहीं. अत: हर सभ्य समाज उनको समाज हमेशा अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करता रहा है. जहां भी ये चीजें समाप्त हो जायेंगी, वहां नुक्सान स्त्री को होगा, एवं स्त्री को जहां नुक्सान होगा उसका नुक्सान सारे समाज को होगा. इस कारण समाज स्त्रियों को जो अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करता आया है वह जारी रहना चाहिये. [क्रमश:]

 

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Author: Super_Admin

29 thoughts on “स्त्री को भोग्या बनाने की कोशिश!

  1. प्रश्न: स्त्री को बार बार स्त्री के अनावरण के लिये दोषी मान कर पतित तो हर सदी मे सब कहते आ रहे हैं , कुछ नए टैग खोजे [रचना]

    ये बात ऐ गुरु राजिव के कमेन्ट मे साफ़ कही गयी हैं
    और जवाब भी उन्ही को दिया गया हैं . आप से विनती हैं के उसको दुबारा पढे और समझे .

    और ये बात आप के आलेख से ही उभर रही हैं को स्त्री ही स्त्री के अनावरण के लिये दोषी हैं , स्त्री ही स्त्री को भोग्या बनाती हैं . यानी दोष हर हालत मे स्त्री का हैं और मुझ इस सोच से आपति हैं .

    बिना पढे कमेन्ट नहीं करती और बिना समझे तो बिल्कुल नहीं .

    लेकिन आप के ब्लॉग पर कमेन्ट करना जरुरी हैं ताकि जिस ग़लत सोच को आप विज्ञान से जोड़ते हैं उस पर बात हो . आप राजा राम मोहन राय और डॉ कर्वे इत्यादि को जरुर पढे और महत्मा गाँधी को भी ताकि आप और आप के सुधि पाठक ये समझ सके की काम का बटवारा ” प्राकृतिक आवश्यकताओं ” के अनुसार नहीं ” क्षमता ” के अनुसार होगा तभी आप लिंग भेद से ऊपर उठ कर समानता की बात कर सकेगे .

    कोई भी लाइन या सुरक्षा दे कर अगर आप स्त्री को बंधन मे बंधना चाहते हैं और ये बताना चाहते हैं बार बार अपने हर आलेख मे की स्त्री अपनी स्वतंत्रता का फायदा उठा रही हैं तो आप नयी पीढी को गुमराह कर रहे हैं .

    आप स्त्री को बंधन मे रखना चाहते हैं क्युकी समाज सुरखित नहीं हैं . आपके इस ब्यान मे और शीला दीक्षित के ब्यान मे की सोम्या को रात को अकेले गाड़ी नहीं चलानी चाहेये थी कोई फरक हैं क्या ?? समाज को सुरक्षित करने की बात करे जिस से स्त्री को भी हर वो काम करने की समान सुविधा उपलब्ध हो जो पुरूष को हैं

    स्त्री भोग्या है या नहीं पर आप के आलेख वूमन एम्पोवेर्मेंट के विरुद्ध जरुर हैं और मेरे कमेन्ट उसके फेवोर मे हैं

    सामाजिक अराजकत्व को हटाये और स्त्री के शरीर की बनावट को आधार मान कर उसको बंधन मे रखने की चाह को तिलांजलि दे कर समानता की बात करे

    केम्न्त हटाने का अधिकार आप को हैं

  2. @ Rachna

    टिप्पणी के लिये आभार. यदि आपकी या किसी अन्य व्यक्ति की टिप्पणी मेरे आलेख एवं कथन के विपरीत हो तो भी हटाई/मिटाई नहीं जायगी क्योंकि इस चिट्ठे का लक्ष्य ही खुला शास्त्रार्थ है. जम कर अपनी बात कहिये लेकिन प्रति-चर्चा के लिये भी तय्यार रहें.

  3. @Rachna

    आपकी टिप्पणी में राजीव को संबोधित नहीं किया गया है अत: यह समझना मुश्किल है कि आप राजीव को जवाब दे रही हैं.

    भविष्य में जिसको आप जवाब दे रही हैं उनके नाम को @ के साथ टिप्पणी के आरंभ में डाल दें तो मामला स्पष्ट हो जायगा.

  4. @ के साथ टिप्पणी के आरंभ में डाल दें तो मामला स्पष्ट हो जायगा.
    jarurii nahin haen yae karna

    jarurii haen padhna jo mae kartee hun aur jarurii haen samkhnaa , mae vo bhi kartee hun

    vaad viaad partivaad aalekh par hatey haen @name par nahin

  5. @ के साथ टिप्पणी के आरंभ में डाल दें तो मामला स्पष्ट हो जायगा.
    jarurii nahin haen yae karna

    jarurii haen padhna jo mae kartee hun aur jarurii haen samjhnaa , mae vo bhi kartee hun

    vaad viaad partivaad aalekh par hatey haen @name par nahin

  6. फ़ीज़िक्स ,केमस्ट्री ,मैथ्स और भूगोल से हट कर भी स्त्री का अपना वजूद है । लैंगिक आधार पर अंतर [भेदभाव नहीं ] किसी को भी कहीं नहीं पहुंचा सकता । जिस तरह रसायन शास्त्र और कई अन्य तरीके के अनुसंधानों का हवाला देकर ये प्रचारित किया जाता है कि स्त्री प्राक्रतिक रुप से कमज़ोर है ,ये ठीक नहीं । क्यों रसायन शास्त्र कभी पुरुषों को ध्यान में रखकर खुले दिलो -दिमाग से रिसर्च नहीं करता । पुरुष स्त्री के स्वतंत्र अस्तित्व्को स्वीकार करें और स्त्रियां अपनी कमज़ोरी को ताकत बना लें यही इस मसले का हल है ।

  7. रचना जी, रोमन में हिन्दी न लिखें क्योंकि आपका एक भी वाक्य समझ में नहीं आता है. अब यदि समझ में न आए तो आप के लिखने का कोई लाभ नहीं रह जाता.
    आप के सशक्त शब्द हर किसी की समझ में आने चाहिए, तभी तो ये पुरूष सुधरेंगे. 😉
    वरना इनके कान पर जूँ नहीं रेंगेगी.
    जहाँ तक आपने बात कर दी है सौम्या की और तुलना पुरुषों से कर दी है, वह ग़लत है.
    मैं भी अगर रात दस बजे के बाद घर से बाहर निकलूँ या बाहर होऊँ तो मम्मी का फोन आ जायेगा, –
    कहाँ हो !
    क्या हो रहा है !
    घर को सराय ( होटल ) बना रखा है, समय पर घर नहीं पहुँच सकते !
    शीला दीक्षित के बयान की हर जगह आलोचना हुई, मुझे इस बारे में कुछ नहीं कहना है. पर सौम्या के पिता से पूछिए कि क्या वे अपनी बेटी के रात देर से लौटने को लेकर चिंतित थे या नहीं !
    जवाब ‘ हाँ ‘ ही मिलेगा.
    हर माँ-बाप चिंतित होता है अपने बच्चे की सलामती के लिए चाहे बेटा हो या बेटी.
    और सौम्या को ग़लत भले हर कोई न कहे पर क्या हर कोई यह कहेगा- ” हाँ मेरे बच्चे रात वाली नौकरी करें.”
    आप हर बात को स्त्री-पुरूष में विभेद करके क्यों देखती हैं ?
    अगर आज से २५ साल बाद यदि मेरा जवान बेटा या बेटी यदि रात्रि की नौकरी की बात करेगा तो मैं खुल कर विरोध करूंगा.
    यहाँ बात स्त्री को बंधन में रखने की नहीं है, यहाँ बात ख़ूनी आतंकवादी या चोर लुटेरों से अपने बच्चों को बचने की है.
    रचना जी, काश ! सौम्या की जगह मैं मर गया होता तो आप को शान्ति मिल जाती और आप सौम्या की मृत्यु को बहस का मुद्दा नहीं बनातीं.
    तब आप ये नहीं कह पातीं कि स्त्री को बाँधा जा रहा है.
    रचना जी, क्या रात में आदमी नहीं मरते !!
    एक सौम्या मरी तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा रोज़ हजारों आदमी मरते हैं. बस वे “आजतक” में काम नहीं करते हैं या दिल्ली में नहीं रहते हैं इसीलिए हाईलाईट नहीं किए जाते.
    यदि मरते हैं तो फ़िर वहाँ पर पुरुषों को बाँध कर रखने वाली बात तो नहीं होती है तो यहाँ क्यों ?
    अगर एक धनाढ्य दिल्लीवासी ( पुरूष ) या कोई रिपोर्टर ( पुरूष ) रात में मरा होता, सौम्या की जगह तो भी शीला जी का बयान यही होता और वह सही होता कि वह ( पुरूष ) ऐडवेंचरस जीवन पसंद करता था, उसे रात में घूमना-फिरना पसंद था और ऐसे लोग अराजक तत्वों का आसान शिकार होते हैं, चाहे वे पुरूष हों या स्त्री.
    अगर आप को लग रहा है कि बाँधा जा रहा है,
    तो यह सत्य जान लें कि माता-पिता दोनों के प्रति चिंतित होते हैं, चाहे वह स्त्री हो या पुरूष.

  8. @सरिता अरगरे

    सरिता जी, मैं ने दो लेखों में स्त्री को भोग्या बनाने वाले मनोवृत्ति का विरोध किया है. अत: मेरे इन दो लेखों के विरोध द्वारा आप क्या यह कहना चाहती हैं?

  9. सर मैंने रचना जी का आक्रोश लेखन में देखा समाधान आपका पढ़ा -बहुत थोडा सा हट कर = कि अपनी संस्कृति पर गर्व करनेवाले देश में ,लज्जा ही नारी का भूषन है कहने वाले कवियों के देश में ,पुत्री पवित्र किए कुल दोउ कहने वाले राजा जनक के देश में ,महाशक्ति भवानी के मन्दिर में और माँ दुर्गा के दरवार में पूजन और न्रत्य के लिए देश की भावी कर्णधार ,देश को आगे बढ़ाने और विश्व में सर्वोच्च शिखर पर स्थापित करने की आकांक्षा रखने वाली हमारी बेटियों की तथाकथित शालीन पोशाक जिसे देख कर भाई अपनी बहिन पर और बाप अपनी बेटी पर अभिमान करे उस पोशाक पर पुलिस को ड्रेस कोड लागू करना पड़े और फिर उसका विरोध भी हो = इसे आप किस श्रेणी में रखना चाहेंगे

  10. यहाँ बात स्त्री को बंधन में रखने की नहीं है, यहाँ बात ख़ूनी आतंकवादी या चोर लुटेरों से अपने बच्चों को बचने की है.

    yae shabd puraey aalekh mae kehaa haen bahut daekha , eye glass laagaa lagaa par bhi phir bhi nahin mila

    एक सौम्या मरी तो कौन सा पहाड़ टूट पड़ा रोज़ हजारों आदमी मरते हैं. बस वे “आजतक” में काम नहीं करते हैं या दिल्ली में नहीं रहते हैं इसीलिए हाईलाईट नहीं किए जाते.
    यदि मरते हैं तो फ़िर वहाँ पर पुरुषों को बाँध कर रखने वाली बात तो नहीं होती है तो यहाँ क्यों ?

    jarur aap jarur iskae khilaaf aavaj uthaaye sandasd jaaye dharna dae aur smaaj surakhsit ho iskae liyae administration ko baadhya karey

    par vishay parviatan karkae shastri ji ke mehnat par naa paani daaley unki taraf sae jawaab naa dae

  11. सरिता जी, स्त्री कोमल होती है, यह सच्चाई है इसे स्वीकार करें.
    एक-दो अपवाद…. यदि हों……. तो छोड़ दें और मान लें स्त्री कोमल है,
    उसे कमज़ोर तो कोई कह भी नहीं रहा है, न मैंने कहा, न सतीश जी, न शास्त्री जी और न ही किसी और टिपण्णीकार ने.
    पता नहीं आपने ऐसी बात क्यों कह दी है !!
    राजीव गाँधी की हत्यारिन ने अपनी गलती मान ली लेकिन क्या अफज़ल गुरु ने यह माना कि संसद पर हमला उसकी गलती थी !! कभी नहीं मानेगा.
    इसीलिए यह लिंग-भेद प्राकृतिक है.
    मेरे कहने पर मत जाइए पर प्रकृति के विरुद्ध जाकर सीमा पर जंग लड़के अपनी परेशानी मत बढाइये.
    आप ने कहा कि ” फ़ीज़िक्स ,केमस्ट्री ,मैथ्स और भूगोल से हट कर भी स्त्री का अपना वजूद है ” बिल्कुल है मैं सहमत हूँ और इतिहास की बात करता हूँ. 🙂
    रजिया सुल्ताना हों या रानी लक्ष्मीबाई या रानी दुर्गावती, दूसरा युद्ध कौन लड़ सका था !!
    कोई नहीं, क्यों !! क्योंकि वे कोमल थीं. ( ध्यान रहे कि मैं उनका अपमान नहीं कर रहा हूँ. )
    पूरे विश्व इतिहास में कोई भी महिला आप बता दें, जो हिटलर, मुसोलिनी, चंगेज़ खान, बाबर, अकबर, शेरशाह सूरी, अशोक, सिकंदर किसी से मेल-जोल खाता हो. नहीं है, न !! 🙂
    पर आप मारग्रेट थैचर, इंदिरा गांधी, इंदिरा नुई, ऐश्वर्या राय, मदर टेरेसा, हाल में चर्चित सारा पौलिन { 😉 }
    के नाम ले सकती हैं, { और मायावती भी 🙂 } ये लोग समाज में बहुत ही चर्चित थे या हैं. ये सफल महिला कही जाती हैं, पर ये तीर, तलवार चलाने वाली नहीं कोमल महिलायें हैं जो समाज में रहकर काम करती रहीं. नारी सशक्तिकरण इनसे हुआ है. सीमा पर लड़ कर सशक्तिकरण नहीं दिखाया जाता है. 🙂
    बनाना है तो इनकी तरह बनिए, देश समाज का नाम रौशन करें, न कि देश, समाज को रौंदकर ख़ुद को सशक्त साबित करें.

  12. रचना जी, यह बात आपको आलेख में नहीं मिलेगी कि
    (( यहाँ बात स्त्री को बंधन में रखने की नहीं है, यहाँ बात ख़ूनी आतंकवादी या चोर लुटेरों से अपने बच्चों को बचने की है )) क्योंकि यह मेरी सोच है, आलेख का हिस्सा नहीं.
    और मेरी यह टिपण्णी इसलिए थी क्योंकि आप ने यह लिखा था–
    (( आप स्त्री को बंधन मे रखना चाहते हैं क्युकी समाज सुरखित नहीं हैं .))

  13. यहाँ पर विषय परिवर्तन करने का आपका आरोप पूरी तरह से ग़लत है क्योंकि मैंने सही तरह से लिखा है.
    आप सही ढंग से फ़िर से पढ़ें.
    देखिये असुरक्षित समाज के ख़िलाफ़ संसद और धरना जैसी चीज़ें मैं नहीं कर सकता क्योंकि मैं कोई नेता नहीं हूँ. हर व्यक्ति अपने स्तर से अपने तरीके से प्रयत्न करता है. मैंने तो आप से ऐसा नहीं कहा कि स्त्री-उत्थान के लिए आप संसद या धरना करें, ऐसा कह कर शायद आप मेरा उपहास कर रही हैं. 🙁
    जहाँ तक परिवार में बहू-बेटियों पर पाबंदी की बात है तो मैं सहमत हूँ. और मैं बेटे पर भी इसे उतना ही बराबर के ढंग से लागू मानता हूँ.
    घर के नियम या पाबंदियां, बंधन या गुलामी नहीं हैं बल्कि अनुशासन हैं.
    जो कि हर घर में हर व्यक्ति के लिए होने चाहिए.
    एक और बात आप ने मुझसे कही है कि मैं शास्त्री जी की तरफ़ से जवाब न दूँ.
    मैं क्यों किसी की तरफ़ से जवाब दूँगा !!
    शास्त्री जी कौन होते हैं बड़े जवाब देने वाले !!
    वह तो अपनी एक सोच रखकर इन्टरनेट का सारा ट्रैफिक बटोर लेते हैं. 😉
    फ़िर आप अपनी ग़लत सोच रख कर उलझ जाती हैं. और फ़िर हर चिट्ठाकार आप को समझाने में ही लगा रहता है.
    कभी आपने गिना है कि शास्त्री जी को कितनी टिप्पणियाँ समर्थन या विरोध में मिलती हैं !!
    गिनिये मेरा विश्वास है कि समर्थन में हर बार ज्यादा ही होंगी.
    अब मैंने यह मान लिया है कि आप को मेरी प्रति-टिप्पणियाँ अच्छी नहीं लगती हैं. तो ठीक है अब से आपकी हर टिपण्णी को मैं अनदेखा कर दूँगा.
    अब जवाब आप को मेरी और से तभी मिलेगा जब आप मेरा नाम लेकर मुझसे उत्तर मांगेंगी.

    आज से आप मेरे लिए हुह… हो गयीं. 🙂

    कुट्टी आप से, हम नाराज़ हो गए ;(

    और बिना मनाये मानेंगे भी नहीं, ये भी जान लीजिये.
    नाराज़ हो जाएँ तो ऋषि दुर्वासा के भी बाप हो जाते हैं. आसानी से नहीं मानते हैं.;)

  14. रचना जी !
    अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आदर करती हैं तो राजीव जी को मनाइए, वे अच्छे व सज्जन लेखक हैं ! परस्पर संवाद आवश्यक है !और अगर दोनों स्पष्टवक्ता हों तब तो क्या कहने !

  15. satish ji i am a profesional blogger and i dont believe in all this fun and frolic . I dont feel i would like to wste my time in replying to comments which dont penetrate my thinking process . Kindly dont post such personal comments like अगर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का आदर करती हैं तो because i really dont appreciate bringing any emotional touches when we blog or comment .
    I am least bothered if one is angry or upset or one feels like joking about it . Since you addressed the comment to me i replied it but your comment gives an sound of ” doubting the intentions ” whether i advocate freedom of expression or not .
    Talk on the issue and if i will feel i will gain any thing out of the debate i will surely reply or else move on to where i can reply and understand .

  16. @ई-गुरु राजीव

    राजीव, आलेख चिट्ठाकारी को जीवन प्रदान करता है तो “संवाद” चिट्ठाकारी को स्फूर्ति प्रदान करता है. इसमें अनावश्यक कुट्टी अदि की जरूरत नहीं है.

    तुम तो सिर्फ महीने भर से रचना से लड रहे हों और कुट्टी कर रहे हो. मेरा तो उनके साथ पिछले 18 महीने से बहुत सी बातों में जमकर मतांतर चला है, लेकिन न तो यह व्यक्तिगत झगडे में बदला न वैमनस्य में. हां उनकी टीकाटिप्पणियों एवं नुक्ताचीनी के कारण मुझ अपनी सोच को जांचने, परखने, एवं हर बार पहले से अधिक स्पष्ट तरीके से लिखने का मौका मिला है.

    हर विवाद, मतांतर, शास्त्रार्थ को इस नजरिये से लेना चाहिये.

  17. @@ई-गुरु राजीव

    मैं ने जो कहा है उसके कारण जम कर लिखो, जम कर वादविवाद करो, अपनी राय रखों, लेकिन इसे झगडे टंटे में मत बदलो!!

  18. thanks mr shastri for telling people my association with your blog
    people really never read archievs
    fresh water fishes

  19. आज का आलेख पढ़ा और उस पर टिप्पणी-प्रतिटिप्पणी बहस भी। मेरा मानना है कि आलेख पर हुई आलोचनाओं का उत्तर देने का अधिकार लेखक को ही है। किसी अन्य को नहीं। टिप्पणी-प्रतिटिप्पणी भी गलत है। इस से आलेख का विषय पीछे छूट जाता है। नयी और अप्रासंगिक बातें होने लगती हैं। लिंगाधारित भेद को समाप्त करने का जो अभियान है वह बहु-आयामी और विस्तृत है। इस कारण से उस पर किसी भी कोने से विचार प्रकट किए जा सकते हैं। लेकिन जब बहुत सारे बिंदु एक साथ आ जाएँ तो सार्थक बहस नहीं हो सकती। मेरा विचार है कि टिप्पणी पर प्रतिटिप्पणी न हो। यदि कोई करे तो उस पर ध्यान नहीं दिया जाना चाहिए। मूल आलेख पर ही ध्यान केन्द्रित करना् चाहिए। हम शास्त्री जी के दृष्टिकोण से असहमत हो सकते हैं और उसे प्रकट भी कर सकते हैं। लेकिन उस का उत्तर उन्हें ही देना चाहिए किसी अन्य को नहीं। यह उन का अधिकार है, उस अधिकार को उन से नहीं छीनना चाहिए। यह लेखक के प्रति अन्याय होगा। प्रश्न या शंका का उत्तर देना लेखक का उत्तरदायित्व भी है। प्रतिटिप्पणियों से लेखक को उस के उत्तरदायित्व से बच निकलने का अवसर भी प्राप्त होता है जो उसे प्राप्त नहीं होना चाहिए।

    शास्त्री जी विषय को पूरी तरह एक श्रंखला में रखने वाले हैं हो सकता है मेरी या किसी भी अन्य पाठक की शंकाओं का समाधान श्रंखला के अगले भाग से हो जाए। इस कारण से उन्हें अपने विषय को संपूर्णता में रखने का अवसर प्राप्त होना चाहिए। उस के बाद ही कोई बहस की जा सकती है। उन की श्रंखला के बीच में हम अपनी शंकाएँ प्रकट कर सकते हैं। यदि बहस में कोई पद्घति अपनाई नहीं जाती है तो उस की सार्थकता नष्ट हो जाती है। यदि हमें शास्त्री जी की एक गंभीर विषय पर प्रारंभ की गई श्रंखला को नदिया पार करने के पहले ही जल-समाधि देना हो तब तो यह ठीक है,अन्यथा विषय को गंभीर बनाए रखने के लिए बहस की पद्धति का सम्मान करें।

    शास्त्री जी,
    मैं ने कल भौतिकी के नियम का उल्लेख केवल इसलिए किया था कि पाठकों को पता होना चाहिए कि आप कौन से नियम की बात कर रहे हैं। ऊष्मा-गतिकी का दूसरा नियम भौतिक और रासायनिक तंत्रों पर तो लागू होने की बात देखी गई है और उस की स्पष्ट प्रस्तापनाएँ भी हैं। जैविक तंत्रों जैसे जैव-कोशिका मे भी उसे किसी हद तक लागू होने पर शोध हुए हैं। एक कोशीय जीवों (अमीबा) तक तो यो लागू होते हैं लेकिन उन्हें बहुकोशीय जीवो पर जो अनेक कोशिकाओं का जटिल तंत्र हैं पर भी लागू होते नही देखा और न ही किसी शोध की मुझे जानकारी है। फिर उस से भी अधिक जटिल तंत्र मानव समाज पर उसे लागू करने की बात पहली बार आप कर रहे हैं। जो एक गंभीर शोध चाहती है जो सामाजिक विज्ञान में एक महत्वपूर्ण शाखा ‘मानवसमाज-उष्मागतिकी’ को जन्म दे सकती है। इस पर आप स्वयं शोध करें अथवा किसी शोधार्थी को प्रेरित करें तो मानवता का बड़ा लाभ होगा। पदार्थ के कणों के अपने निश्चित गुण-धर्म होते हैं वे उनका कठोरता से पालन करते हैं। उन्हें मनुष्य समाज के बारे में लागू करना सही नहीं है। मनुष्य एक विचारवान पदार्थ है, उस के पास एक मस्तिष्क भी है जो उस की गतियों को सर्वाधिक प्रभावित करता है। एक लेखक के लिए कहानी लिखना आसान है वहाँ निर्जीव शब्द होते हैं जिन्हें लेखक अपनी इच्छानुसार नियंत्रित कर सकता है। लेकिन उसी तरह एक मनुष्यों के संगठन को इच्छानुसार नहीं चलाया जा सकता है। यहाँ स्त्री-पुरुष सभी के पास मस्तिष्क है, और वे अपनी गति को स्वयं निर्धारित करते हैं। टिप्पणी लंबी हो गई है। मैं यहाँ अपने विचार लिखता लेकिन शास्त्री जी ने अपने आलेख को रोक कर पहले मेरे प्रश्न का उत्तर दिया मैं उन का ऋणी हूँ। मैं ने यहाँ उस का इसी कारण से पुनः उल्लेख किया। मेरे पास और भी असहमतियाँ हैं लेकिन उन्हें मैं यहाँ अभी प्रकट नहीं करना चाहता। हो सकता है उन का समाधान शास्त्री जी की इस श्रंखला में उन असहमतियों को प्रकट किए बिना ही हो जाए। मैं अपने विचार प्रकट करने के पहले इस श्रंखला के उस आलेख की प्रतीक्षा करूंगा जिस के अंत में (क्रमशः) के स्थान पर (समाप्त) लिखा हो।

  20. @प्रिय दिनेश जी, टिप्पणी के लिये आभार.

    आपने एक अच्छा मुद्दा उठाया है कि टिप्पणीकार आपसे में विवाद न करें. यह एक अच्छा सुझाव है, लेकिन देखना पडेगा कि किस हद तक व्यावहारिक है.

    सस्नेह!

  21. शास्त्री जी से सहमत…। दूसरे के घर में जाकर मेहमानों का आपस में लड़ना अशोभनीय माना जाता है। लेकिन मेजबान करे तो क्या करे…?

    मैने अब तक टिप्पणीकारों के बीच जितने भी विवाद के प्रकरण देखे हैं,जिनमें बात अप्रिय कटाक्ष तक पहुँच जाती है, उसमें एक पेशेवर ब्लॉगर (I mean professional blogger) और एक नौसिखिए की उपस्थिति अवश्य पायी गयी है। दूसरे वरिष्ठ लोग तो पहले से ही जानते हैं, इसलिए ललकार सुनकर भी अनसुना कर देते हैं।

    इस बार बारी राजीव जी की थी।:)

  22. कुछ लोग तर्क और कुतर्क मे ही डूबे रहते है , कुछ वरिष्ठ और कनिष्ठ को परिभाषित करते रहते , विषय पर बात ना करके विषय परिवर्तन पर बात करना और फिर बार बार इतिहास दोहराना और बिना सन्दर्भ अपना ज्ञान बाँटना और क्रोध निकलना वही करते हैं जो ना तो प्रोफेशनल हैं ब्लोगिंग मे और ना अपने विषय मे . जब डिबेट होती हैं तो पक्ष विपक्ष टोपिक पर होता हैं और प्रशन जो व्यक्ता होता हैं उस से ही होते हैं . और तर्क को जो कुतर्क कहते हैं पर प्रूव नहीं करते केवल और केवल कटाक्ष करते हैं . ललकार सुन कर अनसुना करने वाले कायर होते हैं , अपनी अपनी बिलों मे दबे बैठे रहते हैं और जब मैदान खाली होजाता हैं तो निकल बाहर आते हैं और दहाड़ दहाड़ कर अपनी उपस्थिती को समझाते हैं . इसे दुम दबा कर भागना भी कहते हैं

  23. ज्यादा लम्बी टिप्पणियां विषय से भटका देती है, राय देना टिप्पणियां करना सबका अधिकार है पर अधिकारों का ज्यादा प्रयोग करने से माहोल की गरिमा ख़त्म हो जाती है.
    भूल चूक लेनी देनी…

  24. इतना सब कुछ पढ़ने के बाद मई यह भूल गया की हम बात किस विषय की कर रहे थे. यह मेरा अपना मत है, हो सकता है मई ग़लत होऊ. क्षमा कीजियेगा

  25. {{ अब मैंने यह मान लिया है कि आप को मेरी प्रति-टिप्पणियाँ अच्छी नहीं लगती हैं. तो ठीक है अब से आपकी हर टिपण्णी को मैं अनदेखा कर दूँगा.
    अब जवाब आप को मेरी और से तभी मिलेगा जब आप मेरा नाम लेकर मुझसे उत्तर मांगेंगी.

    आज से आप मेरे लिए हुह… हो गयीं.

    कुट्टी आप से, हम नाराज़ हो गए ;( }}

    शास्त्री जी, इसमें झगडा कहाँ है शान्ति के साथ महफ़िल छोड़ना भर ही है. उनको प्रति टिपण्णी नहीं चाहिए थी. हम मान गए. और यहाँ तक कि एक परिपक्व उत्तर भी दिया कि जब वे मांगेंगी तो उन्हें मिलेगा. इसमें कोई झगडा नहीं है.

  26. रचना जी ! एक प्रोफेशनल ब्लॉगर की कैसी ग़लत परिभाषा दी है आपने. !!
    मेरी नज़र में प्रोफेशनल ब्लॉगर वह है जो अपने हर टिप्पणीकार से अच्छे और प्यार भरे सम्बन्ध रखे. मेरे लिए तो यह ब्लॉग-जगत एक परिवार की तरह है.
    ज़रा आपके हिसाब वाले कोई एक ब्लॉगर का नाम बता दें !!
    और हर सफल ब्लॉगर को पूछें उसकी सफलता का राज़ तब आप सच्चाई से वाकिफ हो पाएंगी.

  27. आदरणीय दिनेशराय द्विवेदी जी और सिद्धार्थ शंकरत्रिपाठी जी से पूर्णतया सहमत हूँ, पूरा प्रयास करूंगा कि मेरी टिपण्णी सारगर्भित हों और प्रति-टिपण्णी न करुँ.

  28. रचना जी वरिष्ठ और कनिष्ठ की बात करके न जाने किसकी ओर इशारा कर रही हैं !! 🙂
    जबकि वह ख़ुद ऐसा करती रहती हैं, मुझे ही उनहोंने ” fresh water fish ” कहा है.
    पर मैं लड़ा नहीं, क्या करुँ लड़ाई मुझे पसंद नहीं. 🙂

  29. यतीश जी, लम्बी टिप्पणियाँ विषय से भटका देती हैं ऐसा कम ही होता है बल्कि मेरा मानना है कि वे विषय को अपने तर्कों और उदाहरणों से और अधिक संपुष्ट करती हैं.
    हाँ, पर कभी- कभी पाठक विषय ही भूल जाता है, जैसे आप भूल गए. मेरे साथ भी कई बार ऐसा हुआ.

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