जहां तक मेरी जानकारी है, जी विश्वनाथ जी का अपना कोई चिट्ठा नहीं है. लेकिन सारथी सहित अपने मित्रों के चिट्ठों को अपनी विश्लेषणात्मक टिप्पणियों से संपुष्ट करना उनका शौक एवं समर्पण है. उम्मीद है कि जल्दी ही वे अपना खुद का चिट्ठा चालू करेंगे. उन जैसे संतुलित एवं वस्तुनिष्ठ सोचने वाले व्यक्ति को अपनी सोच द्वारा समाज को जरूर प्रभावित करना चाहिये.
मेरे लेख तलाक: डूबता जहाज एवं भागते चूहे!! पर उन्होंने एक बहुत सारगर्भित टिप्पणी दी है जो पश्चिमी देशों के लोग नहीं समझ सकते एवं जो पश्चिमी नजर में एक विचित्र प्रस्ताव है. विश्वनाथ जी की टिप्पणी इस प्रकार है:
कुछ साल पहले मैंने कुछ विदेशी मित्रों को भारतीय समाज का पूर्वायोजित विवाह प्रणाली के बारे में समझा रहा था। वे तो इस प्रणाली को स्वीकार कर ही नहीं सकते थे। उल्टा हमारी इस प्रथा को असभ्य कहने लगे थे। मैंने समझाने की कोशिश की कि मेरी शादी भी इसी प्रकार हुई है और इतने वर्ष हम साथ रहे हैं। यदा कदा नोंक – झोंक तो होती रहेती है पर अलग होनी की बात कभी नहीं होती। सफ़ल और सुखी वैवाहित जीवन, विवाह प्रणाली पर नहीं बल्कि, और बातों के साथ साथ, दंपत्ति की प्रौढता पर निर्भर है। विदेश में वे पहले प्रेम करते हैं और फ़िर विवाह करते हैं, हम योग्यता जांचकर विवाह पहले करते हैं और प्रेम बाद में अपने आप हो जाता है। दंपत्ति को परिवार का पूरा सहयोग और समर्थन भी प्राप्त होता है। इधर -उधर कुछ अपवाद को छोड़कर ऐसे विवाह में तलाक भी कम होते हैं, ऐसा मेरा मानना है।
मेरे विदेशी मित्र नहीं माने! उल्टा जैसा आपने कहा, वे भी कहने लगे कि यही एक रिश्ता है जो हमारे हाथ में है। बाकी सभी पारिवारिक रिश्ते ईश्वर तय कर चुके हैं। इस विशेषाधिकार को हम क्यों गँवाएं?
सबसे पहले तो विश्वनाथ जी को इस टिप्पणी के लिये आभार. दूसरी बात, लेखन के लिये एक नया विषय प्रदान करने के लिये आभार.
देशविदेश की यात्रा के दौरान पश्चिमी देश के लोगों से मैं भी ये तर्क सुन कर हैरान हो जाता था. सन 1990 में अमरीका में परामर्श (काऊंसलिग) पर उच्चतम ट्रेनिंग लेने के बाद मेरी व्यावहारिक परीक्षा लगभग एक हफ्ते चली एवं उसमें अमरीकी अध्यापकों ने मेरे भारतीय सोच की जम कर खिचाई की. इन में से एक प्रश्न यही था जिस पर विश्वनाथ जी ने लिखा है – क्या एक अनजान व्यक्ति से शादी करने पर वैवाहिक जीवन नरक नहीं हो जायगा. क्या उन दोनों को पहले से एक दूसरे को सामाजिक, मानसिक, और (जरूरी हुआ तो) शारीरिक तौर पर जानना जरूरी नहीं है?
अध्यापकों ने साफ कह दिया था कि हर उत्तर में मैं अपने नजरिये को पेश करने के लिये स्वतंत्र हूँ, लेकिन शर्त यह है कि जो कुछ कहूँ वह अकाट्य होना चाहिये. जब पूर्वायोजित विवाह एवं अमरीकी शैली विवाह (लम्बी मित्रता/यौन संबंध के बाद विवाह) की बात आई तो मैं ने दो तीन प्रश्न रखें
1. अमरीका में कब से लम्बी मित्रता/यौन संबंध के बाद विवाह की परंपरा शुरू हुई. सबने माना कि 1800 के आसपास यह चलन हुआ. मैं ने पूछा कि 1800 के बाद के अमरीकी पारिवारिक जीवन अधिक आदर्श हैं या 1800 के पहिले के. सब ने माना कि 1800 के पहिले के जीवन अधिक आदर्श थे.
2. भारतीय परिवार अधिक दृढ एवं स्थाई हैं या अमरीकी परिवार. सारे अध्यापकों ने माना कि भारतीय पारिवारिक जीवन आज के अमरीकी पारिवारिक जीवन से अधिक दृढ एवं स्थाई है.
इसके साथ वे समझ गये कि मेरा तर्क अकाट्य हो गया है – क्योंकि यदि पूर्वनियोजित विवाह के समय अमरीकी परिवार अधिक दृढ एवं खुश थे, एवं यदि आज का भारतीय पूर्व नियोजित विवाह उसे अमरीकी परिवारों से अधिक दृढ एवं स्थाई बना रहा है तो पूर्वनियोजित विवाह हर तरह से बेहतर हैं.
विश्वानाथ जी के मित्र को उनका प्रस्ताव विचित्र लगा होगा. पता नहीं उस विदेशी मित्र ने इस बारें में आगे सोचा या नहीं. यही प्रस्ताव जब मुझे अमरीकी अध्यापकों के समक्ष रखने का मौका आया तो तर्क एवं वाद के लिये काफी समय था एवं उस तर्क में पूर्वनिर्धारित विवाह के पक्ष में मेरे प्रस्तावों को मेरे अध्यापकों ने “स्वयंसिद्ध” मान लिया.
इस लेख के लिए मुझे दिशा देने के लिये विश्वनाथ जी को शत शत आभार!
इनको भी देखें:
- पत्नी को तलाक देना चाहता हूँ !!
- पत्नी को तलाक देना चाहता हूँ 002
- हिंसक पति: पत्नी क्या करे?
- हिंसक पति: पत्नी क्या करे — 2
- स्त्री भोग्या नहीं है!!
- स्त्री को भोग्या बनाने की कोशिश!
- स्त्री को भोग्या बनाने वाले पेशे!
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पढ कर अच्छा लगा . आभार !
विश्वनाथजी का चिट्ठा :
http://tarakash.com/forum/index.php?option=com_myblog&blogger=G%20Vishwanath&Itemid=72
भारत में बहुत हद तक सामाजिक दबाव और पारिवारिक दबाव भी इसमें सार्थक कारक की भूमिका निभाते हैं। जबकि पश्चिम में पारिवारिक दबाव नाम की चीज है ही नहीं, सामाजिक स्तर पर भी “गो टू हैल…” की भावना हावी रहती है… ऐसे में शादी कायम रह पाना मात्र दो प्राणियों पर निर्भर हो जाता है, और दोनों की ही सांस्कृतिक पृष्ठभूमि मिलकर तलाक बनता है…
शास्त्री जी, वैसे इसमें प्रस्ताव जैसा तो कुछ है नहीं। लेकिन आपने बात को जिस ढंग से प्रजेन्ट किया है, शायद यही है पाठकों को लुभाने का ब्लॉगरी तरीका। क्यों सही कहा न?
@महामंत्री-तस्लीम
पाठकों को आकर्षित करना लेखन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है! आपने सही ताडा!!
दृष्टिकोण की समस्या है.
प्रेम साहचर्य से पैदा होता है। …मुन्शी प्रेमंचंद
शास्त्रीजी,
बहुत आभारी हूँ।
एक तुच्च (और विषय से कुछ हटकर) टिप्प्णी को चुनके आपने मुखप्रष्ट पर पेश करके मेरा इतना सम्मान किया। इसकी अपेक्षा नहीं की थी मैंने।
ज्ञानजीने भी ऐसा ही किया मेरे साथ कुछ दिन पहले।
क्या मैं इस योग्य हूँ? हम तो एक असफ़ल चिट्ठाकार हैं।
पंकज बेंगाणी की दी हुई कड़ी पर आपको मेरे पिछले साल के कई अंग्रेज़ी और हिन्दी में लिखे हुए चिट्ठे मिल जाएंगे। केवल पंकज ने यदा कदा कोई टिप्पणी की है। उनके सिवा मैं नहीं जानता इन चिट्ठों को किसीने पढ़ा भी या नहीं।
और किसी ने टिप्पणी नहीं की। हार मानकर मैंने nukkad.info के blog विभाग में चिट्ठा लिखना बन्द कर दिया और टिप्पणीकार का रोल अपना लिया।
मज़े की बात यह है के मेरी टिप्पणीयाँ ज्यादा पढ़ी जाती हैं और ज्ञानजी, अनिताजी और आपकी कृपा से हिन्दी ब्लॉग जगत में मेरा नाम पहचाना जाने लगा है।
और लोग तो टिप्पणीकार को एक ऐसा अतिथि का दर्जा देते हैं जिनका प्रवेश घर के बरामदे तक ही सीमित है। लेकिन आपने, अनिताजी ने और ज्ञानजी ने मुझको अन्दर बुलाकर सोफ़ा पर बिठाकर सम्मान दिया है। इस कृपा के लिए मैं आप सबका आभारी रहूँगा।
अभी मेरा पक्का और full time blogger बनना संभव नहीं है।
पारिवारिक जिम्मेदारियाँ, दफ़्तर का काम और मेरी अन्य रुचियाँ और गतिविधियाँ मुझे रोकती हैं। मैं casual/ occasional/ half-hearted blogging करना नहीं चाहता। भविष्य में अवश्य पूरे मन से अपना अलग ब्लॉग लिखूंगा। उसके लिए मेरा पेशे से रिटायर होना अवश्य है। अभी कुछ ही साल बाकी हैं। उस दिन की प्रतीक्षा में आजकल समय काट रहा हूँ। जब मैदान में कूदने का समय आएगा, आशा है की आप सब मित्रों का सहयोग, प्रोत्साहन और तकनीकी सहायता मिलेगा। तब तक टिप्पणीकार का रोल मुझे मंजूर है और जब कभी मन हुआ तो इधर उधर अतिथी पोस्ट भेजकर full time blogging के लिए warming up exercises करता रहूंगा।
शुभकामनाएं
अरे विश्वनाथ सर जी, आप मेरा नाम कैसे भूल गये? 🙂 माना कि छोटे चिट्ठाकार हैं मगर हैं यही क्या कम है.. 🙂
प्रशांत,
कौन ? ब्लॉग्गर पी डी?
बहुत बडी भूल की है मैने।
अवश्य तुम तो मेरे लिए खास हो।
मुझसे मिलने भी आए थे।
हिन्दी चिट्ठाजगत में एक तुम अकेले हो जिससे मुझे मिलने की खुशी हुई थी।
अपने आप को कोस रहा हूँ।
तुम्हारा नाम कैसे छूट गया।
क्षमा करना भाई।
बुढ़ापा नज़दीक है, स्मरण शक्ति कुछ कमजोर हो गयी है।
अब आगे तुम्हारा नाम सबसे पहले लूँगा।
शुभकामनाएं