स्वांत: सुखाय चिट्ठाकारी या शुद्ध कपट ?

चिट्ठाकारी एकदम नई विधा है, लेकिन इतने अल्प समय में इसने तमाम तरह के रूप अख्तियार किये हैं. हिन्दी में इसने लगभग सात खेमों मे बटे एक विशाल-परिवार का रूप लिया है जहां (फिलहाल) लगभग हर कोई एकदूसरे को "जानता" है. इस जानपहचान के कारण एकदूसरे के चिट्ठों पर टिपियाना हिन्दी चिट्ठाजगत में दुआसलाम का रूप ले चुका है. यह अंग्रेजी के चिट्ठों से एकदम भिन्न एक प्रक्रिया है.

चूंकि दुआसलाम एक आवश्यक सामाजिक प्रक्रिया है, अत: कई वरिष्ठ चिट्ठाकार द्वार पर खडे होकर नये चिट्ठाकारों का स्वागत करते हैं, पीठ थपथपाते हैं, एवं आगे से इस शिष्टाचार का पालन करने के लिये उनको प्रोत्साहित करते हैं. लगभग 20% लोग गांठ बांध लेते हैं कि यही करना है. लगबग 20% लोग ऐसे भी हैं जो मन ही मन कहते हैं "भाड में जाये शिष्टाचार. हमारे चिट्ठे को पढने के लिये फरिश्ते तक तरसते हैं, तो तुम मट्टी के  मानव क्या बला हो".

लेकिन एक महीने के बाद उनक रोदन शुरू हो जाता है. तमाम तरीकों एवं लेखन के लटकों झटकों की सहायता से वे गिडगिडाते हैं कि "हे आनेजाने वाले भाईसाहब, एकाध दो टिप्पणी इस झोली में भी डाल जान. भगवान तेरा भला करेंगे". ऐसे लोगों की मदद के लिये जब लिखा जाता है कि "भैय्या, यदि टिप्पणी की इतनी चाह है तो जरा परिवार के सदस्यों से दुआसलाम करने की आदत डाल लो" तो तुरंत जवाब आता है, "मैं तो स्वांत: सुखाय लिखता हूँ, अत: टिप्पणी मिले या न मिले क्या फरक पडता है". यह है कपट!! कुल मिलाकर उनका कहना है कि हम तो लाट साहब हैं, अपनी सारी सुख सुविधा (?) छोड  विलायत से आपकी ‘सेवा’ करने के लिये हिन्दीजगत में आकर खट रहे हैं. अब हिन्दीजगत का फर्ज है कि वह टिप्पणियों द्वारा हमारी चरण-चंपी करे.

मैं चूंकि टिप्प्णी करने के लिये बारबार चिट्ठाकारों से अनुरोध करता रहता हूँ तो इस तरह के जवाव बार बार मिलते है. उन लोगों से निम्न बातें कहनी हैं:

पहली बात, यदि स्वांत: सुखाय लिखते हो तो डायरी में क्यों नहीं लिखते, भरे चौराहे पर क्यों लिखते हो. नटिनी बांस चढी तो घूंघट कैसा, और यदि घूंघट में रहना है तो बांस से अलग रहो.

दूसरी बात, यदि स्वांत: सुखाय लिखते हो तो हर एग्रीगेटर पर क्यों पंजीकरण करवा रखा है? चित मैं जीता पट तू हारा की नीति क्यों अपना रखा है.

तीसरी बात, यदि स्वांत: सुखाय लिखते हो तो हर अवसर पर छाती क्यों पीटते हो कि तुम्हारी तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा है. कल को जब पुन: छाती पीटोगे तो शायद दोचार तीव्रवादी चिट्ठाकार तुम्हारी छाती पीटने के लिये तुम्हारे साथ शामिल हो जायेंगे. उसके बात ना तो तुम्हारी छाती रहेगी, न तुम्हारा कपट.

परिवार के शेष सदस्यों से: माफ करें चार छ: स्वांत: सुखाय वालों के ईपत्र की बारिश से मेरी छत (खोपडी) चुने लगी थे. उनकी जिद थी कि वे नहीं टिपियांयेंगे, लेकिन यदि उनको टिप्पणियां न मिलीं तो वे आसमान से श्राप की वर्षा करवा देंगे. अत: मैं जरा उनके सर चढा जिन्न झाड रहा था. आपका किसी से पाला पडा हो तो उसे यहां भेज दें, मैं मुफ्त में झाड दूँगा.

प्रतिक्रिया –  इस लेख पर की एक दिलचस्प प्रतिक्रिया आई है: 

  • सुरेश चंद्र गुप्ता  लिखता मैं भी स्वान्तः सुखाय हूँ,पर टिपण्णी न आने से मुझे कोई तकलीफ नहीं होती, न ही मैं इस के बारे में किसी से शिकायत करता हूँ. बैसे शास्त्री जी, आप के व्यवहार से ऐसा लगता है जैसे आप ख़ुद को चिट्ठाजगत का स्वामी मानते हैं. कभी आपने सोचा है कि आपकी भाषा शिष्टता की सीमा लाँघ रही है?

@सुरेश चंद्र गुप्ता

प्रिय सुरेश जी, दर असल आप ने जो लिखा है उससे यह लगता है कि आप इस लेख की पृष्ठभूमि से अज्ञान हैं. आप शिकायत नहीं करते, लेकिन बहुत से हैं जो न केवल शिकायत करते हैं बल्कि टिप्पणी के लिये ईपत्र लिख लिख कर नींद हराम कर देते हैं. वे खुद एक भी टिप्पणी नहीं करते. आपका पाला इन लोगों से नहीं पडा है, अत: विषयवस्तु एकदम नहीं समझ पाये हैं. आप जैसे लेखक जो किसी से शिकायत नहीं करते उन पर यह लेख लागू नहीं होता है. मेरे आलेख का आखिरी दो पेराग्राफ एक बार और देख लें. रही शिष्टता की बात, तो जब आलेख की दिशा समझ जायेगे तो आप खुद कहेंगे कि शास्त्री जी इन लोगों से ऐसे बात करने से काम नहीं चलेगा क्योंकि लातों के भूत बातों से नहीं मानते. सस्नेह — शास्त्री

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Author: Super_Admin

22 thoughts on “स्वांत: सुखाय चिट्ठाकारी या शुद्ध कपट ?

  1. सही बात लिखी है आपने। बड़े दिनों के बाद सुबह सुबह नेट पर सैर कर रहा था, ताउ दिख गए, उनको सलाम करता आया। अभी अभी आपसे भी दुआ सलाम हो गयी। यही सामाजिकता तो हमारी पहचान है।

  2. सही बात है – स्वान्त: सुखाय लिखने वाले को अटेंसन न मिलने पर छाती न पीटनी चाहिये। हार्ट अटैक की सम्भावनायें बढ़ जाती होंगी।

  3. kabhi svant sukhay to kabhi sabhi ke liye likhta hun.. kal rat ka post padhen mera poori tarah svant sukhay hi hai.. 🙂

    vaise aaj kal to aap jamaye huye hain.. 🙂

  4. बिल्कुल सही कहा आपने ! हमने तो पहले ही आपकी सलाह मान ली थी ! हम तो पूरा आदान प्रदान करते हैं ! इसमे स्वांत: सुखाय से काम चल नही सकता ! प्रोत्साहन नही मिले तो हम जैसो को तो कुछ लिखना ही मुश्किल हो जाए ! 🙂 बहुत शुभकामनाएं !

  5. लिखता मैं भी स्वान्तः सुखाय हूँ,पर टिपण्णी न आने से मुझे कोई तकलीफ नहीं होती, न ही मैं इस के बारे में किसी से शिकायत करता हूँ.

    बैसे शास्त्री जी, आप के व्यवहार से ऐसा लगता है जैसे आप ख़ुद को चिट्ठाजगत का स्वामी मानते हैं. कभी आपने सोचा है कि आपकी भाषा शिष्टता की सीमा लाँघ रही है?

  6. @सुरेश चंद्र गुप्ता

    प्रिय सुरेश जी, दर असल आप ने जो लिखा है उससे यह लगता है कि आप इस लेख की पृष्ठभूमि से अज्ञात है.

    आप शिकायत नहीं करते, लेकिन बहुत से हैं जो न केवल शिकायत करते हैं बल्कि टीप्पणी के लिये ईपत्र लिख लिख कर नींद हराम कर देते हैं. आपका पाला इन लोगों से नहीं पडा है, अत: विषयवस्तु एकदम नहीं समझ पाये हैं.

  7. सच तो यही है कि शुरुआत में सोचा था कि स्वान्तः सुखाय लिखूँगा (क्योंकि मेरे लिखे हुए “उग्रवाद”(?) को कोई अखबार छापने को तैयार नहीं होता था), लेकिन जब धीरे-धीरे ब्लॉग जगत में मेरे लेखों के भी चुनिंदा प्रशंसक तैयार हो गये तब लगा कि नहीं यह स्वान्तः सुखाय नहीं है, यह एक “जनजागरण अभियान” है और तब से (यानी गत एक-डेढ़ वर्ष से) चिठ्ठाकारी स्वान्तः सुखाय से बढ़कर “जनजागरण अभियान” बन गई है… अब कोई जागे या ना जागे, मेरी बला से… लेकिन ब्लॉग लेखन बनती कोशिश जारी रहेगा…

  8. आत्म -मुग्धता सबसे बड़ा रोग है ….ओर संक्रिमित भी….जब तक लिखने वाला इससे बचा रहेगा ..शायद कुछ ना कुछ समाज में पोसिटिव ही देगा

  9. आपने बिलकुल ठीक बात कही । सम्‍‍भवत: आपका ‘आशय’ गुप्‍ताजी तक पहुंचने में असफल रहा ।
    मैं भी ‘बहुसंख्‍यक’ हूं – स्‍वान्‍त: सुखाय की मानसिकता के अधीन ही लिखता हूं । कोई टिप्‍पणी करे ही – यह आग्रह करने का तो विचार ही नहीं आया किन्‍तु जब-जब भी टिप्‍पणियां हुईं (वे प्रशंसात्‍मक रही हों या पिटाई करने वाली) मन में गुदगुदी ही हुई ।
    मैं ऐसे कई ब्‍लागों पर नियमित रूप से टिप्‍पणियां करता चला आ रहा हूं जिनके ब्‍लागरों ने मेरे ब्‍लाग पर आज तक टिप्‍पणी नहीं की । लेकिन इसमें शिकायत वाली कोई बात नहीं होनी चाहिए । वे तो मुझे कहते नहीं टिप्‍पणिी करने के लिए । मुझे अच्‍छा लगता है (और आपका कहना मानने का इच्‍छा भी रहती है) इसलिए टिप्‍पणी करता हूं । जिसे मेरा लिखा अच्‍छा लगेगा, वह प्रसन्‍नतापूर्वक टिप्‍पणी करेगा ही । सम्‍मान मांगा नहीं जाता, अर्जित किया जाता है । मेरा नियन्‍त्रण केवल मुझ तक ही सीमित है । और फिर, अपेक्षा तो दुखों का कारण है ।
    मैं ब्‍लाग को अपनी अभिव्‍यक्ति को सार्वजनिक करने के माध्‍यम से कहीं आगे बढ कर इसे सामाजिक परिवर्तन लाने के धारदार औजार के रूप में देख रहा हूं । समान विचारों वाले लोग एकजुट होकर किसी बात को मुकाम तक ले जा सकते हैं – यह भरोसा मुझे है ।
    ब्‍लाग विधा मेरे इस भरोसे को वास्‍तविकता में बदल सकती है – मेरा यह विचार दिन प्रति दिन प्रगाढ होता जा रहा है ।

  10. पहली बात, यदि स्वांत: सुखाय लिखते हो तो डायरी में क्यों नहीं लिखते, भरे चौराहे पर क्यों लिखते हो.
    “yes very well and nicely expressed, very interetsing to read your artical along with the comments, ek khavt hai na kee talee ek hath se nahee bjttee…”

    Regards

  11. वैसे हमें भी पढने के लिए फ़रिश्ते तरसते हैं 🙂
    पर हम बड़े और पुराने ब्लॉगर को कभी भी नहीं भूलना चाहिए कि हम बड़े तभी बनते हैं जब हम अच्छा लिखते हैं और साथ ही सभी से अच्छा व्यवहार करते हैं.
    सभी ब्लॉगरों को अपने समान समझते हैं. यह मानते हैं कि न तुम बड़े न हम बड़े. हम सब बराबर के ब्लॉगर हैं.
    यदि हम थोड़ा ज्यादा महत्व पा गए तो उसे पचाना भी तो आना चाहिए, घमंडी नहीं हो जाना चाहिए.

  12. meri yah koshish rahti hai ki agar kisi chitthe ko padha aur wah thoda bhi rochak ya mahatvpoorn laga to us par tippani karta hoon,lekin jahan word verification hota hai wahan takleef hoti hai aur jahan approval laga hota hai wahan thoda-bahut thoda atpata lagta hai. aapki baat kuchh had tak uchit hai halanki ram-charit manas ko bhi goswami tulsidas ji ne swant:sukhay khud hi likha tha

  13. शास्त्री जी आपके की पोस्ट की लोकप्रियता को देख कर एक महाशय ने आपके खिलाफ़ मोर्चा खोला है , उनकी पोस्ट को काफ़ी लोगो दारा पढा गया, आप पर हिन्दी चिठाजगत जगत को खेमों मे बाटंने का आरोप लगाया गया है। आपकी टिप्पणी मिल जाये तो उसके बाद हम भी स्वांत: सुखाय है।

  14. @naresh singh

    प्रिय नरेश, ये चीजें होती रहती हैं. मैं ने आज सुबह ही वह लेख पढ लिया था.

    चिट्ठे आजादी के प्रतीक हैं अत: किसी के कहे को कोई तोडमरोड कर पेश करता है तो अफसोस होता है. लेकिन यह रोका नहीं जा सकता. न रोकने की जरूरत है. जो परिपक्व है, वह हर चीज को बौद्धिक कसौटी पर तौल कर देखेगा और गलत प्रचार से बचा रहेगा.

    सस्नेह — शास्त्री

  15. हम तो अपने राग और आलाप गाते रहते हैं, उसे स्वन्त: सुखाय भी नहीं कहा जा सकता, पर बिना इस बात की चिन्ता के कि कितनी टिप्पणियाँ मिलीं.

    हाँ,सद्भाव के समबंध व नाते जरूर अच्छे लगते हैं,पर वे स्वार्थ के लिए हों, लेन-देन के लिए या “तूने मेरी पीठ खुजाई, मैंने तेरी पीठ / इसी तरह निभती रही आपसदारी” की तर्ज़ पर हों तो नहीं भाते। ऐसे स्वार्थपटु सम्बन्ध या मैत्रियाँ भला किस काम के।

    त्रस्त तो स्वयं हम भी हैं, अपने लिंक भेज कर उस परटिप्पणी की गुजारिश करने वालों से और तो और लिंक पर न कुछ कहा तो धमकाने तक उतर आने वालों से। अपने इस त्रास का उल्लेख मैंने चिट्ठाचर्चा में भी किया था कि क्या करूँ ऐसे में; पर आप समेत किसी ने शायद उसका नोटिस भी नहीं लिया कि कोई हल बताता कुछ सुझाता। आज भी ऐसे लोगों से परेशान हूँ।

  16. एक दम ठीक लीखे हैं।

    घमंड कीसी बात के लीये भी नही करना चाहीये क्यो की घमंड जल्दी टूट जाता है। और बडा वही बनता है जो दूसरो को बडा समझता है।

    आपसे सहमत हूं। बहुत बढीया लेख।

  17. आदरणीय शास्त्रीजी,
    स्वांत: सुखाय चिट्ठाकारी या शुद्ध कपट ? आप कि बात से मै सहमत तो हू पर मेरी अलग सोच है। मेरे हिसाब से चिटठो पर टिपियाना और दुआ सलाम दोनो ही भिन्न है। दुआ सलाम तो लोग करते है ब्लोग पर सुन्दर चहेकते-महकते फोटुओ को देख कर। चिट्ठाकरो के आलेख/रचनाओ पर सटिक प्रतिक्रिया कहि कहि और कभी कभी ही देखने को मिलती है। कई चिट्ठाकरो ने अपने अपने वोट बैक कि तरह कमेन्ट करने वालो कि फोज बना रखी है, जो एक दुसरो को दुआ सलाम करते रहते है। उनको कोई मतलब नही होता है कि ब्लोगर के ब्लोग पर जो रचना / आलेख/ कविता/ कहानी छ्पी है, जो सामाजिक जिवन मे वो कहॉ तक व्यवहारिक है। शास्त्रीजी मेने आपके शब्दो से लेकर तर्क तक, भावनाओ का आम जिवन से क्या सरोकार है, को समझने कि कोशिश कर रहा हु, और पाया कि लेखनी मे आप अवल्ल है, आपकी लेखनी मे एक अलग ही मिजाज है आप मे वो कला है कि बात बात मे टॉग भी खिच डालते हो,
    आपके लेखन मे चातुर्य भी है जो आपकि छ्वी को भिन्न रुप देती है। कहने का तात्पर्य यह है कि आपके लेखो पर बहुत ज्यादा कमेण्ट नही आते है क्यो कि आपके ब्लोग पर आपने अपना पुरानी उम्र वाली छ्वी चिपका रखी है। यहही कोई माननिय महिला जी का फोटु लागा होता तो बेसिर, पैर कि कविताओ पर कहानियो पर उनके डोगी (कुत्ता) को बुखार कैसे आया?, जैसी बातो पर पचास पचास कमेन्ट धडाधड आ जाती है। रात को १२ बजे पोस्ट होती है सुबह तक पचास कमेन्ट्, जैसे लोग बुद्धु बक्से के सामने धुप अगर बत्ती लेकर खडे रहतॅ है। अगर भुल से भी वास्त्विक टिकाकार उस ब्लोग पर पहुच जाये औ‍‍र उन्हे उनकी गलतीयो कि बात कर जाये या कोई सुझाव दे दे तो आप समझो बेचारे टिपणीकार कि तो वॉट लगा देते है यह कुच्छ चिट्ठाकार। और अनका साथ देते उनके फिक्स टिपणीकार बैक। मै हिन्दी ब्लोग कि लगभग १००० साईट पर गया वहॉ पाया कि घुमा फिराकर वो ही पचास से २०० टिपणिकार है जो स्वम चिट्ठाकार भी है जो मेरी तरह अपनी दुकान छोड कर दुसरो के दुकान पर सफेद भेस देखने चले जाते है। जब तक आम लोग इसके पाठक नही बनेगे, तब तक एक दुसरे को ही मॉल खरीदना होगा। सच्चाई यह है कि यह शुद्ध कपट है । और भी विसगतिया हिन्दी चिट्ठो पर है।
    फिर कभी। आपके आर्शिवाद कि अपेक्षा के साथ गलतिओ के लिये माफी चाहता हु।

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