बढई जिसे कीलें नहीं चाहिये!

Roof Picture By: Shabbir Siraj (केरल का एक घर एवं साथ लगा तालाब)

 

अनुनाद जी एवं अन्य मित्रों ने पिछले दिनों सारथी में याद दिलाया था कि लुप्त होती भारतीय कलाओं के बारे में लिख कर उनकी जानकारी भावी पीढियों के लिये सुरक्षित किया जाये. यह लेख उसके उत्तर में लिखा गया है.

आज से कुछ साल पहले केरल यात्रा के दौरान एक मित्र के घर में एक बढई को एक बेंच बनाते देखा. वह लगभग सारे दिन काम पर लगा  रहा, लेकिन मुझे ताज्जुब हुआ कि उसके पास एक भी कील नहीं था. शाम तक बेंच बन गया लेकिन उसने उस मजबूत बेंच को बनाने के लिये एक भी कील का प्रयोग नहीं किया.

पूछने पर पता चला कि केरल के बढई लोग लकडी के तानेबाने इस सफाई से काट कर खांचों में फंसा देते हैं कि कील की जरूरत नहीं पडती. इसके एक और उदाहरण के लिये मेरे मित्र ने मुझे केरल का एक पुराना मकान दिखाया. इसकी छत मिट्टी की पकी पटियों से बना है. ये पटियें लकडी के अतिविशाल फ्रेम पर टिकी रहती हैं.

मजे की बात यह है कि इस अतिविशाल फ्रेम के सारे तानेबाने बिना कीलों के प्रयोग के जोडे जाते हैं. इन बढइयों की देशी त्रिकोणमिती ऐसी गजब की है कि सारे टुकडे खांचों में फंस कर एक मजबूत फ्रेम बनाते हैं. इतना ही नहीं, पटियों के हजारों किलोग्राम वजन को बहुत ही वैज्ञानिक तरीके से संतुलित करता है.

मेरा पैतृक भवन इस तरह का था. लेकिन वर्तमान मकान बनाते समय ऐसा बनाने की कोशिश की तो पता चला कि इस कला के जानकार कम बचे हैं. यह भी पता चला कि कोई जानकार मिल भी जाये तो लकडी इतनी महंगी हो गई है कि दीवाला निकल जाये. अंत में हार कर कंक्रीट का छत बनवा लिया.

उन महान बढईयों को मेरा सलाम जिनके हाथों में जादू था!!

यदि आपको टिप्पणी पट न दिखे तो आलेख के शीर्षक पर क्लिक करें, लेख के नीचे टिप्पणी-पट  दिख जायगा!!

Article Bank | Net Income | About IndiaIndian Coins | Physics Made Simple

Share:

Author: Super_Admin

13 thoughts on “बढई जिसे कीलें नहीं चाहिये!

  1. यह तो सचमुच में अद्भुत है । लकडी की छोटी चीजें इस तरह से बनी हुई देखी थीं किन्‍तु पूरा मकान भी इस तरह से बनाया जाता रहा है- पहली बार जाना ।

  2. एकदम से अचंभित हो गया. कला के ऐसे सिद्धहस्तों की खोज-ख़बर ली जानी चाहिए. जानकारी के लिए आभार.

  3. आपके द्वारा दी गयी जानकारी रोचक है । वैसे राजस्थान मे भी कुछ समय पहले तक बढई कीलों का प्रयोग नही करते थे । और कीलो की जगह वह लकडी या बांस की खपच्ची का प्रयोग करते थे ।

  4. लकड़ी का फर्नीचर बनाने का सही तरीका यही है। इस से उस की मजबूती बढ़ती है और उम्र भी। यदि कहीं कीलों की आवश्यकता होती भी है तो लकड़ी की ही छेद से कुछ बड़े आकार की कीलें बना कर उन में ठोकी जाती हैं जो लकड़ी के बीच फंस कर जोड़ को स्थाइत्व देती हैं। मौसम में नमी के कारण लकड़ी में होने वाले परिवर्तनों से फर्नीचर को प्रभावित नहीं होने देतीं।

  5. केरल और चीन का सदियों पहले से व्यापारिक-सांस्कृतिक आदान प्रदान रहा है. चीनी शैली की मस्त्य नौकाएं, जाल, यह बढ़ईगिरी की कला शायद चीन से आयीं. मार्शल आर्ट, दर्शन, कुछ शास्त्र एवं कई तरह की वैज्ञानिक जानकरियां यहाँ से चीन पहुँची. बिना कील के यह पूरा मकान खड़ा कर देने की कला चीन में कई सहस्त्राब्दियों से है, चीनी वास्तुकला और केरल चीन के प्राचीन व्यापारिक और सांस्कृतिक संबंधों पर डिस्कवरी चैनल पर कई वृत्तचित्र प्रसारित हो चुके हैं.

  6. भारत में हाथ के इन हुनरमंदों को पूछता कौन है.. प्रगतिशील लोगों की आज की दुनिया में श्रमशक्ति की यह अद्भुत जादूगरी अधिक से अधिक सजावट की चीज मात्र है।

  7. क्षमां करें शास्त्री जी इतनी अच्छी पोस्ट कम से कम एक दिन टाली जा सकती थी ! क्या आप भी छपास जैसी गहरी बीमारी -लिखास से पीड़ित है ? जब पूरा देश आतंकी आक्रान्ताओं के कहर से जूझ रहा हो कैसे कोई कुछ पोस्ट करे और टिप्पणी करे ? माफी चाहता हूँ -एक दिन शोक का और मौन प्रतिकार का !

  8. @Dr.Arvind Mishra यह आलेख कई दिन पहले पोस्ट कर दिया गया था एवं मेरी यात्रा के दौरान इसे बदल न पाया!

  9. शास्त्री जी आप सही कह रहे हैं ! शायद आज यही बात मिश्राजी मुझसे भी कहते ! कारण मैंने भी पोस्ट फीड की हुई थी ! अचानक ध्यान आगया और उनको समय रहते हटा दिया गया ! ये मानवीय गलतिया हैं ! आदरणीय मिश्रा जी आप शास्त्री जी की भावना को समझ रहे होंगे ! वो भी हमारी तरह ही गमगीन हैं !

    एक बात मुझे रिलेटेड लग रही है की एक ब्लॉगर जो अपनी हफ्ते दस दिन की पोस्ट अडवांस में डाल के रखता है ! उसको भी इन आतंक वादियों से पूछ लेना चाहिए की भैया आपका शेड्यूल बता दो जिससे मैं अपनी पोस्ट को मौके के हिसाब से ठीक कर दूँ !

    हमको किस कदर गुलाम बना लिया है इन्होने ? आज हमारी स्वतन्त्रता कहा बची ?

  10. टिप्पणी के लिये आभार ताऊजी.

    मैं अकसर 5 से 15 दिन पहले पोस्ट शेड्यूल कर देता हूँ क्योंकि
    यात्रा के दौरान जाल की सुविधा नहीं मिल पाती. आज भी ऐसा
    ही हुआ था. (खबर भी नहीं मिली कि बंबई में क्या हुआ.
    अभी बैठ कर सब देखा और फिर पुराने पोस्ट को बिन हटाये
    एक नई पोस्ट डाल दी है)

    सस्नेह — शास्त्री

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *