1950 आदि के आखिरी साल. मैं शालेय विद्यार्थी था. काले पत्थर के स्केल पर बत्ती से सब कुछ लिखा जाता था. फिर पापा ने एक पेंसिल खरीद दी. ऐसा लगा कि सारा संसार मिल गया हो.
दूसरी कक्षा में टीचर ने "बर्रू" लाने को कहा. यह सरकंडे नुमा कुछ तो था जो आजकल नहीं दिखता है. इसके एक सिरे को काट कर निबनुमा बना कर हिन्दी लिखने का अभ्यास किया. यह प्रयोग कभी सफल नहीं हुआ. चौथी में पहुंचे तो अध्यापकों ने पहली बार पेन से लिखने की अनुमति दी. पापा ने चार आने का पेन खरीद दिया जब कि मैं आठ आने के पेन के लिये मचलता रहा. उम्मीद यह थी कि मैं दसवी कक्षा तक उसका प्रयोग करूंगा.
कलम का प्रयोग आसान न था. दुकान से रोशनाई की गोलियां खरीद कर घर पर पानी मिला कर स्याही बनाते थे. केमल या क्विंक वगेरह का प्रयोग तो सिर्फ कुबेर की संतानें हीं कर पाती थीं. पांचवीं कक्षा में कुबेर का एक पोता मेरा अच्छा दोस्त बन गया. उसके चाचा की पेन की दुकान थी — शहर में सबसे बडी — जहां से वह हर महीने 12 कलम का एक सेट ले आता था. अत: कलम की किल्लत दूर हुई. अधिकर विद्यार्थी तो स्याही की बोतल एवं होल्डर लेकर आते थे जिसे स्याही में डुबा डुबा कर लिखना पडता था. हमारें शालेय डेस्कों में बाकायदा स्याही डालने के लिये गड्डे बने थे जिसमें होल्डर डुबाये जाते थे.
इस बीच मेरे मित्र ने एक नये किस्म की कलम लाकर दी जिसमें — आश्चर्य — स्याही भरने की जरूरत नहीं थी. "बालपेन" हिन्दुस्तान के छोटे शहरों में आया ही था कि मुझे उस जादूई-कलम से लिखने का मौका मिला. एक दिन टीचरजी ने मुझे बालपेन से लिखता देख लिया. बस फिर क्या था, पूरे पीरियड भर खडा रखा क्योंकि बालपेन से लिखना उस समय एक छोटामोटा अपराध माना जाता था. पापा से शिकायत हुई वह अलग.
पोस्टकार्ड पर बालपेन से पता लिख दीजिये, वह बैरंग डिलीवरी से जाता था एवं पैसा देकर छुडाना पडता था. मनीआर्डर पर बालपेन से लिख दीजिये, पोस्टमास्टर उसे लेने से मना कर देता था. परीक्षा में (बोर्ड की परीक्षा में खास) हिदायत दी जाती थी कि बालपेन से लिखने पर फेल कर दिया जायगा. बालपेन से लिखे चेक को बेंक वाले निरस्त कर देते थे. सरकारी दफ्तरों में बालपेन से लिखे आवेदन पत्र लोग ऐसे देखते थे जैसे उस कागज पर हर अक्षर करोडों प्लेग के किटाणू हों.
हिन्दी चिट्ठालोक के अधिकतर पाठकों को यह सब अजूबा लगेगा, लेकिन यह था हमार प्यारा हिन्दुस्तान 1950 के अंत एवं 1960 के आरंभ में.
इन सब के बावजूद कुछ ढीठ लोग बालपेन का प्रयोग निजी लेखन में करते रहे. इसका असर हुआ. 1970 के आसपास इसको विद्यालयों में, सरकारी कार्यालयों में, पोस्ट आफिस में, बैंकों में, हर जगह "मान्यता" मिल गई. मैं ने बीएससी की परीक्षा बालपेन से लिखी. पहला अवसर था बालपेन से परीक्षा लिखने का. आज स्थिति यह है कि पिछले पांच साल से स्याही की "बोतल" नहीं खरीदी है. कल को लोगों के यह सब एक अजूबा लगेगा. लेकिन उम्मीद है कि कल कोई पुरातनपंथी अध्यापक बालपेन के उपयोग के लिए मेरे नातीपोतों को क्लासे में सारे पीरियड खडा नहीं रखेगा!!
[ताऊ रामपुरिया] आपने क्या याद दिला दिया ? हमको एक रिश्तेदार से एक रिफिल हाथ लग गई, पूरा पेन नही ! शायद ये बिल्कुल पहला ही लांच होगा बालपेन की रिफिल का ! ये चाईना वार के पहले की यानी १९६२ के पहले की बात होगी !
हम बड़ी शान से दुसरे लड़को को दिखाते लेकिन हाथ नही लगाने देते थे ! किसी दिल जले लड़के ने अदावत निकालने के लिए जाकर मास्साब को बता दिया ! उस समय हर अदावत मास्साब को शिकायत करके ही निकलती थी !
हमारे कपड़े के झोले ( किताब कापी रखने का थैला यानी आधुनिक स्कूल बैग ) की जांच में हथियार बरामद हो गया ! आज तक नाम याद है रामगोपाल जी मास्साब ने इतना पीटा था की कई दिन हल्दी चूने की शरण में रहना पडा !
पीटते पीटते जब वो हांफने लग गए तब बोले – उल्लू के पट्ठे ..इतना भी नही समझता की इससे हैण्ड राईटिंग खराब हो जाती है ! 🙂 आज हल्दी चुने को याद करके आनंद आया ! क्या दिन थे हमारे भी ?
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शास्त्री जी १९९२ -९३ में मैं तीसरी कक्षा में था तब हमें भी निब से लिखना पड़ता था और बालपेन का प्रयोग अपराध ही था |
धन्यवाद |
बालपन और बालपेन -स्मृतियों को अच्छा कुरेदा आपने -मुझे भी याद है बचपन में न जाने कैसी कैसी स्याहियों से पाला पड़ता था था -मुझे दुःख है आज तक मैं स्याही और कलम के बारे में कोई मानक अपने तई तय न कर सका -अब तो कोई भी कलम उठाओ बालपन ही हाथ में आ जाती है ! मार्केट फोर्सेस ने जीवन के हर आनंद का कबाडा कर दिया है !
स्याही और कलम के बारे आपने यह लेख लिख कर पुरानी यादे ताजा कर दी । १९८० में मैने ५वी पास की तब तक स्कूल में बालपेन से लिखना मना था उसके बाद ही बालपेन से लिखना शुरु हुआ है ।जिसे आप “बर्रू” कहते है उसे शेखावाटी मे “सांठी” कहा जाता था ।
अच्छा संस्मरण दिया. स्याही की गोली और होल्डर अब भी याद है और साथ ही सरकंडे की कलम (नरकट की कलम)
1995 तक मैं मिडिल स्कूल में था, तब तक सारे विषयों में और 1997 में दसवीं में था, सो इंग्लिश और हिन्दी (भाषा विषयों) में बॉलपेन से लिखना अपराध था, पर स्कूल और ट्यूशन से बाहर कहीं भी इंकपेन के प्रति ऐसा दुराग्रह नहीं था. शायद ये शिक्षक जो 60-70 के दशक में स्कूलों में रहे हों, उनकी मानसिकता ही बॉलपेन का अंध विरोध करने की बन गई हो. इस बेवजह की पाबन्दी से काफ़ी दिमाग ख़राब होता था.
1995 में जब मैं कम्प्युटर क्लास जाता था तो इन्कपेन उपयोग करने की वजह से अलग ही पहचाना जाता था.
आप ने अपना जमाना याद दिला दिया। मेरे यहां एक दवात लाल स्याही से आधी भरी है। पिछले आठ-दस साल से काम न आई। पर हर साल दीवाली पर उसे बाहर से साफ कर पूजा जाता है और फिर रख दी जाती है। उसे स्क्रेप करने का मन नहीं होता।
बालपेन से लिखने पर तो सजा ना मिलेगी मगर शायद इंकपेन से लिखने वालों को सजा जरूर मिल जाये.. 🙂
आपने क्या याद दिला दिया ? हमको एक रिश्तेदार से एक रिफिल हाथ लग गई, पूरा पेन नही ! शायद ये बिल्कुल पहला ही लांच होगा बालपेन की रिफिल का ! ये चाईना वार के पहले की यानी १९६२ के पहले की बात होगी !
हम बड़ी शान से दुसरे लड़को को दिखाते लेकिन हाथ नही लगाने देते थे ! किसी दिल जले लड़के ने अदावत निकालने के लिए जाकर मास्साब को बता दिया ! उस समय हर अदावत मास्साब को शिकायत करके ही निकलती थी !
हमारे कपड़े के झोले ( किताब कापी रखने का थैला यानी आधुनिक स्कूल बैग ) की जांच में हथियार बरामद हो गया ! आज तक नाम याद है रामगोपाल जी मास्साब ने इतना पीटा था की कई दिन हल्दी चूने की शरण में रहना पडा !
पीटते पीटते जब वो हांफने लग गए तब बोले – उल्लू के पट्ठे ..इतना भी नही समझता की इससे हैण्ड राईटिंग खराब हो जाती है ! 🙂 आज हल्दी चुने को याद करके आनंद आया ! क्या दिन थे हमारे भी ?
हिन्दी हम भी कलम से लिखते थे गलती होने पर वही कलम ऊँगली के बीच मे दबा कर सजा देते थे मास्टर साब . अंग्रेजी लिखने के लिए निब होल्डर मिलता था . स्कूलों मे डेस्क मे स्याही के लिए छोटा सा कप आज भी याद आता है . ऐसी शायद ही कोई दिन होता जिस दिन कॉपी या किताब स्याही से रंगते नहीं थे . याद दिलाने के लिए शुक्रिया
शास्त्री जी नमस्कार……यूं तो आपका ब्लाग रोजाना देख लेता हूं पर आज का लेख देखकर कुछ कहने का मन कर आया……कुछ पुरानी यादें ताजा हो आईं .।जब मैँ पढता था तब भी यानि 90 के दशक में बाल पैन से लिखने पे काफी डाँट पडती थी। उससे पहले 1984 के वो दिन भी मैँ भूला नहीं जब लकडी की तख्ती पे मुलतानी मिट्टी पोछकर सरकंडे की कलम को टिक्कियां घोलकर बनाई हुई स्याही में डुबोकर लिखते थे। फिर शुरु हुआ स्याही वाला फाउंटेन पैन और होल्डर स्कूल में ले जाना भी याद है जिसमें जी की निब से सुलेख लिखते थे। आजकल की पीढी को तो ये पता ही नहीं कि सुलेख होता किस चिडिया का नाम है। 1992 में आए रेनोल्ड जैटर के बाद से बाल पैन शुरु किया जो आजकल के जैल पैन तक छूटा नहीं। और अब तो लिखना इतना कम हो गया है कि छोटी सी बात भी लिखनी हो तो एम एस वर्ड खोलकर लिखने बैठ जाता हूँ। कागज का प्रयोग तो बहुत ही कम कर दिया है।
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राजकीय प्राथमिक विध्यालय नं दो मैं हमारा पहला कालांश खङिया से सारा दिन बैठकर काली करके और कांच की शीसी से रगङ रगङ कर चमकाई हुई तख्ती पर लिखने का होता था….बस्ते मैं बाल पैन मिलना बहुत बङा अपराध होता था …पर फिर भी पता नहीं मेरी लिखाई इतनी कमजोर है
भूल से आठवीं में सुलेख की एक प्रतियोगिता में अपना नाम लिखा बैठा था. बाद में पता ही नही चला, पुरस्कारों में क्यों नहीं हूँ मैं, जबकि आठवीं तक लिखा मैंने भी सरकंडे की कलम से .सरकंडे की कलम से लिखने का अपना एक रोमांच था.वही रोमांच लौटा दिया आपने इस प्रविष्टि से .
जब आदमी इतना परिश्रम करके लिखने बैठेगा तो अक्षर अपने आप अच्छे बनने लगेंगे शायद.
आंख के सामने आ गया गांव के स्कूल में पट्टी पर लिखने से लैपटाप तक का सफर।
बहुत बढ़िया पोस्ट।
पूरानी लेखन सामग्री के बहाने बीते दिन याद आ गये। सरकंडे की कलम से एक लकड़ी के फट्टे पर, जिस पर पीली मिट्टी का लेप चढ़ाया जाता था, पजांब में शायद उसे गाचिनी कहते थे, फिर उस पर, याद नहीं किस चीज से बनी, काली स्याही से लिखा जाता था। फट्टे को धोया, सुखाया फिर लीपा जाता था फिर सूखने पर तैयार होता था, कहीं जा कर, येलो-बोर्ड लिखने के लिए तैयार।
“उम्मीद है कि कल कोई पुरातनपंथी अध्यापक बालपेन के उपयोग के लिए मेरे नातीपोतों को क्लासे में सारे पीरियड खडा नहीं रखेगा!!”
नहीं कोई मारेगा !!!!!
गारंटी प्राईमरी के मास्टर की!!!
अच्छी याद दिलाई आपने!!!
कुछ साल पहले तक बच्चों के हाथ में पाटी व छुहिया दिखती थी
अब तो बाल पेन!!!!!!!! सर्व-स्वीकार्य हो चुका है !!!
सुलेख भी अब दिखना मुश्किल हो चुका है!!!
कलम से लेख के किनारे अब कहाँ???????
क्या बात कही है आपने वाह
मैंने कक्षा 5 तक कलम का इस्तेमाल किया है। इसके बाद चाइनीज़ पेन और फिर प्लस 1 में बॉलपेन का। लेकिन बॉलपेन कभी मेरी पसंद नहीं रहे
ये हुई ना कोई बात. “बचपन के दिन भी क्या दिन थे” ये गाना सुना ही होगा. कलाम दावात युग में कलाम में लगाने के लिए अलग अलग किस्म कि निब आती थी. अँग्रेज़ी के लिए नोकदार निब, दूसरी भाषाओं के लिए कुछ बौने किस्म की (हिन्दी निब). अब तो लिखने की आवश्यकता ही नही रह गयी है. यदि सुंदर हस्तलिपि में लिखना हो तो अब भी स्याही वाली पेन ही कारगर है.. कुछ देर वर्तमान को छोड भूतकाल में ले जाने का आभार.
बालपेन से जुडी कई रोचक एवं ज्ञानवर्द्धक बातें ज्ञात हुईं, पढकर अच्छा लगा।
शास्त्री जी मुझे तो आज भी बॉल पेन पसंद नही है…:) वही अध्यापकों की बात याद रहती है कि राईटिंग खराब हो जायेगी…संस्मरण बहुत अच्छा लगा बहुत हंसी आई और बचपन एक बार फ़िर याद आ गया…
अब तो इन जेल वालों ने बालपेन को कहीं का नहीं छोड़ा है
छुटपन में मां मना करती थी कि मत लिखो इससे,लेखनी बिगड़ जायेगी…
🙂
1970 के दशक में जब प्राइमरी स्कूल में था तो बालपेन से लिखने पर रोक थी। कथ और दवात का इस्तेमाल करता था। वक्त बदला है पर बहुत ज्यादा नहीं। बचपन के दिन याद कराने का शुक्रिया