कल मेरे आलेख अंग्रेजी का होता ज्ञान मुझे तो ! पर ज्ञान जी ने एक सामान्य सा दिखने वाला प्रश्न पूछा था जो इस प्रकार है:
(Gyan Dutt Pandey) यह तो आपने हास्य के रूप में लिखा है। पर मैं – जो गांव के देसी स्कूल से चला, यह आज भी महसूस करता हूं, कि जिन्दगी की दौड़ का इनीशियल एडवाण्टेज तो नहीं ही मिला था हमें।
देखने में मामूली लगने वाला यह प्रश्न लगभग हम सब के व्यावहारिक जीवन का एक बहुत बडा प्रश्न है. यदि इसका सही उत्तर मिल जाये तो जीने के लिये एक और कारण मिल जाता है. न मिले तो हो सकता है कि सारे जीवन भर कडुआहट पालने के लिये एक कारण मिल जाये. अत: इस प्रश्न का उत्तर पाना हम सब के लिये जरूरी है. कारण यह है कि शायद सिर्फ कुबेर की संतानों को ही वह मिल पाता है जो हम सब चाहते हैं.
बाकी किसी भी व्यक्ति को कभी भी वह नहीं मिल पाता है जो वह चाहता है. ज्ञान जी टिप्पणी मुझे एकदम मेरे बचपन में ले गई जो लगभग उसी समय की बात है जब वे स्कूल में थे. (मैं उन से लगभग दो साल बडा हूँ). वे गांव के देसी स्कूल में पढे, मैं शहर के मध्यमवर्गीय स्कूल में पढा. लेकिन मुझे भी जिन्दगी की दौड का वह इनीशियल एड्वाण्टेज नहीं मिल पाया जिसकी तरफ ज्ञान जी ने इशारा किया है. 1950 आदि में खाना मिल जाये तो बडी बात थी. कपडेजूते, किताब आदि कि न पूछें. इसके बाद चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ तो गेहूँ के लाले पड गये. यदि अमरीका उदारता से जहाज भर भर कर मुफ्त गेंहूं न भेजता तो मेरी पीढी के बहुत से बालक बालिका समय से पहले ही इहलोक छोड जाते.
आजाद हिन्दुस्तान में "राशन" कि व्यवस्था तब चालू हुई थी. महीने में दस यूनिट बिजली खर्च करने की अनुमति थी, और उससे अधिक खर्च करो तो कनेक्शन कट जाने का डर था. सुबह से दोपहर भर धूप और लाईन तोडने वालों से संघर्ष करने पर पांच किलो गेंहू मिलता था. पिसवा लो तो गुंधा आता जैसे रबर. बेलने में आटेदाल का भाव दुबारा पता चल जाता था. शक्कर, कपडा आदि भी राशन से ही मिलता था.
भूख-शमन के बाद आती है बात पाठ्य पुस्तकों की. किसी तरह से खरीद कर, अगली कक्षा में पहुंच चुके बडे भाईबहनों, पडोसियों से मांग कर, काम चला लिया जाता था. कापियां तो बाकायदा जाची जाती थीं कि नई कापी देने से पहले पुरानी कापी के हर पन्ने के हर लाईन पर लिखा जा चुका है क्या. जूते का उपयोग तब तक करना पडता था जब तक उस पर पैबंद लगाने एवं उसकी तली ठीक करने के लिये जगह न बचे.
ज्ञान जी ने पढाई गांव से प्रारंभ की. मैं ने पढाई शहर से प्रारंभ की. लेकिन दोनों को इनिशियल एड्वाण्टेज नहीं मिला. अब सवाल यह उठता है कि समाज में कितने प्रतिशत लोगों को इनिशियल एड्वाण्टेज मिल पाता है. सवाल यह भी है कि जिनको इनिशियल एड्वाण्टेज मिला या नहीं मिला, उनकी समाज के प्रति क्या जिम्मेदारी है.
इन बातों को अलगे आलेख में देखेंगे.
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” सच कहा बडा ही गूढ़ प्रश्न है , और इस प्रश्न के साथ जिन्दगी में बहुत कुछ खोने और पाने के रहस्यों के तार जुड़े हैं …. रोचक लगा पढना ”
regards
शास्त्रीजी आपसे और ज्ञानदत्त जी से क्षमा सहित कहना चाहता हूं इनीशियल एडवांटेज किसी को भी नही मिलता कुछ लोग एडवांटेज लेने मे सफ़ल हो जाते हैं।कोशिश सभी करते है और कुछ हमारे जैसे मूर्ख भी होते है जो इसे गवांने का दर्द काफ़ी समय बाद महसूस करते है। हो सकता है मै गलत् हूं लेकिन मेरा अपना अनुभव यही कहता है।
Confused kar diya aapne..
soch kar fir likhta hun..
खालिस सरकारी स्कूलों मैं पढते हुए आप जैसे गुरुजनों ने इतना आत्मविश्वास दिया की ये हिंदी दूर तक ले जायेगी तुम्हें…अंग्रेजी मे गिटियाने वाले देखते रह जायेंगे..गणित पढो…. विज्ञान पढो…और यही बात आज यहां तक ले आई है….आज मैं एक ठीक ठाक प्रसिद्ध चर्म रोग विशेषज्ञ हूं …पर आज भी जिद है कि जब तक सामने वाला कुछ और नहीं बोले ..केवल हिंदी ही बोलूंगा
हिन्दी का भविष्य उज्जवल है किन्तु अंग्रेजी हार नहीं मानेगी क्योंकि हम नहीं और भी हैं जो घर के भेदी हैं!
मैं जानता हूं कि यह बहुत प्रिय न लगेगा। पर है तो है। आधी जिन्दगी के बाद आकलन में देखता हूं कि क्या नहीं कर पाया हूं, तो वह कष्ट देता है। और उसमें बहुत कुछ इनीशियल एडवाण्टेज न होने के खाते जाता है!
इनीशियल एडवांटेज milna kismat ki baat hai…kabhi kisi ko mukammal jahan nahin milta…..
यह “प्रारंभिक लाभ” की बात समझ में नहीं आई।
मेरे पिताजी और दोनों भाईओं ने मलयाळम मीडियम में पढ़ाइ की थी।
पर मेरी शिक्षा अंग्रेज़ी माध्यम में हुई थी।
१९५५ में केथलिक पादरियों का चलाया हुआ मुम्बई में एक स्कूल में मेरी भर्ती हुई थी। (Don Bosco High School)
मुझे कोई खास “अड्वान्टेज” नहीं मिला।
अवश्य थोडी बहुत “snob value” रही होगी पर वह केवल पडोस के हम जैसे मध्य वर्गीय परिवारों के सामने।
अमीर बच्चों के सामने हम सर उठाकर बात नहीं कर सकते थे।
Campion School, Cathedral School और देश के जाने माने public School (Doon, Rishi Valley etc) वगैरह में पढ़ते बच्चों से जब मिलते थे तो हमारी बोलती बंद होती थी।
It’s all relative.
माहौल काफ़ी नहीं होता।
अंग्रे़जी का ज्ञान मैंने अपनी रुचि और परिश्रम से हासिल किया।
स्कूल ने कुछ खास नहीं किया, केवल अवसर प्रदान किए।
इस स्कूल में कुछ लड़के “स्मार्ट” दिखने लगे वर्दी के कारण और बोलचाल की “स्मार्ट” अंग्रेजी झाड़कर। असली ज्ञान तो उन्हें था ही नहीं और इसका पता तब चलता था जब ऐसे लड़कों से अंग्रेज़ी में लुछ लिखने को कहा जाता था। पोल खुल जाता ता स्पेल्लिंग और व्याकरण की त्रुटियों के कारण।
सोचा मेरे अनुभव के बारे में भी आपको बता दूँ।
त्रुटि सुधार:
“अंग्रेज़ी में लुछ लिखने ….” के स्थान पर “अंग्रेज़ी में कुछ लिखने ….” लिखना चाहिए था। क्षमा चाहता हूँ।
सही बात है पीछे देखो तो कष्ट तो होता ही है।ऐसा लगता है कि इसी कारण यह हुआ है।
इस प्रश्न मे दो पीढियों का अन्तर हैं . ज्ञानदत्त जी की उम्र की पीढी { जिसमे मै और कई और ब्लॉगर भी शामिल हैं } अगर आज की पीढी से अपने को मिलायेगे तो वही कहेगे तो ज्ञानदत्त जी ने कहा . initial advantage क्या हैं ? क्या ज्ञान जी किसी रस की तरह अपनी जिन्दगी जी रहे थे यानी एक दौड़ जिसमे आज उनको लगता हैं की ये नहीं किया क्युकी ये नहीं था .
लेकिन हम लोग तो अपने बच्चों को इनिशियल एड्वाण्टेज दिलवाने की स्थिति में हैं. खुश रहो, देश को आगे बढाओ.
अनुभवी लोगों की इन बातों में मैं कुछ नहीं कह पा रहा हूं .
समझ सकूंगा तो शायद कहूं .
वक्त के साथ साथ इनीशियल एडवांटेज की परिभाषा भी तो बदल रही है । मोबाइल, बाइक,महगीं जींस ये सब आज कि इनीशियल एडवांटेज हो गये है । सब कुछ पाकर के भी लग रहा है कि कुछ कमि है । रही बात भाषा कि तो, भाषा तो माध्यम है पठन व ज्ञानार्जन का चाहे वो हिन्दी हो या अग्रेजी हो ।
अब भाषा का काम तो मनोभाव को दूसरे तक पहुंचाना होता है उससे अधिक तो कुछ भी नही. वो तो हिन्दी कुशलता से करती है. सारथी को ही ले ले फ़िर भी कुछ लोग पूँछ के रूप में इनिशिअल अड़वान्टेज की छाप टिप्पनिओं में छोड़ ही जाते हैं. सच तो ये है जिसे नकारना मुश्किल है की जिन लोगों को अंग्रेजी भाषा का अच्छा ज्ञान है उनके सामने अधिकतर अंग्रेजी से अनभिज्ञ लोग उन्नीस ही महसूस करतें है.
आज का प्रश्न है तो बड़ा कीमती ! आपका यह लिखना की :-
ज्ञान जी टिप्पणी मुझे एकदम मेरे बचपन में ले गई जो लगभग उसी समय की बात है जब वे स्कूल में थे. (मैं उन से लगभग दो साल बडा हूँ). वे गांव के देसी स्कूल में पढे, मैं शहर के मध्यमवर्गीय स्कूल में पढा. लेकिन मुझे भी जिन्दगी की दौड का वह इनीशियल एड्वाण्टेज नहीं मिल पाया जिसकी तरफ ज्ञान जी ने इशारा किया है. 1950 आदि में खाना मिल जाये तो बडी बात थी. कपडेजूते, किताब आदि कि न पूछें. इसके बाद चीन और पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ तो गेहूँ के लाले पड गये. यदि अमरीका उदारता से जहाज भर भर कर मुफ्त गेंहूं न भेजता तो मेरी पीढी के बहुत से बालक बालिका समय से पहले ही इहलोक छोड जाते !
मैं ऐसा सोचता हूं की वो एक समय परिवर्तन का कठिन दौर था जिसमे से हमारी उम्र के लोगो का बचपन गुजरा ! और इसके माने हर व्यक्ति अपने हिसाब से लगायेगा क्योंकि ये भोगा हुआ यथार्थ है ! सबकी अपनी अपनी अनुभूतियाँ हैं और जाहिर है सबका एहसास भी अलग अलग होगा !
निजी रूप से मुझे इससे कोई परेशानी नही है ! उस माहौल से निकल कर भी आज किसी से कमतर नही हूं ! सिर्फ़ ये होता की आज हमने अपने बच्चों को वो स्टार्ट-अप दे दिया तो वो पढ़ने लिखने या कहे खाने कमाने अमेरिका और यूरोप चले गए ! हम यहीं हैं ! हम भी ज्यादा से ज्यादा यही करते ! खैर मैं तो इसे अपनी निजी सोच मानता हूँ और दोनों ही सही हैं !
अमेरिकी उदारता का हाल यह है की अमेरिका से मैं निजी रूप से ज्यादातर कभी सहमत नही रहा चाहे इसे आप मेरी युवा उम्र पर रुसी साम्यवाद का असर कह ले या जो आप चाहे ! पर मैं अमेरिका के इस कृत्य की हमेशा से मुक्त कंठ से प्रशंशा करते आया हूँ की भले ये लोग नंबर एक के स्वार्थी हैं पर इस मामले में इनका कोई मुकाबला नही है !
जब ये PL480 गेंहू का सौदा हुआ तब रुपये की कोई कीमत नही थी ! डालर देने को दूर , देखने को भी नही था ! अमेरिका ने इस गेंहू का भुगतान रुपये की शक्ल में लेना कबूल किया ! अब वो रुपया ले जाकर भी क्या करते ? सो उन्होंने रुपयों की यहीं गोदामों में थाप्पियाँ लगवा दी और जब ये समस्या बन गया तो उन्होंने हाथ जोड़ कर कह दिया – संभालो अपने इस खजाने को और ये हमने आपको मुफ्त दिया समझो ! ये है इस मुफ़्त उदारता की कहानी !
आज उस बात का मतलब कोई कुछ भी निकाले पर उस समय अमीर हो या गरीब ! यानी इनीशियल एडवाण्टेज लेने वालो ने भी इसे खाकर ही जान बचाई थी ! रुपया था पर अन्न का दाना नही था ! वो दिन, वो समय नही भुलाए जा सकते !
और इतना ही नही इसी अमेरिका ने आपके यहाँ कृषि विश्व विद्यालयों की स्थापना करवाई ! आपके वैज्ञानिकों को अमेरिका बुलावा कर उन्हें क्वालिफाइड किया ! जिसकी बदोलत हम हरित क्रान्ति कर पाये !
तो साहब अपने को तो कोई रंज गम नही ! अगर पैसा हो और उससे रोटी खरीद कर नही खा सकते तो वो पैसा किस काम का ?
राम राम !
मै कम अक्ल इतनी गंभीर चर्चा मे कोई योगदान न दे सका जिसका मुझे अफ़सोस रहेगा .
यह सही है कि प्रारंभिक सुविधा आज भी चंद बच्चों को ही प्राप्त है। हम भाग्यशाली हैं कि हमें अध्ययन की सुविधा मिली।
शास्त्री जी,
आप तथा यहाँ जिन्होँने
टीप्पणीयाँ कीँ हैँ
वे सभी कईयोँ से ज्यादा
” एडवान्टेज” हासिल इन्सान हैँ
मेरी नजरोँ मेँ 🙂
स्नेह,
– लावण्या
इनीशियल एडवांटेज किसी को भी नही मिलता कुछ लोग एडवांटेज लेने मे सफ़ल हो जाते हैं।कोशिश सभी करते है !!!!
प्राइमरी का मास्टर का पीछा करें
जय सीरी राम कह कर आगे बढ़ जाने का, यदि advantage न मिला हो तो !! 🙂
ज्ञानजी ने बड़ा सटीक प्रश्न उठा था मैं तो देर में पहुचा , विवरण ज्यादा मार्मिक है ,यही विवरण मेरा भी भोग हुआ यथार्थ है | पाण्डे जी ने वह दिन याद दिला दिया ,जब १०-११ साल का मैं , ४ साल छोटा भाई , लगभग सवा फर्लांग से ४० सेर गेहूं लाद कर लाना ,[ कंट्रोल से ] | पर मैं अपने को सौभाग्य शाली मानता हूँ की जो मुझे मिला वह कम नही है | पांडे जी जो नही मिला उसका गम नही क्यों कि ठुकराना पिता और मेरे दोनों के स्वभाव में रहा है | और ऐसे भी बहुत से लोग होंगे जिन्हें वह सब भी नही मिला जो हमें और आप को मिला उनके बार में क्या ख्याल है ?
हर इक को,
अपने हिस्से की धूप मिली ;
किसी को मिला घनेरा साया ,
किसीको मिली जेठ दुपहरी ;
ज़िन्दगी क्या खूब मिली खूब मिली,
बहुत खुब मिली | |
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“समर” मुस्कुराती रहे यूँ ही जिंदगी कभी कभी ;
यारां कभी न ओढ़ना, साये गम -ओ -उदासियों के ,
वक्त ए दौरां से ही चुरा लाईये खुशियों के कुछ पल;
लम्हा -लम्हा सही , जीलेंगें ज़िन्दगी कभी कभी \\
पिता जी का उल्लेख किया है ,उनके बारे में एक बात कहना भूल गया था ,उन्होंने २३ बार नौकरी को लात मारदी थी उन्हें वह कभी नही मिल सका जिस के वह योग्य थे ,दो-दो जवान लडके मुझसे पहाले आकाल मृत्यु को प्राप्त हुए सगे भाई ने हि तोड़ने कि कोशिश कि पर उन्होंने कभी अपनी संघर्ष के प्रति आस्था नही टूटने दी ,