पिछले दिनों ग्लोबल वार्मिंग से सम्बंधित कई वैज्ञानिक लेख एवं किताबें पढने को मिलीं एवं उनके द्वारा एक आश्चर्यजनक तथ्य सामने आया — कि ग्लोबल वार्मिक संभवतया पश्चिमी देशों का एक छल है. एक शुद्ध व्यापरिक छल.
पाश्चात्य देशों की आर्थिक सुरक्षा "बेचो या मरो" पर निर्भर करती है. अत: उनको बीच बीच में किसी न किसी तरह अपना व्यापार बढाना होता है. चूकि 1950 के बाद पूर्वी देशों में समृद्दि की लहर दौडने लगी है, अत: बीसवी शताब्दी के इस उत्तरार्ध में पूर्वी देशों की अर्थ व्यवस्था को दुहने की एक नयी कोशिश भी शुरू हो गई है. इसके लिये वे बीच बीच में वे तमाम तरह की अफवाहें फैलाते रहते है. इसके कुछ उदाहरण हैं
1. हिन्दुस्तान में एड्स या HIV से सम्बंधित आंकडों को पांच से पचास गुना बढा चढा कर पेश करना. इससे उनके द्वारा बनाये गये टेस्ट किट एवं दवाओं की बिक्री बेहताशा बढने लगती है.
2. जनसंख्या वृद्दि हो बढा चढा कर पेश करना. इससे उनके तमाम प्रकार के उत्पादों की बिक्री बढी
3. सोयाबीन को "अमृत" घोषित करना. इससे कल तक पश्चिमी देशों में जो घोडेगधों की खुराक थी उसे आज भारतीय कुलीन लोग बडे घमंड से इतरा कर खाते हैं.
4. ग्लोबल वार्मिंग का हौआ, जिससे कि तमाम तरह के नय उत्पन्नों के कारखाने पश्चिम की सहायता से पूर्व में लग सकें.
कल तक यूरोप हम को लूट रहा था, लेकिन अब हम शक्तिशाली हो गये है अत: सशस्त्र लूट के बदले अब वह बुद्दि के उपयोग से (एवं हिन्दुस्तान के बुद्दिजीवियों को कौडी के मोल खरीद कर) हम को हर ओर ठग रहा है. हर बात में पश्चिम का अंधानुकरण करने के बदले हमें हिन्दुस्तान मे कणाद, आर्यभट्ट, भास्कराचर्य, चरक, चाणक्य, पाणीनि, रामनुजन आदि की एक नई बुद्दिजीवी पीढी को तय्यार एवं प्रोत्साहित करना होगा जो हिन्दुस्तानी तरीके से हिन्दुस्तान के लिये एक दम मौलिक सोच प्रस्तुत करें
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हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
व्यापारिक लाभ उठाने के लिए पश्चिम (हम नहीं?) किसी भी हद तक जा सकता है, मगर जनसंख्या वृद्धी, एड्स आज की भयानक सच्चाई है. इससे आँखे नहीं मूंद सकते. दोनो से बचाव के तरिके तो अपनाने ही होंगे, फिर चाहे वे पश्चीम से आये या हम खुद बनायें.
मैं आपकी बातों से काफ़ी हद तक सहमत हूँ.
हम हर दिशा में पश्चिम का अनुसरण करने में लगे हैं.
हमारे पास हमारे खुद के तैयार किये गये उत्पाद काफ़ी कम है, और हमारे कारखाने अधिकतर सिर्फ़ अनुकृतियाँ ही बना रहे हैं, और हमारे शिक्षण संस्थान उन कारखानों में काम करने हेतु मजदूर बना रहे हैं.
यहाँ तक की जो (पश्चिमी) व्यापारी हमें (भारतीयों को) बुद्धिमान बताते हैं वे हमसे कहीं ज्यादा प्रायोगिक है, हमें “चढा” कर वे अपना उल्लु सीधा कर रहे हैं – इससे ज्यादा कुछ नहीं.
हमारे शिक्षण संस्थान भी बस “येस सर!” कहने वाली फ़ौज बनाने में जुटे हैं.
वैसे, मानते हैं कि exceptions तो हर जगह होते हैं, मगर हमारी जनसंख्या को देखते हुये उन “बिरलों” को उँट के मुँह में जीरे की संज्ञा देना अतिश्योक्ति नहीं होगा.
mein apki baat se sehmat hoo
i am full agree with you
thsnkinh you
i m fully agree with u.
aapne to hum sab ki aankhen khol di … well dun dude .. u sure rock !!!!!!!
शास्त्रीजी,
संजय बेंगाणीजी ने दो मुद्दों पर अपनी राय रखी है जिससे मैं पूर्णतया सहमत हूँ। बची ग्लोबल वार्मिंग की बात तो उस पर कुछ कहना चाहूँगा। यदि आप अपनी जानकारी के स्रोत (पत्रिकाओं) का जिक्र करते तो ज्यादा ठोस रूप से बात हो सकती थी ।
लेकिन ग्लोबल वार्मिग कोई हवा में उठाया गया हऊआ नहीं है बल्कि ये एक वास्तविक समस्या है। वैसे सुलझे हुये वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग के स्थान पर Global Climate Change का नाम प्रयोग करते हैं । ये महत्वपूर्ण है क्योंकि कई बार लोग इस प्रकार के कुतर्क देते हैं कि लो यहाँ तो २० साल के बाद भयंकर ठंड/बर्फ़ गिरी है और लोग ग्लोबल वार्मिंग की बात कर रहे हैं। आपको किन तर्कों के कारण ग्लोबल वार्मिंग के होने पर संदेह हुआ?
वैसे पिछले कई वर्षों से मैं इस वेबसाईट को पढ रहा हूँ जो एक सन्तुलित पक्ष रखती है, कभी समय मिले तो आप भी देखें ।
http://www.realclimate.org
आभार,
शास्त्रीजी,
संजय बेंगाणीजी ने दो मुद्दों पर अपनी राय रखी है जिससे मैं पूर्णतया सहमत हूँ। बची ग्लोबल वार्मिंग की बात तो उस पर कुछ कहना चाहूँगा। यदि आप अपनी जानकारी के स्रोत (पत्रिकाओं) का जिक्र करते तो ज्यादा ठोस रूप से बात हो सकती थी ।
लेकिन ग्लोबल वार्मिग कोई हवा में उठाया गया हऊआ नहीं है बल्कि ये एक वास्तविक समस्या है। वैसे सुलझे हुये वैज्ञानिक ग्लोबल वार्मिंग के स्थान पर Global Climate Change का नाम प्रयोग करते हैं । ये महत्वपूर्ण है क्योंकि कई बार लोग इस प्रकार के कुतर्क देते हैं कि लो यहाँ तो २० साल के बाद भयंकर ठंड/बर्फ़ गिरी है और लोग ग्लोबल वार्मिंग की बात कर रहे हैं। आपको किन तर्कों के कारण ग्लोबल वार्मिंग के होने पर संदेह हुआ?
वैसे पिछले कई वर्षों से मैं इस वेबसाईट को पढ रहा हूँ जो एक सन्तुलित पक्ष रखती है, कभी समय मिले तो आप भी देखें ।
शास्त्रीजी,
संजय बेंगाणीजी की राय से मई पूर्णतया सहमत हूँ। बची ग्लोबल वार्मिंग की बात !!!
आपकी बातें सत्य हैं , कुछ व्यापारिक हितों के चलते ऐसा होता रहा है …….किंतु पूरी तरह से ग्लोबल वार्मिंग को हवा में या हँसी में उडा देना समीचीन प्रतीत नहीं होता है !!
बेहतर तो यह होता कि आप अपनी जानकारी के स्रोत (पत्रिकाओं) का जिक्र करते ?
नीरज जी की बात भी ठीक हैं!!
कृपया पहली टिप्पणी को डिलीट कर दें!!
जी हाँ हमें एक संतुलित दृष्टि अपनानी होगी -नीर क्षीर विवेक रखना होगा ! भारत को बस एक बाजार बना देने की मानसिकता से सावधान रहने की भी जरूरत है -सिक्के के दूसरे पहलू को उजागर करने के लिए शुक्रिय !
वे अपना काम कर रहे है हमें अपना काम करना चाहिए.
आप की आज के आलेख से पूरी तरह सहमत हूँ। व्यापार के इस युग में छल ही उन का मूल धर्म रह गया है और हम उन की बातें ऐसे ही मान लेते हैं।
सही कह रहे हैं पर जिन्हें पैसा कमाना है वह ऐसा सोचें तब!
—मेरा पृष्ठ
चाँद, बादल और शाम
हर बात में पश्चिम का अंधानुकरण करने के बदले हमें हिन्दुस्तान मे कणाद, आर्यभट्ट, भास्कराचर्य, चरक, चाणक्य, पाणीनि, रामनुजन आदि की एक नई बुद्दिजीवी पीढी को तय्यार एवं प्रोत्साहित करना होगा जो हिन्दुस्तानी तरीके से हिन्दुस्तान के लिये एक दम मौलिक सोच प्रस्तुत करें
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शास्त्री जी, क्या खूब लिखा है आपने !!एक और व्यापार / बाजार को जोड देँ – प्रसाधनोँ की बिक्री की बढोतरी के लिये ब्यूटी पेजेन्ट और दक्षिण अमरीका व ऐशिया से चुनी जाती विश्व सुँदरियाँ भी इस स्ट्रेटेजी का हिस्सा हैँ – ग्लोबल वोर्मिँग तथा ऐड्स के लिये या धूम्रपान निषेध के लिये पस्चिम के मिल्क क्या करते हैँ और अपने आँकडे किस तरह दर्शाते हैँ उस पर भारत क्यूँ ध्यान देने लगा ? भारतीय सरकार भी तो एक पपेट बनी हुई है –
-लावण्या
हो सकता कि पश्चिम के अतिवादी आंकड़े सच न हों, पर फ़िर भी यदि वह अफ़वाहें हमारे जन-जीवन को प्रभावित करने वाले कारक हैं, तो सावधान तो हमें रहना ही होगा.
लावण्या जी ने कहा :”भारतीय सरकार भी तो एक पपेट बनी हुई है” – सही है. अपनी एक अपनी मौलिक सोच व नीति तो होनी ही चाहिये.
I agree with u.
khoob likha aapne
sarthi sir, maine aapaka lekh padha bahut adhachha laga me sir es sandarbh me,mai yahi kahana chata hu ki jo aaj hum din parti din pedo ki katai karte ja rahe hai to hum apane jivan ko nark bnate ja rahe hai vah esliye ki jab zamin se ped kat jayge to hame aaksijan nahi milegi jisse hame apne aap ko maut ke muh me dhakelna hai.
I am hindi and haryanvi kavi.
sharthi sir, mai aapse yah kahna chata hu ki aaj hamara smaj din parti girta ja raha hai hame esse upar uthane ki zarurt hai aur yah tabhi ho sata hai jab ham saab milkar ek naya samaj ka gathan kare kiske andar aapsi ver davesh ki bhawana na hokar balki sab k sab ek jut hokar aapas me kam kare aur es apni ekta ko banaye rakhe. aaj hame samtamulk samaj banane ki aavsaykata hai.
I am hindi and haryanvi kavi aur lekhak.