पिछले दिनों मेंगलोर के अंग्रेजी-शराबखाना-कांड और उसके बाद का चड्डी-कंडोम कांड आदि में कई ऐसे बौद्धिक प्रश्न उठे हैं जो बहुत लोगों के लिये अनुत्तरित है.
सारथी के कई प्रबुद्ध टिप्पणीकारों ने इन में से कुछ बाते सबके सामने रखने की कोशिश की है, जिसके लिये मैं उनका आभारी हूँ. कईयों ने टिप्पणी के साथ एक या अधिक सारगर्भित प्रश्न भी जोडे हैं जिनका जवाब मिलना भारत के वर्तमान परिवेश में जरूरी है. इन में से सारथी पर दिनेश जी की एक टिप्पणी और पत्र ने मुझे विषय के पुनर्मूल्यांकन के लिये प्रेरित किया और अमर ज्योति जी के प्रश्न ने मुझे सबसे अधिक चिंतन के लिये प्रेरित किया. अमर ज्योति कहते हैं:
(amar jyoti) आपने भले ही यह कहा है की सेना के कार्यों का अनुमोदन आपने नहीं किया पर आपके आक्रमण की धार पूरी तरह उन लोगों और समूहों के विरुद्ध केन्द्रित है जो मुतालिक और उसके ग़ुण्डों की भर्त्सना/निन्दा/आलोचना कर रहे हैं। चरित्र और नैतिकता क्या खानपान से तय होते हैं आचरण से नहीं? आपकी दृष्टि में शराब पीना अनैतिक और भारतीय सँस्कृति के विरुद्ध हैं। फिर तो लगभग सारे आदिवासी, मिज़ोरम, मेघालय व अन्य क्षेत्रों के निवासी जिनके लिये शराब दैनिक आहार का एक हिस्सा है आपकी परिभाषा के अनुसार अनैतिक और अभारतीय हुए । और मेरे सीमित से अनुभव के आधार पर मैं कह सकता हूं कि महिलाओं का मान-आदर वे लोग इन भारतीय सँस्कृति के स्वघोषित ठेकेदारों से हज़ारगुना जानते और करते हैं। कुछ लोग पब में शान्ति से बैठ कर शराब पीना पसन्द करते हैं और कुछ अन्य बिना पिये ही हुड़दंग और मारपीट करके पूरे समाज को आतंकित करते हैं तो एक सभ्य जनतान्त्रिक समाज में हमें यह तय करना होगा कि हम किसके साथ हैं और किसके विरुद्ध।
समस्या यह है कि जब भी संस्कृति के ह्रास या हनन की बात आती है तो लोग यह देखने की कोशिश नहीं करते कि इस मामले में शारीरिक बल अधिक फलदाई है या मानसिक आक्रमण अधिक बलदाई है. संस्कृति के विनाश की कोशिश में तलवार या कलम, कौन सा औजार अधिक नुक्सान करती है. उत्तर है कि “कलम” अधिक नुक्सान करती है.
“बल” सिर्फ एक बार कुछ लोगों पर काम करता है, एवं जैसे ही कानून के रक्षक वहां आ जाते हैं तो लठैत लगभग लुप्त हो जाते हैं. उनका असर महज स्थानीय (सीमित) और अस्थाई होता है. इतना ही नहीं, प्रजातंत्र में उनके लट्ठ का असर उनकी सोच से एकदम विपरीत होता है. लेकिन कलम के द्वारा समाज और संस्कृति पर जो आक्रमण किया जाता है वह सब जगह असर करती है (सार्वलौकिक है). इतना ही नहीं, इस तरह का आक्रमण कभी भी रुकता नहीं है क्योंकि कलम (शब्दों) द्वारा अभिव्यक्ति की आजादी लोकतंत्र में हरेक को मिली हुई है.
संस्कृति की सुरक्षा के नाम पर लठैत सिर्फ सीमित अवसरों पर आक्रमण कर सकते हैं, और जल्दी ही उनके विरुद्ध उठता जन-आक्रोश और कानून के रक्षक उनको काफी हद तक दबा देते हैं. लेकिन जब कलम की सहायता से संस्कृति पर आक्रमण किया जाता है तो उसके विरुद्ध न के बराबर जन आक्रोश उठता है. शब्दों में ऐसी मास्मरिक शक्ति है कि जनता को पता भी नहीं चलता कि क्या हो रहा है. अभिव्यक्ति की आजादी के कारण संस्कृति के दुश्मन नियमित रूप से, लम्बे समय तक, संस्कृति के विरुद्ध अपनी कलम का गुरिल्ला युद्ध चला सकते है.
आज पूर्वी देशों की सहस्त्र-वर्षों से स्थापित संस्कृति, नैतिकता, एवं मर्यादा का सबसे बडा दुश्मन उन लोगों की कलम है जो कभी लाठी का प्रयोग नहीं करते, बल्कि जिनको लठैतों के द्वारा “पीडित” किए जाने का लेबल मिल गया है. इस लेबल के कारण सबकी सिंपेथी उनको मिल जाती है, और इस “सिंपेथी-वेव” के चलते वे दोचार दिन में ही अपनी कलम द्वारा काफी सारी बातें दरवाजे की नीचे “खिसका” देते हैं. जब तक स्थिति सामान्य हो पाती है तब तक ये अपना प्रारंभिक काम कर चुके होते हैं और इस कारण आगे का काम आसान हो जाता है.
यह चिंतन-विश्लेषण परंपरा अभी जारी रहेगी . . . मेरी प्रस्तावनाओं में यदि कोई गलत बात आप देखते हैं तो शास्त्रार्थ की सुविधा के लिये खुल कर मेरा खंडन करें. आपकी टिप्पणी मिटाई नहीं जायगी.
कलम निश्चित रूप से विचारों में परिवर्तन का काम कर सकती है। लेकिन फिर बात पाबंदी तक जाएगी, जो और भी अधिक खतरनाक है। अनुशासन एक चीज है और डण्डा दूसरी चीज। फिर कलम पर डण्डे की बात न शुरू हो जाए।
” फिर कलम पर डण्डे की बात न शुरू हो जाए।”
ऐसा नहीं होगा!! मैं आजादी का पक्षधर हूँ!!
लेखनी बहुत बड़ा हथियार है और उसका दुरुपयोग लाठी से कम नहीं हो रहा।
कलम और डण्ड दोनों ही लड़ाई के हथियार हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं;विकल्प नहीं। संघर्ष की वस्तुगत परिस्थितियां ही यह तय करती हैं कि कब कौन सा हथियार उपयोगी होगा। देखना यह है कि इनका प्रयोग किनके पक्ष में और किनके विरुद्ध होता है । महत्वपूर्ण यह भी है कि इस लड़ाई में हम अपना पक्ष तय करें। जीवन-संघर्ष में कोई भी दर्शक बन कर नहीं रह सकता।
कलम और डण्डा दोनों ही लड़ाई के हथियार हैं। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं;विकल्प नहीं। संघर्ष की वस्तुगत परिस्थितियां ही यह तय करती हैं कि कब कौन सा हथियार उपयोगी होगा। देखना यह है कि इनका प्रयोग किनके पक्ष में और किनके विरुद्ध होता है । महत्वपूर्ण यह भी है कि इस लड़ाई में हम अपना पक्ष तय करें। जीवन-संघर्ष में कोई भी दर्शक बन कर नहीं रह सकता।
सहमत। कलम का प्रभाव डण्डे की अपेक्षा अधिक दूर और विस्तृत क्षेत्र तक होता है। इसीलिए कलम का प्रयोग करने वाले को अधिक सावधान और दूरदर्शी होना चाहिए। कलम का प्रयोग डण्डे की तरह करने वाले जल्दी ही इतिहास बन जाते हैं।
आपका विमर्श अत्यन्त सन्तुलित, तार्किक और ग्राह्य है।
आज के सन्दर्भ में ‘कलम’ को सुधारकर ‘माइक्रोफोन’ कर लेना चाहिये।
पुराने पारकर पेनों के ढक्कनों में जो क्लिप होती थी उसे तीर के shape में बनाया गया होता था.
डंडे की मार से तो आदमी बच जाता है लेकिन कलम की मार से बचना मुस्किल है, कलम तलवार से भी तेज होती है,लेकिन कलम वोही तेज होती है जो सत्य की स्याही से लिखती है.
आप का पिछला लेख मेने आज ही पढा, मै उस के हक मै हुं.
धन्यवाद
कलम से अधिक प्रभावी और धारदार हथियार और कोई नहीं।
कलम यदि साथ हो तो तलवार की जरुरत नही होती है . कलम की नोक की धार को इस तरह बनाया जे की वह तलवार की धार के समान चले. . कलम की धार तलवार की धार पर भारी पड़ सकती है . आभार
kalam destroys the men but talwar kills him, hence kalam is more powerful then Talwar.
Talwar is less cutting than the cut by kalam
What a nice thrilling question? Yes Talwar ki Bajay kalam ko hi choone