इसमें कोई शक नहीं कि सरदर्द हटाने के लिये टाईगर-बाम सबसे सशक्त बाम है. इस दवा से मेरा पहला परिचय हुआ 1981 में. लेकिन सरदर्द को “हटाने” वाली ऐसी सशक्त दवा काम कैसे करती हैं यह प्रश्न कई साल मेरे मन में रहा.
सन 1994 में एक डाक्टर ने पहली बार समझाया कि टाईगर बाम या और किसी भी प्रकार का लेप/बाम सामान्यतया दर्द को “हटाता” या “मिटाता” नहीं है. उल्टे, ये दवाईयां सरदर्द से कई गुना अधिक “दर्द” माथे की चमडी पर पैदा कर देती हैं जिसके कारण मूल दर्द बडे दर्द में छुप जाता है और लोगों को लगता है कि दर्द चला गया.
दूसरे शब्दों में कहा जाये, तो जब लोगों का सारा ध्यान एक बडे “दर्द” पर केंद्रित हो तो उसकी आड में काफी सारे छोटे दर्द छुप जाते हैं, या छुपाये जा सकते हैं. यह न केवल शारीरिक स्तर पर बल्कि मानसिक स्तर पर भी एक हकीकत है — यदि सारा ध्यान एक विषय पर केंद्रित कर दिया जाये तो उसकी आड में कई अन्य विषय मनुष्य मन में “सरका दिये” या ठूस दिये जा सकते हैं. “शिकार” को पता भी नहीं चलेगा कि इस दौरान क्या क्या बातें बडी चालाकी से उसके दिमांग में “सरका” दिये गये हैं.
इसका एक बहुत सुंदर उदाहरण पिछले दिनों वास्तविकता-प्रदर्शन -– जुगुप्सा प्रदर्शन ! में मैं ने बताया था. मूल मुद्धा उठाया था अनिल पुसादकर ने अपने आलेख वो बच्चा द्विअर्थी संवादो के मामले मे दादा कोंड़के को मात दे रहा था और लोग तालिया बज़ा रहे थे में. इस कार्यक्रम में प्रश्नों के द्विअर्थी उत्तर दिये जा रहे थे. उन्होंने लिखा:
चैनल बदलते-बदलते बच्चों के एक कार्यक्रम पर मैं रूक गया।सोचा देखूं देश की भावी पीढी क्या कर रही है।एक बच्चा स्टेज पर दो लोगो की टेलिफ़ोन पर बातचीत सुना रहा था।गलत नंबर लगने के कारण वो कार के विज्ञापन दाता और बेटे के लिये बहु तलाश रहे सज्जन के बीच हूई बातों को बता रहा था।बाते क्या थी द्विअर्थी अश्लिल संवाद थे ।
बेहद फ़ूहड़ और अश्लिल बक़वास के दौरान सभी निर्णायक़ बेशर्मी से हंसते रहे।
इसी विषय के बारे में विजय वडनेरे ने क्या इसे कॉमेडी कहेंगे? एवं अन्य काई चिट्ठाकारों ने चर्चा की है. इन सब चिट्ठाकारों का सवाल था कि वह क्या कारण है कि टीवी पर बच्चे एक से एक द्विअर्थी और अश्लील बाते बोले जा रहे हैं लेकिन मां बाप को बुरा नहीं लग रहा था कि उनके लाल के मूँह से ऐसी अश्लील बाते कहलवाई जा रही हैं. बुरा छोडिये, अधिकतर माँबाप की छाती फूलकर कुपा हो रही थी.
अब आप को कारण बताते हैं. टाईगर बाम जिस तरह एक बडा दर्द पैदा करके बहुत सी चीजें छुपा लेता है, उसी तरह ये टीवी वाले एक बहुत बडी बात का ढोल पीटते हैं:
आपका बच्चा:
टीवी पर आ जायगा!!
टीवी पर आ जायगा!!!
टीवी पर आ जायगा!!!
औसत आदमी की स्थिति यह है कि उसके लाल का नाम अखबार के एक कुन्ने में कहीं आ जाये तो उसकी छाती फूल कर कुप्पा हो जाती है. अत: जब उसको बताया जाता है कि उसके लाल/बिटिया को रातोंरात “टीवी” पर आने का मौका मिलेगा तो वे बाकी सब भूल जाते हैं. टीवी पर आने का एक बहुत बडा लालच देकर ये लोग काफी सारी बातें उन बच्चों एवं उनके अभिभावकों के जीवन (या उनकी बोली) में “सरका” देते हैं. जैसे एक पहाड के ऊपर से लुढकाया गोल पत्थर फिर रोका नहीं जा सकता उसी तरह रातोंरात टीवी पर आने के लालच का जो महाशक्ति टाईगर-बाम पेल दिया जाता है तो उसकी आड में तमाम गलत काम करवाने के लिये रास्ता खुल जाता है.
यह है “गहन-पैठ” की अनोखी मिसाल: जनसामान्य के समक्ष आने की जो छुपी इच्छा हरेक व्यक्ति के मन में है, उसमें पैठ कर, टीवी का बडा लालच देकर, उसके साथ साथ अश्लील बातचीत उन बच्चों के मन/जीवन में “सरका” दी जाती हैं. समाजिक सीमाओं में एक सीमा और टूट जाती है.
ताज्जुब की बात है कि लोग हम सब के जीवनों में, चिंतनलोक में, इस तरह की गहन-पैठ कर रहे हैं, लेकिन हम लोगों को पता नहीं चल रहा.
यह चिंतन-विश्लेषण परंपरा अभी जारी रहेगी . . . मेरी प्रस्तावनाओं में यदि कोई गलत बात आप देखते हैं तो शास्त्रार्थ की सुविधा के लिये खुल कर मेरा खंडन करें. आपकी टिप्पणी मिटाई नहीं जायगी. [Picture by Robbie1 ]
इस लेखन परम्परा के लेख आलेख के क्रम मे:
आपकी बाते गहरे मनन लायक हैं !
बहुत जरूरी बातें बतायीं हैं आपने . धन्यवाद
अगली पोस्ट के टाइगर बाम लगा के पढता हूँ – परीक्षण हो जायेगा.
बात तो गौरतलब ह शास्त्री जी और तर्कसंगत भी.
यदि सारा ध्यान एक विषय पर केंद्रित कर दिया जाये तो उसकी आड में कई अन्य विषय मनुष्य मन में “सरका दिये” या ठूस दिये जा सकते हैं. “शिकार” को पता भी नहीं चलेगा कि इस दौरान क्या क्या बातें बडी चालाकी से उसके दिमांग में “सरका” दिये गये हैं.
” आप कैसे इतनी सरलता से इतनी गहरी बात को समझा पते हैं……ये पंक्तियाँ बहुत कुछ ….”
regards
टाइगर बॉम के बहाने कई महत्वपूर्ण बातें ज्ञात हुईं। आभार।
नुस्खे से पूर्णतः सहमत..
आप बिल्कुल सही कह रहे हैं. बहुत लाजवाब तर्क ढूंढा है आपने. धन्यवाद.
रामराम.
बिल्कुल सही बात पकड़ी है आपने. 15 minutes of fame की गरज जो न करवा ले. रियलिटी शो हों या इस तरह के टैलेंट हंट सबमें उन १५ मिनट को यादगार बनाने की ऐसी कोशिश रहती है कि सही ग़लत के सारे मापदंड ही धरे रह जाते हैं.
विचारणीय पोस्ट लिखी है।धन्यवाद।
अच्छा,बच्चों का यूं शोषण हो रहा है! शेम।
अत्यन्त सम्यक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण ! अत्यन्त विचारणीय व उपयोगी सुझाव !
मुनाफ़े के लिये यह व्यवस्था लगातार हमारे जीवन की सुकुमारतम,पवित्रतम वस्तुओं और भावनाओं को ‘बिकाऊ माल’ में बदलती जाती है और हममें से बहुत से इस पर चिन्तित होने के बजाय गौरवान्वित अनुभव करते हैं।
शास्त्री जी, विक्स आयोडेक्स या टाइगर बाम सभी काम के हैँ
– लावण्या
शास्त्रार्थ की हिमाकत…????
मुझे तो इतनी सी बात समझ में नहीं आ पा रही कि जिस बात को हम आप शेष सारे लोग समझ रहे हैं,वो इन मूढ़ माँ-बाप और चैनल वालों के पल्ले क्यों नहीं पड़ रही
शास्त्री जी , आप की बात सॊ प्रतिशत सही है, लेकिन आज कल एक ओर भी फ़ेशन चल पढा है, मां बाप अपने छोटे से बच्चे को टी वी पर गवाते ओर नचाते है, ओर बहुत ही खुश होते है,पता नही हमारा दिमाग कहा खो गया है, हम किस ओर जा रहे है, यह बच्चे जिन की उम्र अभी पढने की है यह सब कर के यह केसे नागरिक बनेगे???
धन्यवाद इस सुंदर लेख के लिये
आपने बच्चो के चारित्रिक विकास मे रुकावट के लिये टी वी शोज को जिम्मेदार ठहराया वो सतप्रतिशत सही है।
आप और हम सभी इसके लिये जिम्म्दार है। हमने प्रसार-प्रचार के मायाजाल मे अपने बच्चो को झोक दिया। बहुत ही अच्छे विचारो के लिये मै आपका अभिवादन करता हू।
इस पर विस्तृत चर्चा सम्भव है जो होनी ही चाहिये आखिर यह हमारे बच्चो के जिवन से जुडा प्रशन है।
इसे आप जारी रखे समाज देश एवम परिवारो कि भलाई के लिये।
यह २१” इन्च का बुद्धु बक्सा हमारे बच्चो के भविष्य को लिल रहा है। बच्चो से अप्रकृतिक अभिनय कराने वाले निर्माताओ एवम उनका साथ देने वाले अभिभावको को शर्म आनी चाहिये कि वो भावी पीढी के भविष्य कि ऐसी तैसी करने पर तुले हुये है। अब इस दर्द का ईलाज टाईगर बाम से नही झणडु बाम से करना होगा ।
हम कितने लोग है जो इस पोस्ट को पढकर इस तरह के टी वी शो, फिल्मो का बॉयकाट करेगे? या फिर अच्छे तमाशे के लिये शास्त्रीजी कि बात पर तालिया बजाकर चलते बनेगे।
जैसे बाल मजदुरी पर सरकारी बन्धन है, उसी तरह बच्चो के अश्लिल अभिनय, अश्लिलभाषा, पर रोक लगे। सरकारे कडाई से पालन कराये। बच्चो के मातापिता को भी कानुन के दायरे मे लाया जाये। घर पर टी वी के अनैतिक प्रसारण वाले चैनल ना देखे जाये। ऐसे फिल्म निर्माताओ का हुका पानी बन्द कर देना चाहिये जो बच्चो के साथ खिलवाड करते है।