हर देशभक्त को दुखी होना चाहिये!!

Dog सारथी के वरिष्ठ लेखकों को याद होगा कि मेरे उनके बचपन में कुत्तों के लिये सबसे आम नाम हुआ करता था “टीपू”. सवाल है कि ऐसा कैसे हुआ?

टीपू सुल्तान ने जब अंग्रेजों के छक्के छुडा दिये थे, तब टीपू को काबू में लाने के लिये अंग्रेजों ने हर तरह के नीच तंत्र का सहारा लिया. कई हिन्दुस्तानी शासकों को अपनी ओर मिला लिया. आखिर मौका पडने पर वे लोग  टीपू के दोनों बच्चों को बंधुवा बना कर ले गये.

जब अंग्रेजों को इस से भी संतुष्टि नहीं हुई तो उन्होंने अपने पालतू कुत्तों को “टीपू” कहना शुरू कर दिया. इस तरह हिन्दुस्तान में कुत्तों के लिये टीपू नाम काफी आम हो गया था और लगभग 1960 आदि तक चलता रहा था.

आज भी कई साम्राज्यवादी यूरोपीय लोग है जो हिन्दुस्तानियों को कुत्ता समझते  हैं, एवं कुत्ता कहते हैं. इन में से एक को कुछ साल पहले मद्रास सेंट्रल स्टेशन पर लगभग गिरफ्तार कर लिया गया था जब उस ने एक रेलवे अफसर से ऐसा व्यवहार किया जैसे अभी भी आजाद हिन्दुस्तान के लोग उसके जरखरीद गुलाम हों.

पिछले दसबीस सालों में इन लोगों ने हिन्दुस्तानियों को सतत गुलामी में रखने का एक और तरीका ईजाद कर दिया है और वह है हिन्दुस्तानियों को उनकी साहित्यिक-सांस्कृतिक रचनाओं पर पुरस्कार देना. जैसे ही किसी हिन्दुस्तानी को उसके लिखे किसी अंग्रेजी उपन्यास पर कोई पुरस्कार मिल जाता है तो लोग खुशी से पागल हो जाते हैं. स्लमडॉग (गली का कुत्ता, सडकछाप कुत्ता) को आज ऑस्कर मिला तो देश भर में यही पागलपन दिख रहा है.

विडम्बना की बात यह है कि कम से कम जिन भारतीयों को अंग्रेजी उपन्यास लिखने के लिये विदेशियों ने पुरस्कार नवाजे हैं इन में से कई के उपन्यास भारतविरोधी कथनों से भरे पडे हैं.

समय आ गया है दोस्तों कि हम विदेशियों की मानसिक गुलामी से ऊपर उठकर देशनिर्माण का कार्य करें. इसके लिये पहला काम जो हर देशभक्त को करना है वह है कि इन लोगों की, उनके कृति की, प्रशंसा न करें. उनके प्रचारक न बनें.

 

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Author: Super_Admin

23 thoughts on “हर देशभक्त को दुखी होना चाहिये!!

  1. आपको एक तो इस बात के लिये धन्यवाद कि आपने कुत्तों को टीपू कहने का सही कारण बताया. आप बिल्कुल सत्य कह रहे हैं हम भी बचपन मे कुत्ते को पिल्लों को ऊठा कर खिलाया करते थे और उनको टीपू..टीपू..करके बुलाया करते थे.

    आप का बचपन गुजरा है ग्वालियर मे और हमारा ठॆठ हरयाणा मे. इसका मतलब कि यह नाम पूरे भारत मे ही कुत्तों का रहा होगा. आपको इसके लिये बहुत धन्यवाद. अक्सर ये बात काफ़ी बार दिमाग मे आई थी पर हल नही मिला.

    अब आस्कर और अन्य पुरुस्कारों पर आपकी बात से पुर्ण सहमती है. बहुत शुभकामनाएं.

    रामराम.

  2. हमें भी अब अपने-अपने कुत्तों के नाम “टॉमी”, “जिमी”, “बुश”, “बिल” आदि रखना चाहिये ताकि आने वाले पचास साल में हमारे बच्चों के बच्चे यही सोचें कि “अमेरिकी” कुत्ते होते हैं 🙂 🙂 इस मजाक को सीरियसली भी लिया जा सकता है… 🙂 🙂

  3. मेने अपने कुत्ते का नाम हेरी रखा है, क्यो क्योकि … बाकी भारत मे जो विदेशी इनाम मिलने पर( हिन्दी मे लिखे सहित्य पर नही ना ही किसी भरतीया निर्माता की बनी चीज पर) सिर्फ़ अग्रेजी मे लिखी सहित्य पर जो इतराते है ओर ऑस्कर, पुरस्कार ले कर, ओर अपने ही घर की बुराई कर के असल मे वो है भी स्लमडॉग ही, क्योकि दुम तो डांग या फ़िर स्लमडॉग ही हिलायेगा.
    शास्त्री जी आप की एक एक बात सत्य मे डुबी है, आप की सभी बातो से मै सहमत हुं.
    धन्यवाद

  4. एपी तो खुद विदेश मे पढ़ कर आये हैं तब आप का स्वाभिमान कहां था और अगर आप के हिसाब से चले तो समीर , राकेश जीतू , पंकज नरूला सब को विदेशी पैसा छोड़ कर वापस आ जाना चाहिये क्युकी नहीं तो वो देश भक्त नहीं हैं

  5. मैंने तो टीपू नाम के किसी कुत्ते के दर्शन नहीं किए, किन्तु इसी बहाने एक रोचक बात पता चली।

  6. @hindi blogge

    टिप्पणी के लिये आभार!

    यहां बात विदेश जाने, वहां नौकरी करने, आदि कि नहीं हो रही है बल्कि अपना स्वाभिमान विदेशियों को बेचने की बात हो रही है.

    आपकी टिप्प्णी के लिये आभार! मैं कुछ दिन से नजर रखें हूँ कि किन आईपी संख्याओं से इस तरह की टिप्पणियां सारथी पर पोस्ट की जा रही हैं. इन आंकडों द्वारा एक निश्चित “पेटर्न” व्यक्त हो गया है.

    अगली एकाध पोस्ट उन लोगों को समर्पित करेंगे जिन को हर बात में आपत्ति होती है लेकिन जो गलत आईडेंटिटी देकर टिप्पणी करते हैं. वे भूल जाते हैं कि आईपी संख्या को छुपाया नहीं जा सकता है जिसके द्वारा मुझे अनुमान हो जाता है कि संभवतया कौन लोग टिप्पणी कर रहे हैं.

  7. दादा! देखो कुछ दिन पहले अमिताभ बच्चन ने अपने ब्लोग पर यही बात कही थी ”
    यह हरकत तो दशको से विदेशियो द्वारा हो रही है
    १९५६ मे सत्यजित राय कि पहली फिल्म “पथेर पान्चाली” नेहरुजी के हस्तक्षेप से कान फिल्मोत्सव पहुची। फ्रान्सुआ त्रुफो सरीखे महसुर फिल्मकार पथेर पान्चाली की स्क्रीनिग के बीच से यह कहकर उठ्करचलते बने कि भारतियो को हाथ से खाना खाते हुये नही देख सकते बेचारे गरीब! लेकिन “पथेर पान्चाली”
    गरीबी के बारे मे नही थी वह मानवता और मनुष्यता के बारे मे थी। कान मे उसे पुरस्कार ही नही मिले, बल्कि आज भी गोरे लोग इस फिलम को फिल्म एप्रीशिएसन कोर्स मे इसे कालजयी फिल्म के रुप मे देखते है।
    नरगिस ने १९८० मे सत्यजित राय कि फिल्मो मे गरीबो के चित्रण मे टीपणी की थी-“मै जब बाहर जाती हु ,तो विदेशी शर्मसार करने वाले सवाल पुछते है कि आपके यहॉ स्कुल है ? क्या आपके वहॉ कारे है? मुझे तब शर्म और हैरत होती है जब वो पुछते है आप कैसे घरो मे रहते हो ?मुझे लगता है कि मुझे जवाब देना चाहिये कि हम तो पेडो पर रहते है। “पथेर पान्चाली” जैसी फिल्मे विदेशो मे इसलिये प्रसिद्ध हुई क्यो कि यह भारत कि अच्छी तस्वीर पेश नही करती है।”

    पश्चिम आधुनिक अमीर देशो के आम नागरिक को यह बात समझ नही आती कि भारतीय स्लम मे जानवरो कि जिन्दगी जिनेवाले लोग आखिर इतने खुश कैसे दिखाई देते है?

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  8. आइये, भारत कि गरीबी का जश्न मानाये।
    क्यो कि हमने ऑस्कर को जीता है।
    क्यो जीता ?
    किस बात पर जीता ?
    स्वाभिमान को ताक मे रखकर ?
    यह समझने कि फुर्सत कहा है हमे ?
    यह कैसा जशन ?
    यह कैसी खुशी ?

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  9. शास्‍त्रीजी! अशिष्‍टता के लिए क्षमा कीजिएगा।
    आपकी भावनाओं से असहमत होने की तो कल्‍पना भी आत्‍मघाती है। आपकी बातें भी सही किन्‍तु दिशा में तनिक नकारात्‍मकता अनुभव हो रही है।
    क्‍या यह उचित नहीं होगा कि ‘उनकी’ आलोचना करने के बजाय हम अपनी कृतियों की चर्चा करें? इसमें एक कठिनाई आएगी। हमें (याने हम सबको) अपनी कृतियों के बारे में बहुत ही कम जानकारी है। उनके बारे में अखबारों में और विभिन्‍न चैनलों पर गलती से ही कुछ दिखाई देता है।
    इसलिए, हमें शुरु से ही शुरु करना होगा। ‘कभी नहीं से देर भली।’ अब तक नहीं कर पाए तो कोई बात नहीं। अब ही शुरु हो जाएं।

  10. भारतीय गरिमा को भारतीय मूल का हरेक व्यक्ति उन्नत करेगा तभी विश्व भी
    भारतीयता का सत्कार करेगा …बुरी नज़रवालोँ का मुँह काला 🙂
    स स्नेह,

    – लावण्या

  11. बिल्कुल सच बात है जी!

    वैसे किसी के नाम पर कुत्ते का नाम रख लेने पर अपमान किसका होता है… यह भी गहराई से सोचना चाहिए। क्या इस आख्यान से टीपू की वीरता और प्रतिष्ठा हमारे मन में कम हो गयी? वस्तुतः यह तो अंग्रेजों की ओछी मानसिकता का परिचायक ही बना न।

    किसी को गाली देकर हम यह भ्रम पाल लेते हैं कि हमने उसे नीचा दिखा दिया। लेकिन यह भूल जाते हैं कि इस काम में हम खुद नीचे चले जाते हैं। जरा सोचिए! उल्टे यदि अगले ने उस गाली-दान को ग्रहण नहीं किया और ससम्मान वापस कर दिया तो…?

  12. नमस्कार शास्त्री जी ….
    मुझे पता है आप बहुत ज्ञानी है और आईपी एड्रेस पर ध्यान रखते है और ये बात तो आप ने बडे बडे शब्दों में अपने ब्लॉग पर लिखी हुई है सो मैंने भी कभी पढ़ ली. उस के बाद अपनी पेच्चान छुपाने की जरुरत समजू , इतनी समझदारी नहीं मुझ में … शयद यही मेरी पहचान है …
    हाँ आप को ब्लॉग से हट केर बात करनी हो तो आप बताये उसका भी प्रभंध है …

  13. @hindi blogge

    प्रिय दोस्त,

    आपकी टिप्पणी के लिये आभार !! आप की निर्भीक टिप्पणी से यह बात स्पष्ट हो गई है कि आप उस “काकस” में नहीं है जो जबर्दस्ती सारथी पर टिप्पणियां कर रहे हैं. उत्तर के लिये आभार !!

    हां मेरे चिट्ठे पर आपका हमेशा स्वागत रहेगा. इतना ही नहीं आप मेरी बातों का खंडन करेंगे तो उसका भी स्वागत रहेगा — क्योंकि जब आप जैसा व्यक्ति स्वतंत्र चिंतन के साथ खंडन करेंगा तो मुझे सोचने एवं अपनी बात कुछ और स्पष्ट तरीके से रखने का मौका मिलेगा. गलती हो तो सुधार के लिये भी प्रेरणा मिलेगी.

    उत्तर के लिए आभार

    सस्नेह — शास्त्री

  14. फिल्म विरासत का वह दृश्य अनायास ही याद हो आया जिसमे एक वकील गाँव वालों को अंग्रेजी में कानून बघार कर अपनी हद में रहने का हुक्म देता है पर तभी गाँव वालों की तरफ से अनिल कपूर अभिनीत पात्र उसे अंग्रेजी में ही जवाब दे कर चुप कर देता है.

    कला और ज्ञान सिर्फ कला और ज्ञान हैं. वो किसी भाषा विशेष पर आश्रित न कभी हुए थे और न कभी होंगे. सिर्फ भाषा को आधार बना कर कला और उसको जीने वाले कलाकारों का विरोध करने के प्रयासों के प्रति मैं अपना विरोध दर्ज करता हूँ.

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