फुरसतिया, शास्त्रार्थ, भडकीले शीर्षक!

अनूप शुक्ल बहुत ही सक्रिय चिट्ठालेखक हैं और उन्होंने जिस तरह मेहनत से चिट्ठाचर्चा को एक नियमित रूप दिया है वह तारीफे काबिल है. इसके साथ साथ अन्य चर्चाकार भी सक्रिय हो गये हैं, और कुल मिला कर चिट्ठाचर्चा इन दिनों हर चिट्ठाकार के पठन के लिये जरूरी हो गया है.

चर्चा करना कोई इन से सीखे! और हां यदि कोई चर्चाकार अस्वस्थ हो, जुकाम हो गया हो, व्यस्त हो तो हमेशा परोपकारी अनूप उनका स्थान ले लेते हैं.  कुछ दिन से वे मुझे छेड रहे थे कि एक शास्त्रार्थ हो जाये. मैं ऐसे विषय की तलाश में हूँ जहां उन जैसे महारथी को आसानी से हराया जा सके. पाठको को कोई विषय सूझे तो जरा सुझा दें.

अब आते हैं शीर्षक की ओर. उन्होंने कई बात इशारा किया है कि मैं चुन चुन कर शीर्षक देता हूँ. यह बात एकदम सही है. पिछले कुछ महीनों से तो सारथी पर बाकायदा प्रयोग चल रहा था कि शीर्षक का असर पाठक संख्या पर क्या पडता है. पिछले 3 महीने के अनुसंधान से निम्न बातें प्रगट हुई हैं:

  1. पाठकों को आकर्षित करने में शीर्षक काफी महत्वपूर्ण है क्योंकि बढती चिट्ठासंख्या के साथ साथ पाठक के समक्ष इतने चुनाव हैं कि उसे क्या पढे इसे तय करने के लिये बहुत कम समय मिल पाता है.
  2. एक ही आलेख के लिये सादा शीर्षक या आकर्षक शीर्षक चुना जाये तो आकर्षक शीर्षक पर पाठक अधिक मिलते हैं.
  3. लेकिन इन दोनों का असर सिर्फ उस आलेख तक सीमित रहता है. चिट्ठे को इससे कोई दूरगामी फायदा नहीं मिलता है.
  4. चिट्ठे को सबसे अधिक फायदा होता है “कोर रीडरशिप” द्वारा. यह पाठकों का वह समूह है जो आपके चिट्ठे की ओर इतना आकर्षित हो जाता है कि वह आपका नियमित पाठक बन जाता है.
  5. कोर रीडरशिप पाने के लिये जरूरी है कि आप नियमित रूप से पठनीय एवं उपयोगी जानकारी लिखें. इसक एक अच्छा उदाहरण है सुब्रमनियन जी का “मल्हार” . यह एक नया चिट्ठा है, लेकिन यहां ऐसी गजब की सामग्री पेश की जाती है कि इस चिट्ठे ने थोडे से समय में काफी अच्छी कोर रीडरशिप बटोर ली है.

कुल मिला कर कहा जाये, तो चिट्ठे की सफलता के लिये जरूरी है कि आपका शीर्षक जितना अकर्षक हो सकता है उतना उसे बनाया जाये. इसके साथ साथ नियमित रुप से उपयोगी सामग्री परोसी जाय.

अब फुरसतिया से निवेदन है कि इस विषय पर आज एक मित्रवत शास्रार्थ हो जाये!!

पुनश्च: यह आलेख अनूप शुक्ल को समर्पित है. उन्होंने जिस मेहनत से चिट्ठाचर्चा को पुनर्जीवित एवं सजीव किया है उसके लिये मैं (और हिन्दी चिट्ठाजगत) सदैव उनका आभारी रहूंगा. हर सक्रिय पाठक को चाहिये कि उसके चिट्ठे का नाम आया हो या न आया हो, वे हर दिन अनूप के और अन्य चर्चाकारों के आलेख पर कम से कम एक वाक्य की टिप्पणी जरूर करें. हम सब एक परिवार हैं, एवं इस परिवार में हरेक को प्रोत्साहन देना जरूरी है.

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Author: Super_Admin

26 thoughts on “फुरसतिया, शास्त्रार्थ, भडकीले शीर्षक!

  1. अनूप जी बधाई के पात्र हैं. बहुत मेहनती और लगनशील हैं. चिट्ठाचर्चा में उनके योगदान को सदा रखा जायेगा. आप सही कह रहे हैं. मल्हार का मैं भी नियमित पाठक हूँ.

  2. फ़ुरसतिया जी आपका निवेदन अवश्य स्वीकार करेंगे, और जल्द ही एक आलेख के साथ हाजिर होंगे, आशा है .
    चिट्ठाचर्चा का स्थान हिन्दी चिट्ठाकारी में अन्यतम है और भिन्न-भिन्न विचार-सरणियों का एक स्थान पर समन्वित होकर संयम-भाव से चर्चा-कार्य में संलग्न रहना, अपने आप में एक महनीय उपलब्धि है उसके लिये.
    अनूप जी तो खैर चिट्ठाचर्चा के लिये ’मा प्रमदितव्यम’ की विचारधारा के हैं, और यह उन्हीं का संकल्प है कि वह नियमित है.

  3. चिटठा चर्चा एक थैंकलेस कार्य है .अनूप जी की मेहनत बाकई मे सम्मान की पात्र है

  4. अनूप जी को बढ़ते चिट्ठों की संख्या देखते हुए अमीन डिगाने का यत्न किया था पर वे बिहँसे कि यह तो वे करते नहीं उनसे ऐसे वैसे ही जाता है -तो उन्हें झेलने दीजिये पर उन्हें अपने से ज्यादा चिंता आपकी रहती है -अब ऐसा है कि नहीं इसी पर हो जाय उनसे शास्त्रार्थ !
    शीर्षक और मल्हार वाली बात से सौ फीसदी सहमति !

  5. मुझे खुशी है कि चिट्ठा-चर्चा कितना थेंकलेस कार्य है इसे आप सब पहचानते है!!

  6. “इसमें कोई दो राए नहीं की अनूप जी गजब की चिट्ठा चर्चा करते हैं….पूरी मेहनत लगन और ईमानदारी से किसी की खिंचाई करने में पीछे नहीं रहते हा हा हा हा हा हा हा जो भी है ये एक बहुत मेहनत का कार्य है ….जिसे समय से और इमानदरी से अनूप जी करते आ रहे हैं उनका ये कार्य सराहनीय और सम्मानजनक है.”

    Regards

  7. अनूप जी जैसा व्यक्तित्व इस क्षेत्र मे मुझे दुसरा कोई नही दिखता. सबकी मौज लेते हुये कैसे वो समय निकाल लेते हैं? इसकी जांच होनी चाहिये.

    शायद भगवान ने उनको एक दिन मे ३६ घण्टे दिये हैं और हम सबको सिर्फ़ २४ घंटे. ये सरासर ना इंसाफ़ी है शाश्त्री जी.
    हम भगवान का इस बात का पुरजोर विरोध करते हैं. हमे भी ३६ घंटे का दिन भगवान दे फ़िर हम डबल फ़ुरसतिया बन कर दिखा देंगे. 🙂

    आपको शाश्त्रार्थ का विषय चाहिये तो एक विषय हमारे दिमाग मे है और मौसम भी होलीनुमा हो रहा है.. मौज कैसे ली जाये? इसी पर थोडॆ समय बहस चलनी चाहिये.

    मल्हार वाकई एक अनुकरणीय ब्लाग है. आदर्णीय सुब्रमनियन जी बहुत सलीके से और प्रभावित करने वाली उपयोगी जानकारी देते हैं.

    रामराम.

  8. अपनी पाठक संख्या बढाने के लिए दूसरों के बारे में टिप्पणी करते रहना भी एक अच्छा तरीका है।

  9. शास्त्रीजी, आप महान हैं। गुणी हैं,ज्ञानी हैं! आपसे कैसा शास्त्रार्थ? किसकी हिम्मत जो आपसे शास्त्रार्थ करे?

    आपने हमारी इत्ती तारीफ़ कर दी हम उसी में शर्मा गये। लेकिन हमें पता है कि यह तारीफ़ कम हथियार ज्यादा है। हमारे एक मित्र के पिताजी कहा करते हैं ” तारीफ दुनिया का सबसे बङा ब्रम्हास्त्र है. इसकी मार से आज तक कोई बचा नहीं.इसका वार कभी बेकार नहीं जाता सिर्फ आपको इसके प्रयोग की सही विधि पता होना चाहिये.”

    आपकी तारीफ़ के ब्रम्हास्त्र से हम वैसे ही घायल हो गये अब क्या खाकर शास्त्रार्थ करेंगे?

    मित्रों ने भी मेरे बारे में बड़ी-बड़ी, अच्छी-अच्छी बातें कह दीं जिसे हम अमेरिकन एकोनामी की मंदी की तरह फ़ूलते से गये।

    वैसे भी हमने शायद पिछले वर्ष तय किया था कि बड़े-बुजुर्गों से मौज कम से कम लिया करेंगे इस नाते भी शास्त्रार्थ का विधि-विधान बनता दिखता नहीं क्योंकि शास्त्रार्थ में प्रतिद्वंदी के ज्ञान को उसका अज्ञान बताकर खिल्ली उड़ाने की परम्परा है। सो हम तो करने से रहे। आखिर आप हमारे बड़े-बुजुर्ग हैं।

    इसके अलावा शास्त्रार्थ उन बातों पर होता हैं जिनमें दो लोगों की मान्यताओं में मतभेद हो। यहां मतभेद का कोई बिन्दु है ही नहीं। पोस्ट का शीर्षक आकर्षक होने पर पाठक पढ़ने के लिये आकर्षित होते हैं यह तो सच हईऐ! इसमें क्या मतभेद?

    वैसे आप अपनी बात सही साबित करने के लिये किसी दूसरे के कहे को अपने हिसाब से पेश बड़ी खूबसूरती से पेश करते रहते हैं। हमने कई बार स्पष्ट कहा/लिखा है कि शास्त्रीजी की पोस्टों के शीर्षक सनसनीखेज (कभी-कभी भड़काऊ भी) रहते हैं। सनसनीखेज और आकर्षक में बहुत अंतर होता है। जिसे आप आकर्षक कहते हैं उसे हम सनसनीखेज मानते हैं! अगर आप कहें तो आपके ब्लाग से छानबीन करके उसके विवरण पेश करें।

    दूसरी बात आप भारतीय संस्कृति की बड़ी अच्छी वकालत करते हैं। इस मामले में हिंदी चिट्ठाजगत आप जैसे सतर्क ब्लागर को पाकर धन्य है।

    लेकिन जित्ता मैंने महसूस किया उत्ते से लगता है कि आपके लेखन का मूल स्वर स्त्रीविरोधी है। एक नहीं अनेको उदाहरण आपके ब्लागवाटिका में पुष्प की तरह बिखरे हैं। अगर कभी कहें तो बिन-बटोरकर आपके सामने पेश करूं।

    आपको मेरी राय से इत्तफ़ाक न करने का पूरा अधिकार है। लेकिन आपने जो एक टिप्पणी की थी “….स्त्री ब्लागों पर जाकर मूत्र शंका करने लगते है” वह किसी भी परिप्रेक्ष्य में, किसी भी संदर्भ में उचित नहीं है। अगर इसे अन्यथा न लिया जाये तो वह मैं कहना चाहूंगा वह टिप्पणी बेहूदी था जिसका आपको अफ़सोस भी नहीं हुआ बाद में भी। आप उस पर पुनर्विचार करें तो शायद आपका खेद व्यक्त करने का मन करे।

    गम्भीर बातें बहुत हो गयीं इसलिये आपको एक ठो कथा सुनाये देते हैं अभी आज ही एक कनपुरिये साथी से सुनायी। श्रम को भुलाने को सुने!
    एक व्याह योग्य कन्या के बारे में दरयाफ़्त करते हुये उसकी संभावित ससुराल वालों से पूछा-लड़की गोरी है कि काली? तो जिससे पूछा गया था उसने जबाब दिया। अब यह तो देखने वाले पर निर्भर करता है कि उसको लड़की कैसी लगती है!
    दरयाफ़्त करने वाले ने फ़िर सवाल किया अरे भाई तुम तो बताओ तुम्हारी निगाह में लड़की गोरी है या काली?
    उसने जबाब दिया- अगर लड़की को काले लोगों में बैठा दिया जाये तो गोरी लगती है और अगर गोरे लोगों में बैठा दिया जाय तो काली लगती है।”

    तो शास्त्रीजी आकर्षक और सनसनीखेज वाला मामला भी ऐसाइच है। संभव है कि जो मुझे सनसनीखेज लगता है वो आपको आकर्षक लगता हो। लेकिन हम अपनी बात कह रहे हैं। आप अपनी समझियेगा।

    बाकी जैसा कहा कि आपको कष्ट पहुंचाना मेरा उद्देश्य बिल्कुल नहीं है लेकिन कभी-कभी कुछ सच भी बोलने का मन करता है। जो मुझे सच लगा वह मैंने लिख दिया। अल्लेव अब यहां फ़िर एक ठो बात याद आ गयी। हमारी दीदी कहती हैं वह व्यक्ति बड़ा अभागा होता है जिसे कोई टोंकने वाला नहीं होता। तो हमने इसीलिये आपको सनसनीखेज ,स्त्रीविरोधी बातों के लिये टोकने का दुस्साहस किया! आखिर आप हमारे प्यारे, सम्माननीय बुजुर्ग हैं!

    इति श्री शास्त्रार्थ कथा समस्त अध्याय समाप्त:! 🙂

  10. शास्त्री जी नमस्कार बहुत दिन बाद आयी हूँ आप के ब्लोग पर काफ़ी हलचल है , ये तो अच्छा है कि विचारों का आदान प्रदान हो रहा है। हम भी इस बात से सहमत हैं कि अनूप जी असाधारण रुप से मेहनती, मेधावी और संस्कारी सज्जन हैं। ये भी जग जाहिर है कि वो अपनी बात कहने से कभी नहीं डरे और कभी अपशब्द कह कर किसी का दिल नहीं दुखाते। कम से कम हमें तो ऐसा कुछ याद नहीं पढ़ता। जब आप दोनों ही इतने गुणी विद्वान हैं तो शास्त्रार्थ कैसा? किसी दिन आप की भी चिठ्ठाचर्चा देखने को मिले ऐसी इच्छा है, आशा है अनूप जी आप को चिठ्ठाचर्चा के लिए निमंत्रित कर चुके होगें और आप ने स्वीकार भी किया हो्गा।

  11. डर तो यह है की कहीं सारे लोग यही तरीका न आजमाने लग जाएं.
    आप भी कभी कभी ऐसी धाँसू सलाह दे देते हैं की बस………………
    वैसे यहाँ आना एक पंथ दो काज साबित हुआ.
    दो धुरंधरों को एक साथ पढ़ डाला.
    शुक्ल जी जब टिप्पणी इतनी लम्बी लिखते तो पोस्ट का साइज़ …………………जायज़ है. 🙂

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