मेरे पिछले आलेख फुरसतिया, शास्त्रार्थ, भडकीले शीर्षक! पर Zakir Ali ‘Rajneesh’ ने एक बहुत सही टिप्प्णी की थी कि “अपनी पाठक संख्या बढाने के लिए दूसरों के बारे में टिप्पणी करते रहना भी एक अच्छा तरीका है।”. यह एकदम सही बात है, खास कर यदि उन लोगों का नाम ले लिया जाये जिन को सब लोग जानते हैं.
तो आज जाकिर अली के सुझाव की आड में कुछ दिलचस्प जानकारी दे दूँ. मुझे इस बात का यकीन है कि ताऊ जी, भाटिया जी, ज्ञान जी, सुब्रमनियन जी ने अपने बचपन में इस सिक्के को देखा है. मुझे सिर्फ इन लोगों की उमर का अनुमान है. शायद दिनेश जी, और डा. अरविंद ने भी देखा हो. (आप दोनों जने टिपिया दें तो मुझे आपकी जानकारी भी मिल जायगी, टिप्पणीलाभ भी हो जायगा.
यह है अंग्रेजों के जमाने का “दो आना” जो देश की आजादी के बाद भी कई साल तक चलता रहा. भारत गणराज्य के सिक्कों के प्रचलित होने के बाद एक एक करके ही अंग्रेजों के जमाने के सिक्के हटाये गये थे. इस कारण चिट्ठाकारों में ताऊ जी, भाटिया जी, ज्ञान जी, सुब्रमनियन जी और मैं ने इस सिक्के का प्रयोग किया है.
दो आना बारह पैसे के बराबर होता था. आज जब पचास पैसे के सिक्के मुश्किल से दिख रहे हैं तो लोगों को लगेगा कि बारह पैसे का क्या होता होगा. इस पैसे की महत्ता जरा देख लीजिये
- यह इतनी बडी राशि थी कि लाट साहबों के बच्चों के अलावा किसी को यह सिक्का जेबखर्च के लिये नहीं मिलता था.
- इस पैसे के आखिरी दिनों में इस से चार किलो टमाटर खरीदा जा सकता था. उसके पहले की क्रयशक्ति का अनुमान अब आप लगा लीजिये.
- घर से 8 किलोमीटर दूर स्थित विद्यालय में बस से आनेजाने के बाद इस सिक्के से दो पैसे बच जाते थे.
- इस से आप एक किलो गुड खरीद सकते थे, या आधा किलो शक्कर खरीद सकते थे.
- पहली बार जब विलायत से पधारे एक “अंकल” ने ऐसा एक सिक्का मुझे दिया तो उस दिन कक्षा के सारे मित्रों की जम कर खिलाई हुई! (पापा को जब पता चला कि पैसे का ऐसा दुरुपयोग हुआ है तो उन्होंने जम कर मेरे आसन को बेल्ट खिलाया).
- जब मेले जाते थे तो इस तरह का एक सिक्का भाईबहन दोनों को मिलाकर मेले के “आस्वादन” के लिये दिया जाता था.
आज यह सिक्का कहीं भी नहीं चलता है, लेकिन यदि आप सिक्का-संग्रह करते हैं तो ऊपर दिखाये गए अच्छी हालात का 2 आने (12 पैसे) का सिक्का खरीदना हो तो 25 से 50 रुपये का पडता है. कौन कहता है कि पैसे की कीमत कम हो गई है!!
दो आने की बात करने को करोड़ों के नाम शीर्षक में?? 🙂
क्या यही बताने ले लिए शास्त्री जी आपने मेरा भीनाम आखिर जोड़ लिया या और कोई निहितार्थ है ?
जी, देखा भी है और खर्च भी किया है। यूँ हम को जेब खर्च के लिए इकन्नी मिला करती थी। दुअन्नी कभी-कभी मुश्किल से मिलती थी।
जी आप सही कह रहे हैं. इस सिक्के को हमने देखा जरुर है पर किस्मत से इसको हाथ नही लगाया. हमारे बचपन तक हमारे घर की वित व्यवस्था हमारी दादीजी के हाथ मे रहती थी. सो रोने गाने पर १ डबली पैसा या छेद वाला मिल जाता था और उसी मे पूरी खाने पीने की ऐयाशी पूरी हो जाती थी यानि गुड और मुंगफ़ली आराम से खरीद हो जाती थी जो कि उस समय के ग्रामीण भारत की पसंदीदा मिठाई थी. जब कोई मेहमान घर आता था तब वो भी यही मिठ्ठाई साथ लेकर आता था. और इसी मिठाई को सब आसपास के घरों मे बंटवाया भी जाता था.
एक हनुमान जी का मेला गांव से ६/७ किलोमीटर दूर लगता था तब चार पैसे या एक इक्कन्नी मिलती थी उसमे पूरा मेला निपट जाता था. ये समझो कि दही बडा भी खा लिया जाता था.
पर ये दुअन्नी हमको कभी नही मिली अलबता जब ये बंद हो गई तब मिली और बंद होने के बाद भी एक बर्फ़ ( पानी वाली ) इसके बदले मे लेकर खाया करते थे.
अभी संग्रह की दृष्टि से भाव ठीक ही है.
रामराम.
एक बात और ये एक पैसा दबली बिना छेद का और एक पैसा छेद वाला इस तरह दो तरह के एक पैसे के सिक्के हुआ करते थे.
इस तरह के चार पैसों का बना एक आना. और १६ आना का बना रुपया.
यहां पाठक ये सवाल उठायेंगे कि एक पैसा को कितनी जगह काम मे लिया जा सकता था? क्युंकि एक पसे मे इतना सामान एक जगह तो लिया जा सकता था. पर अलग २ जगह नही.
तो अब सुनिये..उपर की तरह के पैसे को पक्का पैसा कहते थे. और एक कच्चा पैसा आता था. जो आकार मे डबली पैसे का गोलाई मे आधा होता था. इसे कहीं कहीं पाला पैसा भी कहा जाता था.
एक आने मे पाला पैसा या कच्चा पैसा हुआ करता था ६ यानि एक रुपये मे ९६ पैसे. और इस कच्चे पैसे की क्रय शक्ती भी उस समय गजब की थी. मुझे याद है कि एक कच्चे पैसे मे भी दुकान पर सामान मिल जाया करता था.
रामराम.
दबली = डबली
पसे = पैसे
ये दोनो ही सिक्के तांबे के हुआ करते थे. कालांतर मे तांबा महंगा होने पर इनको शायद गला दिया गया होगा.
रामराम.
रामराम.
दो आना के सिक्के के बारे में रोचक लेख….दीखता तो भारत के पॉँच पैसे जैसा है…..हमने तो न देखा था …सार्थक लगा इस के बारे में जानना…
Regards
रोचक जानकारी।
नाम देखकर हम भी चले आये.
यहाँ तो बहुत ही अच्छी जानकारी मिली..
वैसे इन बडे नामों को पोस्ट प्रायोजक बनाए जाने पर आप से अभी तक किसी ने हर्जाना नहीं माँगा?
बल्कि ताऊ जी ने जो टिप्पणी में जानकारी दी है.वह भी अनमोल है.छेद वाला सिक्का??कभी देखा सुना नहीं!
.उन से अनुरोध है कि ऐसी नायाब जानकारियां अपनी पोस्ट में भी कभी लिखें.
ब्रिटिश राज /पुराने समय की बातें बड़ी रोचक होती हैं सुनने में.
पैसे की भी कीमत है..और हमेशा रहेगी.
आभार सहित.
आपने सही लिखा कि १२ आने से क्या – क्या मिल सकता था । पैसे की महत्ता दिनों दिन कम हो गयी ।
पाठक खींचने का यह एक और तरीका। नाम किसका, बात किसकी और बात कौन सी। वाकई लोगों को अभी आपसे बहुत कुछ सीखना चाहिए।
जाकिर अली रजनीश
जोहार
दो आने – चार आने केवल सुने थे , आज उसकी छवि अवलोकन का पुण्य अवसर प्राप्त हुआ .
बहुत रोचक जानकारी मिली है यह तो .शुक्रिया
शायद यह सिक्का मेरे संग्रह का हिस्सा है. देखना पड़ेगा. प्रयोग में कभी लेने का मौका नहीं मिला. वैसे पच्चीस पैसे (चार आन्ने) में सब्जियाँ जरूर खरीदी है इतनी अब पच्चीस रूपैये में आती होगी.
@ ताऊ..
ताऊ मैंने भी इन सिक्कों से ऎश की है,
मूझे याद है, चीन से लड़ाई के कुछ पहले गेहूँ ” ढाई पसेरी रुपिया ” यानि एक रूपये का साढ़े बारह सेर हो जाने पर लोग सनाका खा गये थे.. ‘इतनी मँहगाई.. अब क्या होगा ?’:)
एक रूपये की एक जोड़ा ( दो पीस ) सुपरफाइन कलकतिया धोती मिलती थी.. तब भाव जोड़े में ही बताये और जाने जाते थे.. अभी कल ही तो बात है !
शास्त्री जी ने लोगों की उम्र अंदाज़ने का यह अनोखा शस्त्र तैयार किया है..
साथियों को दुअन्नी दिखा कर उम्र कबूलवाने की… मैंनें तो गूगल सर्च से देख कर इतना टीप दिया है.. अब आगे आप संभालो ! 🙂
ह्म्म्म…और कुछ हो न हो.. एक बात ज़रूर है….टिप्पणियों में, ऐसे सिक्के खर्चने का आनंद लेने वालों की सही उम्र ज़रूर पता चल रही है…–:). छेद वाला और ताम्बे का गोल एक पैसे का सिक्का मैंने भी देखा है. –:) दो आने दिखाने के लिए मेरी ओर से भी धन्यवाद.
शास्त्री जी, मेरी उमर कैसे पता लगाईयेगा? मैंने दुअन्नी भी देखी है और छेद वाला पैसा भी देखा है.. मेरे पास फिलहाल 1 पैसा, 2 पैसा और 3 पैसा भी है(मैं सिक्कों को जमा करने का शौकीन नहीं हूं मगर जबसे यह पैसे किसी दोस्त से मिले हैं तब से संभाल कर रख रखा हूं).. बच्चो के कमर में बांधे जाने वाला धागा, जो बुरी नजर से बचाने के लिये होता है, में मेरी मां ने छेद वाला पैसा भी बांध रखा था.. जो समय के साथ बहुत घिस गया था.. और उसे आज भी संभाल कर रखा हूं.. अब तो सोचता हूं की पांच पैसे को भी संभाल कर रख लूं.. पता नहीं कल देखने को मिले या ना मिले..
वैसे आप लगता है फिर से शीर्षक के प्रयोग पर जुट गये हैं.. शीर्षक कुछ और रहता है और माल कुछ और ही मिलता है पढ़ने को.. मेरे मुताबिक तो यह पाठकों के साथ धोखा ही है.. कहीं ऐसा ना हो कि इससे कोर रीडर ग्रुप के कुछ पाठक ही आना छोड़ दें.. 🙂
आप हमें मजबूर कर रहे हो. उस व्यवस्था की एक पोस्ट बनानी ही पड़ेगी. यहाँ आपको हम बताना चाहते है कि उस दुअन्नी से हमने तेंदुए को कुछ समय के लिए खरीद ही लिया था, लेकिन फिर भागना पड़ा.
शास्त्री जी, आप सभी बुजुर्गों के माध्यम से बहुत ही रोचक जानकारी प्राप्त हुई.(क्षमा कीजिए,अगर किसी को बुजुर्ग शब्द से आपत्ति हो तो मैं अपने शब्द वापिस ले लेता हूं).किन्तु मेरे मन में एक शंका है जिसका मैं निवारण चाहूंगा. जब 2 आने की कीमत 12 पैसे है तो 25 पैसे अर्थात चवन्नी को 4 आने क्यूं कहा जाता था. तब तो 4 आने 24 पैसे के होने चाहिए थे. ये 1 पैसा ज्यादा क्यंऊ?
बात दुअन्नी की सही। हम तो टिप्पणी वाले मकसद से टिपिया रहे हैं।
@ वत्सजी,
आने में छ: पेसे का समीकरण कुछ भ्रम पेदा करता है। दरअसल पैसे में चार पैसे होते थे और इस तरह 64 पैसे का रुपया। पर ‘नए पैसे’ आने के बाद रुपए में 100 नए पेसे का प्रावधान किया गया इस तरह आने को इसी अनुपात में रूप से 6.25 पैसे ( सहूलियत के लिए एक आने में छ पैसे लेकिन चार आने में पच्चीस पैसे मिले)
हाँ जी हमने भी देखी है दुअन्नी और हमारे पास सँग्रहित है –
मल्ल्लिक पुखराज ने अपनी जीवन कथा मेँ लिखा है २ लडकियोँ के बारे मेँ जिनके नाम दुअन्नी और चवन्नी थे 🙂
@ मसिजीवी जी,आपका आभार कि आपने बहुत ही सरल तरीके से बात को समझाकर मन की जिज्ञासा का शमन किया………
ये आने और गंडे के साथ सेर और मन हुआ करते थे। तब न किलोग्राम था न किलोमीटर। और फिर, रुपये के सौ पैसे भी तो नहीं थे। यह तो सेंटिमल सिस्टम के साथ १०० पैसे और १००० ग्राम का चलन शुरू हुआ। यह भी एक रोचक तथ्य है कि नेहरूजी भी इस मोह को नहीं रोक पाए और जार्ज की नकल करके खुद के मुखौटे का सिक्का भी बना लिया। एक रोचक लेख और पुरानी यादों को ताज़ा कराने के लिए आभार।
are waah…pahli baar dekha do aana. achcha laga!
अरे वाह, शास्त्री जी बचपन याद दिला दिया, जी मेने भी देखे है यह सभी सिक्के, एक चांदी का एक रुपया भी मिलता था, ओर रुपया १०० पेसे का नही ९६ पेसे का होता था, मुझे जेब खर्च कभी कभी मिलता था, वो भी दो या तीन पेसे,शायाद उसे धेला कहते थे, लेकिन उस धेले से भी बहुत सा समान आ जाता था, फ़िर एक सिक्का मिलता था छेद वाला शायद ढाई पेसे का होता था, बहुत सी यादे जुडी है इन सिक्को के संग, एक पेसे का सिक्का भी होता था, जिसे हम अपने पांव के नीचे रगड कर चमकाते थे….. शास्त्री जी आप तो फ़िर से बचपन मे ले गये हमे चुसने वाले आम चार आने के सेर मिलते थे…
धन्यवाद
मैंने ये सिक्के देखे तो हैं पर जो अंतिम सिक्का मैंने यूज किया है वो था ५ पैसे का. उसका एक लेमनचूस आया करता था.
ताऊ जी ५ पैसा तो २ आना से भी कम हुआ न? क्योंकि ४ आना = २५ पैसे. तो २ आना = १२.५ पैसे.
अब देख रहे हैं न, शीर्षक में नाम डालने का क्या पंगा होता है!!!!!!!!!!!
मैंने आपके पोस्ट पर ताऊ जी को संबोधित कर दिया. 🙂