मेरे कल के आलेख ताऊ जी, भाटिया जी, ज्ञान जी, सुब्रमनियन जी और …. में मैं ने 2 आने का एक सिक्का दिखाया था जो हमारे बचपन में एक बहुत बडी राशि होती थी. इस पर समीर जी ने टिपियाया कि “दो आने की बात करने को करोड़ों के नाम शीर्षक में??”.
समीर जी की टिप्पणी पढ मुझ एकदम अपनी गलती का बोध हुआ कि करोडों के चक्कर में अरबों का एक नाम तो रह गया – समीर जी का!! अब टिप्पणी में उन्होंने कहा या नहीं, लेकिन आज के चित्र में जो 2 नये पैसे दिख रहे हैं इस प्रकार के सिक्के सहित 2 आने का उपयोग उन्होंने भी किया था!!
इस बीच डा. अमर कुमार ने एक गजब की टिप्पणी दी: “शास्त्री जी ने लोगों की उम्र अंदाज़ने का यह अनोखा शस्त्र तैयार किया है..साथियों को दुअन्नी दिखा कर उम्र कबूलवाने की…” . प्रिय डाक्टर, मुझे एकदम लगा कि काश जिंदगी में हर चीज इतनी आसान होती तो मजा आ जाता!!
ऊपर के दो सिक्के जब ढाले गये थे तब मैं “देशी” किंटरगार्डन में पढ रहा था. केरल में इस तरह के गुरुकुल तब आम थे. यहां टाटपट्टी पर बैठ कर सामने बिछी महीन बजरी पर ऊंगलियों से लिख कर अक्षराभ्यास करते थे. अक्षर ताड पत्रों पर लिखे जाते थे और हम उन “पाठ्यपुस्तकों” को लेकर गुरुकुल जाते थे. इन गुरुकुलों को व्यक्तिगत स्तर पर चलाया जाता था और इनको किसी तरह की सरकारी मान्यता या अनुदान नहीं दिया जाता था. पांच साल की उमर पूरी होने पर ही मान्यता प्राप्त विद्यालय की पहली कक्षा में प्रवेश मिलता था.
रुपये के सौवें भाग (एक पैसे) की कीमत इतनी होती थी कि बस में हमारा कंडक्टर रोज एक पैसा “मार” लेता था. पांच पैसे का टिकट होता था, और छ: पैसे की इकन्नी देने पर वह एक पैसा देना अकसर “भूल” जाता था. यह इतनी बडी राशि थी कि एक बार मेरे एक मित्र के पिताजी ने कंडक्टर के हाथपैर तोडने की धमकी दे डाली थी. फल यह हुआ कि हम सब को बचा एक पैसा बिना पूछे ही वापस मिलने लगा.
आज स्थिति यह है कि दोसौ पैसे (दो रुपया) भिखारी को देते हैं तो वह पूछता है कि इसका “क्या” होगा. पिछले महीने तो मैं ने एकदम पैसा वापस लेने के लिये हाथ बढा दिया, तब उसे समझ में आया कि बंधा बंधाया “दाता” नाराज हो गया है. कल शायद स्थिति ऐसी आयगी कि दस का नोट बढा दें तो भिखारी कहेगा कि “यह अपने @#%@&* को ले जा कर दे देना. हमें क्या भिखारी समझ रखा है कि दस का नोट बढा रहे हो”.
लेकिन कौन कहता है कि पैसे की कीमत नहीं है. आज सिक्का संग्रह करने वाले ऊपर दिखाये गये सिक्के को पांच से दस रुपया प्रति सिक्का खरीदते हैं.
aaj to do do paiso mae insaan bik raha hae .
इन सिक्को की वर्तमान कीमत सुन कर आश्चर्य हुआ. इन सिक्कों को भीखारीयों ने भी लेने से मना कर दिया था और अब ये कीमत?
सही कहा है एक दिन सभी के दिन फ़िरते हैं. लगता है इन सिक्कों के भी फ़िर गये.:)
रामराम.
आप ने पाई का उल्लेख नहीं किया। वह आने की बारह हुआ करती थी। एक पैसे में तीन यानी आप के दो पैसे के बराबर।
दो पैसे की भले ही कोई क़ीमत न हो, मगर, लोगों की दो कौड़ी की राय प्रायः बहुत काम की होती है…
क्या बात है! -आज मेरी वर्षों की एक शोध पूरी हो गयी की भ्रष्टाचार का आगाज भारत में कब और कहाँ और किसके करकमलों से हुआ था ! (होली है )
सही कहा.. हम इन ्सिक्कों को ५-१० रु में खरिदते है.. हाँ अच्छी हालत वाले सिक्के मिलते भी मुश्किल से है..
इतनी भयंकर कीमत बक्शने का शुक्रिया. 🙂
सही कहा-इस्तेमाल हमने भी किया है-कभी किस्से भी सुनायेंगे. अभी तो आप यादों में डुबाये दे रहे हैं, आभार.
ये सिक्के तो हमने भी देखे हैं शायद एक आध कोई हो भी हमारे पास….सच कहा पुरातन धरोहर हैं ये सिक्के इनकी कीमत कोई भिखारी क्या जाने…”
Regards
बहुत बढ़िया रोचक जानकारी दी इन सिक्को के बारे में आपने ..शुक्रिया
आप के प्रारंभिक स्कूली जीवन की एक झलक मिली..रोचक थी.
-आज इस सिक्के की इतनी कीमत है..जानकार अचम्भा हुआ.
-सुब्रमनियम जी की हिंदी और हिंदी प्रेम की हम तारीफ तो हमेशा करते हैं..आप के बारे में jaankar सुखद आश्चर्य यूँ हुआ –[कृपया यह विवाद का मुद्दा न बनायें.]–कि आप केरल से होते हुए हिंदी का प्रचार सब से अधिक करते हैं और इतनी अच्छी हिंदी लिखते हैं!आप को नमन!
कृपया छेद वाले सिक्कों के बारे में भी बताईगा..प्रतीक्षा रहेगी.
ये पैसे भले ही हमने चलाए न हों, लेकिन इनसे खेले जरूर हैं.. दादाजी को धरोहर को आज तक संभाल कर रखा है..
शास्त्रीजी, आज भी इस दो पैसे की बहुत कीमत है। किसी की औकात गिनना है तो कह दो- दो पैसे का आदमी नहीं है:)
हमको भी याद है आना-दोआना,चव्वनी अट्ठनी।
मैंने अपने जीवन में मिनिमम कमौडिटी वैल्यू का सिक्का वो सींग वाले गैंडे वाला चार आने का ही चलाया था. वैसे पुरानी यादें टटोलने के लिए आभार. वैसे देसी सिक्को के संग्रह का मुझे भी शौक रहा था बचपन में. विशेष अवसरों और विशेष व्यक्तियों की याद में पिछले ५० वर्षो में जारी किये गए सैकडों सिक्के हैं मेरे पास.
@Ashish Khandelwal
कृपया उनको धरोहर के रूप में सहेज कर रखें!! आपके नातीपोते आपका
आभार मानेंगे!!
@ताऊ रामपुरिया
एक दिन सभी के दिन फ़िरते हैं. सच है इन सिक्कों के भी फ़िर गये. हम इनको तलाशते फिरते है!
शास्त्री जी, सिक्कों के बारे में तो आप बहुत ही बढिया जानकारी प्रदान कर रहे हैं,किन्तु एक बात जो कि मेरे समझ नहीं आइ, वो ये कि यहां ऊपर आपने @#%@&* ये कोन सी भाषा का प्रयोग किया है.कृ्प्या बताने की चेष्टा करें…….धन्यवाद…
@दिनेशराय द्विवेदी । “आप ने पाई का उल्लेख नहीं किया। वह आने की बारह हुआ करती थी। एक पैसे में तीन यानी आप के दो पैसे के बराबर।”
मैं ने पाई नहीं देखी है. हिन्दुस्तान के सारे सिक्के सब जगह नहीं चलते थे. कुछ सिक्के स्थानीय थे!
@दिनेशराय द्विवेदी । “मेरे विचार में ग्वालियर में तो यह प्रचलित थी।
”
दिनेश जी, मुझे लगता है कि जब तक मांबाप हम बच्चों के
हाथ पांच पैसे रखने की हालात में पहुंचे (1960 के बाद) तब
@दिनेशराय द्विवेदी । आप का कहना सही है. 1960 तक ही पाई प्रचलन में थी। लेकिन मेरे घर पर कुछ पाइयाँ मैं ने देखी हैं। 1960 तक इसका प्रचलन ग्वालियर इलाके में खतम हो गया था.
अच्छी जानकारी।
@पं. डी.के.शर्मा “वत्स”
पंडित जी, जब गालीगलौच को प्रदर्शित करना होता है तो
सभ्य समाज की समझ के लिये इन प्रतीकों का प्रयोग होता है!!
सस्नेह — शास्त्री
@ अल्पना जी, शाश्त्री जी हम सबसे अच्छी हिंदी इस लिये लिखते हैं कि ये उस जगह पले बढे हैं और आज भी जीवंत ताल्लिक रखते हैं जहाम से हमारे पुर्व प्रधान मंत्री मान. अटल बिहारी वाजपेई जी हैं. और वहीं से तानसेन के गुरु स्वामी हरीदास जी का ताल्लुक है.
साल मे एक बार स्वामी हरीदास समारोह होता है जिसमे नामचीन शाश्त्रिय संगीत के गायक प्रस्तुति देने को अपना सौभाग्य मानते हैं.
हम तो जिस साल मौज आती है दो तीन दिन के लिये उस समारोह मे पहुंच जाते हैं और जिन गायको को सुनना और देखना सपना लगता है उनके सामने बैठकर सुन पाते हैं. उस का अनुभव तो कोई प्रत्यक्ष दर्शी ही जानता है.
तो शाश्त्री जी का संबंध उस महान जगह ग्वालियर से है. जो कि हमारे शौभाग्य वश हमारे ही प्रदेश मे है.
क्यों शाश्त्री जी मैम सही कह रहा हूं. कोई जानकारी मेरी गलत लगे तो सुधार दिजियेगा.
रामराम.
वर्तनी भूल सुधार :-
ताल्लिक = ताल्लुक
जहाम = जहां
मैम = मैं
@ताऊ रामपुरिया
ताऊ जी ने एकदम सही बात बताई है.
जिन महान लोगों का नाम ताऊजी ने लिया है उनके साथ साथ ग्वालियर हिन्दी प्रेमियों एवं खडी हिन्दी बोली का केंद्र रहा है.
केरल में मेरा जन्म सिर्फ संयोग की बात है. मेरी मातृभाषा हिन्दी है और केरल की भाषा मैं ने 40 साल की उमर पार करने के बाद (यहां जीने के लिये) सीखी है.
सिर्फ हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है, अत: मैं ने अपना जीवन हिन्दी के चरणसेवक के रूप में अर्पित कर दिया है.
सस्नेह — शास्त्री
आ, शास्त्रीजी
कुछ समय से आपके लेखो से दुर रहा इसका मुझे मलाल है। कारण मुम्बई से बहार था।
आप मै वो कला है- राख को भी सोना बना देते है फिर बिचारे यह तो सिक्के है………………!!!!!!
सिक्कों की फोटो तो यादों की गठरियां खोल दे रही हैं!
अच्छी हालत वाले सिक्के मैंने भी खरीदे हैं. यह भी एक मजा है.
द्विवेदी जी को पता होगा कि पाई के अलावा धेला भी होता था एक पैसे का दो
सच में बड़ा मजा आ रहा है अपने बुजुर्गों को उस समय के बारे में बाते करते देख-सुनकर जब हम पैदा भी नहीं हुए थे.
शास्त्री जी, आप ने तो पुरा बचपन ही याद दिला दिया,एक बडा पेसा भी होता था, यह ऊपर वाले चित्र मै जो सिक्का है इसे शायद दुक्की कहते थे, मुझे कभी कभार यह दुक्की जे खर्च को मिलती थी, जिस से मिठ्ठी इमली, ओर चाट, ओर एक आईस करीम बाकी कुछ बच भी जाता था,
कुछ सिक्के मेरे मां बाप ने बच्चो को दिये थे, जो हम ने बहुत सम्भाल कर रखे है, ओर यह धेला भी मेने शायद देखा है यह तीन पेसो का ही तो होता था, थोडा बडा सा तंबे का सिक्का.
धन्यवाद,
ताऊ जी आप ने शास्त्री जी के बारे मे जान कारी दी इस के लिये धन्यवाद.
शास्त्री जी ,आप के अथक प्रयासो के लिये शुभकामनाये
जाने कितने सालों बाद २ पैसे के दर्शन हुए हैं, अभी जब इंडिया गये थे तब नोट किया था कि अब वहाँ सबसे छोटी यूनिट पांच रूपये है। अधिकतर तो यही देखा कि सब जगह १० रूपया ही दौड़ता रहता है।