मेरे पिछले आलेख ताऊ जी, भाटिया जी, ज्ञान जी, सुब्रमनियन जी और …. और 2 पैसे की भी कोई कीमत है क्या? में बार बार छेद वाले एक पैसे की चर्चा हुई थी. आज अल्पना जी ने टिपियाया:
(alpana)कृपया छेद वाले सिक्कों के बारे में भी बताईगा..प्रतीक्षा रहेगी.
तो लगा कि इस लेखन परंपरा को समाप्त करने के बदले छेद वाले सिक्के की भी चर्चा कर दी जाये.
दर असल “पैसा” शब्द काफी पहले से उपयोग में आ रहा था, और कई प्रकार के सिक्कों के लिये इसका उपयोग किया गया. अंग्रेजों के राज्य में यह उनके द्वारा चलाया गया आखिरी एक पैसे का सिक्का था. 1943, 44, और 45 के सिक्के बगल में दिखाये गये हैं. लेकिन देश की आजादी के बाद भी यह सिक्का कुछ साल चला क्योंकि देश में आर्थिक संतुलन बनाये रखने के लिये सरकार नें अंग्रेजों के सिक्के एक दम से बंद नहीं किये.
हिन्दुस्तान 1947 में आजाद हुआ, लेकिन यह सिक्क लगभग 1958 के आसपास भी चलता था. मुझे याद है 4 से 5 साल की उमर में इसे देकर मैं एक देशी चाकलेट (मूंगफली की चिकी) खरीदता था. आज इसे आप चला नहीं सकते लेकिन यदि आप खरीदना चाहें तो कम से कम बीस रुपल्ली की चपत लगेगी!! अच्छा सिक्का हो तो 30 रुपये से कम का नहीं पडेगा.
अब एक दिलचस्प बात!! हिन्दी जगत में उमर से वरिष्ठ सभी चिट्ठाकारों ने अपने बचपन में इस सिक्के का उपयोग किया है, लेकिन हम सब के पैदाईश के पहले एक देशी रियासत ने पहला छेद वाला पैसा जारी किया था.
गुजरात के कच्छ इलाके के शासक काफी बुद्धिमान, सुलझे, एवं शक्तिशाली लोग थे. इन लोगों ने मुगलों तक को नाको तले चने चबवा दिये थे. इस कारण इनको शासन की पूरी आजादी दी गई थी. अंग्रेजों ने भी इनके साथ यही किया.
कच्छ के शासकों ने आधुनिक सिक्का-शास्त्र को सोचसमझ कर इस तरह से प्रभावित किया कि यह भारत के स्वाभिमान के लिये स्वर्णाक्षरों में लिखा जायगा. इन शासकों में से महाराव श्री विजयराज जी ने तांबे का छेद वाला एक सिक्का चलाया था जिसे ढबू नाम दिया गया था. बगल में शक संवत 1999 (ईस्वी 1942) में जारी किये गये ढबू का चित्र देख सकते हैं. त्रिशूल और कटार भी दिख रहा है. भारत की आजादी के समय तक कच्छ के शासक अपने चांदी और तांबे के सिक्के छाती ठोक कर चलाते रहे! बस विदेशी शासकों का नाम भर सिक्के के पीछे लिख देते थे.
कच्छ के तांबे के सिक्के अब दुर्लभ होते जा रहे हैं और ऊपर दिखाया सिक्का आजकल कम से कम 350 रुपये का पडता है, और सिक्का-बाजार में बहुत कम दिखता है.
सिक्कों के बारे में चलायी जा रही इस आलेख-श्रृंखला के लिये आपका धन्यवाद. काफी रोचक जानकारी उपलब्ध करायी आपने.
हमारे समय चलता तो नहीं था मगर देखा जरुर जाता था. 🙂
बड़े छेद वाला सिक्का तो हमने भी खूब काम में लिया है।
याद है इसे बच्चों की करधन में भी पहनाया जाता था ! बहुत अच्छी जानकारी !
बहुत ज्ञानवर्धन हो रहा है इस श्रंखला के द्वारा.
आज आपने अनायास ही इस बात को याद दिला दिया कि हमारे पास आपके कोचीन स्टेट का सम्पुर्ण डाक टिकट क्लेकशन है और वो भी व्यव्स्थित.
हमारा यह क्लेकशन बंगलोर की एक्जीबिशन मे सिल्वर मेडल ले चुका है और इसे हमने बहुत ही यत्न से छुपाकर खजाने की तरह रखा है.
कभी दिखायेंगे सभी को.
रामराम.
इस सिक्के की तो भूली-भूली सी याद मुझे भी है। इतनी रोचक जानकारी के लिये आभार।
bahut shaandaar jankaari.. ye sikke pahlee baar hi dekhne ko mile… aabhaar..
यह जानकारी बहुत ही रोचक लगी.
यह सिक्का पहली बार देखा है.
सिक्को वाली ये सभी पोस्ट सन्ग्रहनीय है.
धन्यवाद .
विजयराजजी वाला हमारे पास नहीं है. खोजना पड़ेगा. अच्छी जानकारी.
बडे सुराख वाले सिक्के तो हमारे पास भी बहुत सारे पडे हैं,किन्तु छोटे सुराख वाला सिक्का पहली बार ही देखना को मिला……बहुत ही अच्छी जानकारी प्रदासन कर रहे हैं आप.धन्यवाद…….
Old is Gold.. 😀
achi jaankaari di hai..chedwale sikke diwaar pe taangne ke kaam aayenge..hehehe..
aap bhi purane sikko ki tarah mehenge hote jaa rahe hai.. 🙂 😀 🙂 hehehheheh
रोचक लगी यह जानकारी
bahut achhi jankari.
द्वितीय विश्व युद्ध के समय से ही धातुओं की कीमत बढ़ गयी थी. पैसे में धातु की मात्र को कम करने के लिए छेद बना दिया गया. एक स्थिति ऐसी भी आई की इन पैसों का दुरुपयोग होने लगा. अच्छे वाशर एक पैसे से अधिक मूल्य के थे. तो फिर लोगों ने पैसे को ही वाशर के बदले प्रयोग करना प्रारंभ कर दिया था. बेंकों को हिदायत दी गयी की इन सिक्कों को पुनः प्रचलन के लिए जारी न करें.
छेदवाले दोनोँ तरह के सिक्के तथा जानकारियाँ अच्छी लगीँ शास्त्री जी खास तौर से उनके मूल्य के बारे मेँ जानकर बहुत विस्मय हुआ
-लावण्या
छेद वाला सिक्का अकसर मेरी सब से छोटी उंगली मे फ़ंस जाता था, या यु कह ले कि उस मै मेरी उंगली फ़ंस जाती थी, शास्त्री जी आप ने बहुत सी यादे याद दिया दी बचपन की, अब की बार मै जब भी भारत आया तो इन सिक्को को जरुर खरीद कर लाऊगाअ.
धन्यवाद