कुछ महीने पहले मैं किताबों की एक बडी दुकान में टहल रहा था कि मेरे एक परिचित सज्जन अचानक “हल्लो शास्त्रीजी” कहते हुए फुदक कर मेरे पास आये. लेकिन दुआसलाम के बाद उन्होंने एकदम रोना शुरू किया कि किताबें बेहद महंगी हैं.
किताबें दिखाने को कहा तो उन्होंने पांच भारतीय लेखकों की किताबे दिखाईं. सब मिलाकर बिल लगभग 800 रुपये का बन रहा था. उनका रोना था कि किताबों के भाव इस तरह आसमान छूते रहेंगे तो पढना बंद करना पड्गा. लेकिन उनके पास एक छटी पुस्तक थी जिसे वे बगल में दाबे थे. पूछा तो बोले कि उसे तो खरीदना ही है.
यह छटी पुस्तक विदेशी प्रकाशक की थी और कीमत थी 1200 रुपये. मैं ने पूछा कि आप 500 पन्ने की एक पुस्तक 1200 की खरीद रहे हैं तो फिर कुल 1200 पन्ने की पांच किताबों के लिये आपको 800 रुपये बहुत अधिक लग रहे हैं. फटाक से उनका जवाब आया, “लेकिन यह तो विदेशी किताब है”. मजे की बात यह है कि 1200 रुपये में वह विदेशी उपन्यास खरीद रहे थे, लेकिन 800 रुपये में 5 हिन्दुस्तानी वैज्ञानिक-सामाजिक पुस्तक खरीदने से कतरा रहे थे. कचरे के लिये 1200 रुपये देना मंजूर था (सामान्य अंग्रेजी उपन्यासों में दस में से आठ में सिर्फ व्यभिचार+कहानी होती है, सिर्फ दो ढंग के होते हैं) लेकिन ज्ञान के लिये 800 रुपये नहीं क्योकि वे पुस्तकें “हिन्दुस्तानी” थीं. जरा विरोधाभास देखें:
- विदेशी=श्रेष्ठ । देशी=चालू
- विदेशी शराब=परिष्कृत । देशी शराब=चालू
- विदेशी पुस्तक=पढने योग्य । देशी पुस्तक=जुगुप्सा के योग्य
अंग्रेज न केवल हमारी संपत्ति लूट ले गये, ऐसा लगता है कि वे अधिकतर लोगों का स्वाभिमान भी लूट ले गये हैं. “बी इंडियन, बाय इंडियन” कहने में बडा घमंड महसूस होता है लेकिन “हिन्दुस्तानी हो, हिन्दुस्तानी माल चुनो” कहने में बडी हेठी होती है. विदेशियों का बाल्टियान (वेलेंटाईन) मनाने को, अंग्रेजों के नये साल के स्वागत में पीनेपिलाने-नाचनेगाने को हम परिष्कृत बात कहते हैं, लेकिन ढंग से होली मनाने को हम जंगलियों की आदत मानते हैं. शादी के समय घोडी चढेंगे, लेकिन शरीर पर अंग्रेज का सूटटाई होना जरूरी है क्योंकि कुर्ता या शेरवानी तो जंगलियों का वस्त्र है!
आज मैं अपने पाठकों से पूछना चाहता हूँ – क्या आप ने भी अपना स्वाभिमान मेकाले के निकृष्ट चरणों में अर्पित कर दिया है? या आप असली हिन्दुस्तानी हैं??
Guide For Income | Physics For You | Article Bank | India Tourism | All About India | Sarathi
Phogograph by Ian Wilson
अव्वल इसीलिये मैं तो अंग्रेजी के उपन्यास बहुत कम पढ़ता ही हूं. कुछ इसलिये भी कि ज्यादा समझ नहीं पाता. शायद मेरी कम अंग्रेजी की समझ मुझे अपने आप को बचाये रखने देती है.
इस प्रेरणादायी आलेख के लिये धन्यवाद
हिन्दी से लगाव है किन्तु अंग्रेजी से कोई दुराव भी नहीं.
जहाँ मन माफिक पसंद की सामग्री दिखे..
बिना हिन्दी अंग्रेजी के भेदभाव के खरीद या मांग कर पढ़ लेते हैं.
खरीदने की बजाय उपहार में किताब मिल जाये तो उससे बड़ा सुख दुनियां में कोई नहीं! चाहे देसी चाहे विदेशी।
आप ने सही कहा। पुस्तकें लोगों को अपनी हैसियत के अनुसार महंगी लगती हैं। लेकिन उसी समय एक अंग्रेजी उपन्यास के लिए इतनी रकम खर्च करना वैसे ही है जैसे रोज देशी पी कर ठेके वाले को गाली देने वाला व्यक्ति महंगी शराब की बोतल खरीद कर इतराता हो।
यह विदेशी चीजों का भी एक नशा सा है लोगों को। पर हमें तो देशी चीजें विदेशी से बेहतर लगती हैं और पायी भी हैं।
जहां जो अच्छा लगे वरन योग्य है -यद्सार्भूतम तदोपासनीयम् !
मुथप्पन से पूछना पड़ेगा – देसी या सकोच
शास्त्री जी, अपने को तो खाना रूखा – सूखा ही मिल जाये या एकाध जून न भी मिले चल जायेगा बस किताबें मिल जाये. कुल मिलकर नशा सा है. काम की किताब चाहे हिंदी में हो या अंग्रेजी में, सस्ती हो या महंगी ले ही लेते है परन्तु कभी- कभी मन भी मसोसना पड़ता है. लेकिन अपन हार मानने वालों में से नहीं हैं. कई बार तो साल-साल भर पैसे जोड़ कर खरीदी हैं. शहर के कबाडी भी अपने को पहचानने लगे हैं. हाँ! हिंदी के ऊपर अंग्रेजी को तरजीह देना वो और भी कूड़े के लिए, सरासर बेवकूफी है. ऐसे लोग किताब को पढ़ते नहीं हैं केवल अलमारी में सजा कर रखते हैं, रौब ग़ालिब करने के लिए…….
सिर्फ विदेशी होने के नाम पर पैसे खर्च कर देना तो बहुत गलत है … पसंद लायक सामग्री हो तो ये बुरा भी नहीं … आज तो सब कुछ का अंतर्राष्ट्रीय बाजार है … पर अपनी भाषा और संस्कृति को बचाने के लिए कुछ अधिक खर्च करना भी उचित है।
अंग्रेजी तो अपने को सिर्फ़ कामचलाऊ ही आती है, हम तो हिन्दी में ही खुश हैं… हाँ ये बात जरूर है कि जब भी किसी हिन्दीभाषी व्यक्ति को गलत-सलत हिन्दी लिखते-बोलते और टूटी-फ़ूटी अंग्रेजी बोलकर गर्व करते देखता हूँ तो उस पर गुस्सा आता है…
अगर सही मायनों में देखा जाए तो विदेशी पुस्तकों के मुकाबले हिन्दी की पुस्तकें अब भी सस्ती हैं।
शास्त्री जी, हम लोगो ने इस अंग्रेजी कॊ इतना सर पर बिठा लिया है कि हमे उचित ओर अनुचित कुछ नही दिखता, बस विदेशी की हर बात अच्छी है, यही हमारे दिमाग मै बेठ गई है,एक उदाहरण हमारे यहां जपानी कारे जर्मन कारो से आधी कीमत पर मिलती है, ओर जपानी कारो मे सब वो सहुलिया होती है जो जर्मन कारो मे एकस्ट्रा लगबानी पडती है, ओर फ़िर भी दुगने पेसे दे कर लोग जर्मन कारे, ओर अन्य समान ही खरीदना पसंद करते है, अब भारत मे तो एक दम से कह देगे यह तो पागल पन है जब आधी कीमत मे मिल रही है तो दुगने पेसे दे कर क्या लाभ ?
अजी यह लोग बोलते है जब हम अपने देश की बनी चीज खरीदेगे तो हमारे लोगो को काम ज्यादा मिलेगा, खुश हाली ज्यादा होगी, इन लोगो का अपना पहरावा भी है, ओर जब भी कोई खास दिन होता है तो यह अपना स्थानिया पहराबा ही पहनते है, काश ऎसी बाते हमारे लोग भी सोचते.
९०% अग्रेजी उपन्यास बकवासो से भरए होते है, जिन मे प्यार की बाते तो बहुत होती है लेकिन कभी उस लेखक के बारे जान कर देखे उस का चरित्र केसा होता है, लेकिन अग्रेजी मै है तो ना भी पढॊ लेकिन दुसरो पर रोब तो बना सकते है कि हम आप से बडे गुलाम है, अजी हम तो खाते भी अग्रेजी मै, सोते भी अग्रेजी मै है, ओर पता नही क्या क्या करते ओर करवाते है अग्रेजी मे, सोने की चिडिया को हमंई लोगो के एक अग्रेजी नाम के गण्दे से पिंजरे मे केद कर दिया है, जिस दिन यह सोने की चिडिया फ़िर से आजाद होगी उसी दिन हमारा हिन्दोस्थान फ़िर से दुनिया का सरताज बने गा, वेशाखियो का सहारा ले कर कोई दोड नही जीत सकता.
धन्यवाद
आपको और आपके परिवार को होली की रंग-बिरंगी भीगी भीगी बधाई।
बुरा न मानो होली है। होली है जी होली है
सर जी, हमने तो किताब बेचने वाले से तय कर रखा है. उसको जितना कमीशन मिलता है उसका आधा कम करके दे देता है. हमने कभी किताबों का मोल भाव नही किया. और अब तो भगवान की मेहरवानी कि जबसे ब्लाग रोग लगा है तब से जो किताबे आई हैं वो भी पैक की पैक ही रखी हैं.:)
जय ब्लागेरिया की..जो किताबों के पैसे बचाये…
रामराम.
लिबरलाज़ेशन का युग जो है शास्त्रीजी, पाठकों का भी भूमण्डलीकरण हो गया है। घर की मुर्गी दाल बराबर की कहावत तो सार्थक है ही:)
सही कहा आपने. हमें सिर्फ एक ही किताब पढने की ज़रुरत है, “मानसिक गुलामी से मुक्त कैसे हों?”
शास्त्री जी ,तथा सभी हिन्दी ब्लोग जगत के साथियोँ को होली पर्व पर रँगभरी शुभकामनाएँ
भारतीय हर वस्तु पर गर्व तो है पर अगर विदेशी वस्तु गुण्वत्ता मेँ ज्यादा हो तब उसकी
सराहना करने से भी कोई दुराव नहीँ –
जैसे विदेशी शराब या फ्रान्स के इत्र वास्तव मेँ गुणवत्ता की द्रष्टि से ,
बेहतर होते हैँ –
हमेँ
उत्तरोत्तर गुणवता नियमन व प्रगति पर ध्यान केन्द्रित करना भी आवश्यक है – ये मेरा अपना मत है
स स्नेह,
– लावण्या
विदेशी शराब=परिष्कृत । देशी शराब=चालू
@क्या आप ने भी अपना स्वाभिमान मेकाले के निकृष्ट चरणों में अर्पित कर दिया है?
मेकाले ने तो कान्वेन्ट के माध्यम से भारतिय जन मानस मे जहर बहुत पहले ही घोल दिया था। राजराय मोहन ने जब मेकेले के कन्वेन्ट माध्यम का समर्थन किया था तभी से गुरुकुल खत्म से हो गये। आज १ लाख कि फिस देकर हमारे बच्चे कन्वेन्ट मिडीयम मे पढने जाते है न कि १००० रुपली वाली हिन्दी पाठशाल मे। आपकी चिन्ता ठीक है पर कहॉ तक ? इसकि जड मे जाना होगा। एक सजय गान्घी कि भारत को जरुरत है। तभी परिवर्तन का सपना साकार होगा। इसपर चर्चा जारी रखे।
दास मानसिकता से मुक्ति पाना तो आवश्यक है ही। परन्तु किताबें हों या और कुछ चयन गुणवत्ता पर निर्भर होना चाहिये न कि देशी-विदेशी के पैमाने पर। यदि गुलशन नन्दा और हेमिंग्वे में से चुनना हो तो कोई भी प्रबुद्ध व्यक्ति हेमिंग्वे को ही चुनेगा।
बहुत शर्मनाक स्थिति की ओर आपने इशारा किया। जाने यह गुलामी कब हमारा दामन छोड़ेगी…! उफ़्