मैं साल भर में कम से कम छ: से आठ बार युवा लोगों की सभा में “संपूर्ण जीवन” पर क्लास लेता हूँ. लगभग हर जगह घुमाफिरा कुछ प्रश्न बार बार आते हैं. इन में से एक प्रश्न है, “समाज को बूढे लोगों की क्या जरूरत है. क्या इनको वृद्ध-सदनों में भेज देना बेहतर नहीं रहेगा?”.
यह प्रश्न इस बात की ओर इशारा करता है कि पिछले 20 से 30 सालों में भारतीय समाज कितना बदल गया है. आज से 45 साल पहले जब 103 साल की उमर के मेरे परदादा ने खाट पकड ली थी (मैं उस समय 10 साल का था एवं उनक इष्ट-पुत्र था) तो सारे परिवार वाले मन्नतें मान रहे थे कि प्रभु चाहे वे खाट पर रहें लेकिन वे अभी कुछ साल और जीवित रहें.
कहीं किसी के मन में यह सोच न थी कि बूढा कम से कम अब तो चला जाये तो कम से कम एक कमरा खाली हो जायगा. अंत में वे जब हम सब को छोड कर चले गये तो उन का बेटा, पोता, हर कोई ऐसे रोया जैसे कि कोई जवान असमय गुजर गया हो. कारण यह है कि उस समय व्यक्ति को उसकी “आथिक उपयोगिता” से नहीं आंका जाता था. आदमी तब आदमी था. लेकिन 1960 आदि के अंत में हिन्दुस्तान में जो पश्चिमी व्यापारवाद की आंधी चली तो हम हर चीज को उसकी “उपयोगिता” से नापने लगे.
यह हवा सबसे पहले चली अंग्रेजी की तमाम तरह की भारतीय पत्रिकाओं द्वारा. कारण यह कि 1960 आते आते भारतीय अंग्रेजी के अधिकतर संपादक पश्चिम के अंध-भक्त बन चुके थे. इन को पढ पढ कर एक पीढी तय्यार हुई जो हर परंपरागत चीज को छोडने के बहाने ढूढ रही थी. 1970 के आते आते हिप्पी आंदोलन का असर ऐसा हुआ कि भारतीय हुवा हर भारतीय चीज को हेय मानने लगे.
पिछले 30 सालों में तो हिन्दुस्तान की पत्रिकाओं, संचार माध्यमों, हर चीज का ऐसा वाणिज्यीकरण हुआ है कि अब हर चीज को हम उसकी “उपयोगिता” से नापने लगे हैं. ऐसे समाज में इस तरह के प्रश्न स्वाभाविक है. लेकिन जरा मुड कर उन समाजों पर एक नजर डाल लें जहां वृद्धजनों को अनुपयोगी और बेकार समझा जाता है (अमरीका, केनडा, यूरोप, स्केन्डिनेवियन देश, आस्ट्रेलिया-नूजीलेंड). उसके बाद उन देशों को देख लें जहा अभी भी उमर के कारण किसी को बेकार नहीं समझा जाता. आप देखेंगे कि दूसरे प्रकार के समाजों में अभी भी सामाजिक शांति, पारिवारिक खुशी, स्थिरता, मानसिक स्थायित्व आदि अधिक दिखते हैं.
समाज एक इकाई है. इसके अवयवों के साथ खिलवाड करना वैसा ही है जैसे दीवारघडी के कुछ गियर निकाल दें. शायद घडी ट्रेक्टर के समान झटके ले लेकर कुछ और समय चल जाये, लेकिन वह घडी नहीं रह पायगी. परिवार के स्वास्थ्य एवं समग्रता के लिये जरूरी है कि हम हरेक को संभालें, प्यार करें, आदर दें, सहेजें. वह समाज अभिशप्त होता हैं जहां उसके किसी भी घटक को बेकार समझा जाता है.
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बात सही है किन्तु समाज बदल रहा है और इस बदलाव को थामना असंभव है। नए समय की नई जरुरतें हैं। न तो संयुक्त परिवार हैं, न स्थाई नौकरियाँ और न देखभाल करने को परिवार में सदस्य। जब सब काम पर निकल जाएँगे तो वृद्धों का ध्यान रखना बहुत कठिन है। फिर एक पीढ़ी जो पचास में ही स्वयं को वृद्ध मान बैठी थी उसकी सेवा वह पीढ़ी कैसे करेगी जो स्वयं अब साठ की हो रही है?
घुघूती बासूती
जी हाँ मन दुखता है इस सामाजिक बदलाव से..
बदलते सामाजिक स्थितियों का सही चित्रण। कहते हैं कि-
जो अपने बूढ़े बाप की लाठी न बन सका।
शर्मिंदा हूँ उन बच्चों का किरदार देखकर।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
वक्त के साथ संयुक्त परिवार एकल परिवारों में बदले हैं। उस के दुष्परिणाम आ रहे हैं। लेकिन समाज को इस समस्या के हल की ओर बढ़ना चाहिए।
अगर हम अपने सनातन जीवन मूल्यों का परित्याग करते जायेंगें तो यही सब होगा -आपका चिंतन बिलकुल मौजू है ! एक संस्कृत का श्लोक है कि वह समाज अपूर्ण है जहां वृद्ध सम्मानित नही हैं मगर वह वृद्ध भी सम्मानित नहीं है जो धर्म का आचरण न करता हो !
आपने हमें चिंता में डाल दिया.
समाज को बूढे लोगों की क्या जरूरत है. क्या इनको वृद्ध-सदनों में भेज देना बेहतर नहीं रहेगा?”.
” bhut talkif bhra prshn hai ye…..dil dhukhi sa ho gya..”
regards
बढ़ते भौतिकतावाद के कारण उत्पन्न समस्याओं में से एक यह भी है… खासकर बड़े शहरों में यह बीमारी तेजी से फ़ैल रही है। छोटे कस्बों में स्थिति थोड़ी अलग है कि यहाँ के युवा काम के लिये बड़े शहरों की ओर कूच कर गये हैं तो ये कस्बे और छोटे शहर अपने-आप में एक “विशाल खुला वृद्धाश्रम” बनते जा रहे हैं… आर्थिक पहलू ने जीवन के हर क्षेत्र में विसंगति पैदा की है…
आप बूढे लोगों की बात कर रहे हैं … हमारे घर की एक बूढी गाय की पूरी सेवा की जाती थी … सभी सदस्यों को उसके भूख प्यास की चिंता रहती थी … कोई भी मन्नत नहीं मनाता था कि वह मर जाए … और आज अपने दादा दादी तो दूर … अपने मां पिताजी के लिए भी संवेदना नहीं रह गयी है … समाज बहुत बदल गया है।
हम अपनी कमजोरियों को भौतिकतावाद पर क्यों थोप रहे हैं. यह जरूर है की भौतिकतावाद हर चीज को उसके उपयोग के हिसाब से आंकता है, पर मेरे जीवन में वृद्धों का उपयोग है और मैं उनकी इज्जत करता हूँ . जो लोग यह मानते हैं की वृद्ध उनके काम में नहीं आते, तो मैं यह दावा ठोक कर कहता हूँ की वे ऐसे लोग हैं जिनकी जीवन की सच्चाईयों पर पकड़ कम है.
कमी शिक्षा की है, सर्वांगीण विकास नहीं हो रहा है, बस “पढाई” हो रही है.
इस देश में समस्या ज्यादा है – स्टेट पश्चिम क तरह सक्षम नहीं है वृद्धों की देखभाल को और लोगों का वैल्यू सिस्टम पश्चिम की तरह बन रहा है तेजी से!
पश्चिमी सभ्यता के अंधानुसरण का ही ये दुष्फल है कि हम लोग अपने सामाजिक मूल्यों को ही भूलते जा रहे हैं, बुजुर्ग मां-बाप संतानों की उपेक्षा व अपमान के शिकार हो रहे हैं। वे जिन संतानों का लालन-पालन बड़े अरमानों से करते हैं, उन्हीं की उपेक्षा का दंश सहने को विवश हैं। बुढ़ापे में जो असहनीय पीड़ा उन्हें झेलनी पड़ती है, उसका अंदाजा इन कुमति संतानों को तो हो ही नहीं सकता।
शायद कंप्युटर्स और मशीनों के साथ रहते २ आदमी भी कुछ मशीनी हो गया है. सुब्रमनियन जी की जैसी हमारी भी चिंताएं हैं.
रामराम.
बहुत आश्चर्य हुआ घुघूती बासूती जी के विचार जान कर। इनकी एक छवि थी जो पूरी तरह बदल गयी। खैर, सबका अपना-अपना नजरिया होता है।
वैसे यह अवस्था सभी को आनी है। पर कभी भी उस स्थिति में खुद को रख कर इंसान नहीं सोचता। वृद्ध कोई वस्त्र या सामान तो नहीं हैं कि पूराने या अनुपयोगी हुए तो ठिकाने लगा दिए जाएं। जिस समय उनको किसी सहारे की सबसे ज्यादा जरूरत हो तभी उन्हें धकेल दिया जाये तन्हाई के अंधेरों में सिसकने के लिए। इस प्रश्न ने तो ऐसा विचलित कर दिया है कि समझ ही नहीं आता कि क्या लिखा जाए क्या नहीं।
अभी पिचले दिनों इसी बात पर कुछ पढा था, जिसमें वृद्ध इच्छामृत्यु की मांग करते हैं। कोशिश करता हूं एक दो दिनों में उसे समने लाने की।
अंत में फिर एक बार प्रभू से प्रार्थना है(कयी बार तो लगता है कि ऐसा कोई है भी कि नहीं) कि ऐसी सोच वालों को बुद्धी प्रदान करें।
अगर हम अपने संस्कार और संस्कृति की बात करेंगे तो पिछडे माने जाएंगे लेकिन यह सच है कि आज के आदमी का मॊरेल केरेक्टर गिरता जा रहा है। उसके आगे अच्छा-बुरा, अपने-पराये का पास भी नहीं रह गया है। आज स्व ही सब कुछ हो गया है। अब तो महिलाओं की मानसिकता भी बदल रही है। हां, भारतीय महिला पर संस्कार को जीवित रखने की बडी ज़िम्मेदारी थी पर आज तो स्त्री सशक्तीकरण का युग है-WHY SHOULD BOYS HAVE ALL THE FUN का ज़माना है। आज के समाज की दुखती रग को पकडा है आपने जिसका सीधा उत्तर तो शायद भविष्य ही देगा।
बेहद दुखद स्थिति है कि अगर कोई’ व्यक्ति को उसकी “आथिक उपयोगिता” से आंक रहा है-
मेरे ख्याल से ,बहुत खुशनसीब हैं वो जिन्हें बडे बूढों की छाया में रहने को मिलता है.हम तो तरसते हैं उनके सानिध्य के लिए और उनकी तस्वीर लगा कर ही उन्हें अपने बीच समझने की कोशिश करते हैं .
समाज में हर व्यक्ति की जरुरत है.,अहमियत है.चाहे वह किसी उम्र का हो या कितना अक्षम हो.घर परिवार ही बच्चों और बड़ों से पूरा होता है.यह बात किताबी नहीं सच है..जगह दिल में होनी चाहिये.घर में ‘कमरा,सामान ,पैसा एक लिमिट के बाद सब बेमानी हो जाता है.घर एक घर होना चाहिये ..मकान नहीं.और मेरे ख्याल से एक स्त्री की भूमिका सभी को बांधे रखने में बहुत महत्वपूर्ण है.और घर में बुजुर्गों को सम्मान है तो समाज में भी उनकी जगह और सम्मान बना रहेगा.
दिल और दिमाग को झकझोर देने वाला लेख है.
aap ke shbad hain–परिवार के स्वास्थ्य एवं समग्रता के लिये जरूरी है कि हम हरेक को संभालें, प्यार करें, आदर दें, सहेजें. वह समाज अभिशप्त होता हैं जहां उसके किसी भी घटक को बेकार समझा जाता है.
—अगर किसी ‘एक भी भटकी हुई बुद्धि ‘को ठिकाना इस को पढ़कर मिल जाये तो समाज का भला हो जायेगा.
शास्त्री जी हम मे से जो लोग पश्चिमी सभ्यता के पीछे भाग कर कर ना हो पश्चिमी सभ्यता को ही सही रुप मै अपना सके, ओर ना ही अपने संस्कारो को निभा सके, यानि यह लोग धोबी के गधे बन गये, जो इन गोरो की गन्दगी ही ठो रहे है,ओर यह ना हिंदुस्तानी ही रहे, ओर ना ही अग्रेज बन पाये, ना घर के रहे ना ही घाट के.
धन्यवाद इस सुंदर लेख के लिये
सभी के विचार पढने के बाद बड़ा कष्ट हुआ मुझे.
युवा पीढी का प्रतिनिधि होने के नाते मेरा मत इससे कुछ भिन्न है. ६०-७० के दशक तक लोगों को एकदम तैयार की हुई सामाजिक व्यवस्था मिलती थी जिसमे पिता भी वही करता था जो की पुत्र. भटकने की संभावनाएं काफी कम थी. परन्तु उसके बाद पैदा हुए लोगों ने अचानक से बदलाव की पूरी की पूरी श्रृंख्ला देखी है. जो लोग कभी गाँव से नहीं निकले थे, वो आज हाथों में दुनिया लेकर घुमने को मजबूर हैं. मेरे ख्याल से वयस्क लोगों को थोडा सा समय देना चाहिए इस पीढी को भी संतुलन हासिल करने का. फिर भले ही परिवार का वातावरण ७० के दशक की तुलना में बदल जाए, पर कहीं ना कहीं वृद्धों और वयस्क एवं युवाओं के बीच की दूरी अवश्य कम होगी.. ऐसा मेरा विशवास है.
सुन्दर शिक्षाप्रद बात,
सही कह रहे हैं शास्त्री जी. हमारे समाज में तो पशुओं-पौधों तक के प्रति पूरी सहानुभूति और संवेदनापरक दृष्टि रखी जाती रही है. पर अब इसे हो क्या गया है, यह समझ में ही नहीं आता.
आपकी इस प्रविष्टी से प्रभावित होकर मैनें भी एक लेख लिखा है, उसे पढेंगे तो अच्छा लगेगा:
http://mera-prayas.blogspot.com/2009/04/blog-post.html
I am sorry to submit that if the version is that there is no role of old people’s. Have anyone gave a throght when they will become old, what will be the fate., hence they are having experiences of ups and downs of life.Learn from them,Regard them by heart,Help them as after all old is Gold
I went through the views of all members and my heart was hurt. Without Old peoples at least Indian culture is Zero. I Know generation gap is the main cause behind , but understanding on both the sides will make the society ingeneral a gem.
What the young generation thinks about themself.It was quite painful to read the responses. Let me know , what is the age when a person can be told as old. I am sorry to write that Indian Society minus Old peoples is equal to Zero.
I AM SORRY TO WRITE THE PAIN GIVEN BY THE ARTICLE.NO I DON’T AGREE. ASK THE PERSON WHO DON’T HAVE AN UMBRELLA OF OLD PERSONS!!!!!
I totally disagree with the comments made by few viewers, you see you have to choose between westtern culture and indian one. In our culture the old persons are being paid due regards to them, share their experiences and follow what you like….but the title budhe logon ka kya kam samaz mein is painful, after all old is gold.Don’t mind sir!!!!
vartaman samaya me ghar ke bade budhe tatha ghar ke bachoo ko ek dusare ke sath ke bahut jaroot hai is ke liye hum sabhi ko koshish karni hogi apke lekh ne prabhavit kiya dhanyad triveni turkar
thanks