आज के मूल विषय की चर्चा करने के पहले हिजडा योनि में जन्म 002 आलेख में भूमिका रूपेश ने आदरणीय डॉ अरविंद के बारे में जो प्रतिटिप्पणी की है उसके लिये मैं व्यक्तिगत रूप से क्षमायचना करता हूँ. कारण यह है कि अर्धसत्य चिट्ठे से जुडे लैंगिक विकलांग मुझे पिता तुल्य मानते हैं. भूमिका रूपेश इन में से एक है, अत: उसको दिशादर्शन देने में मुझसे हुई गलती के लिये मैं जिम्मेदार हूँ. उम्मीद है कि भूमिका भी टिप्पणी द्वारा आप से क्षमायाचना करेगी.
भूमिका एक युवा लैंगिक विकलांग है, जल्दी ही तैश में आ जाती है, और कई बार एकदम बोल देती है. जीवन भर लोगों की निंदा एवं तिरस्कार सहने का एक फल है. कृपया सारे पाठक उसे क्षमा कर दें!
अब आते हैं इस विषय पर कि क्या वाकई में पुरुषों को लिंगच्छेद करके हिजडा बनाया जाता है. इस विषय पर मैं कई सर्जन लोगों से चर्चा में लगा हूँ, एवं समय आने पर आधिकारिक आलेख छाप दिया जायगा. सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने एक दम सही बात कही है कि:
अनावश्यक विवाद ठीक नहीं। यह लेखमाला लैंगिक विकलांगों के बारे में आम धारणा को सकारात्मक बनाने में मददगार हो रही है। लेकिन भूमिका रूपेश जी को थोड़ा संयम से काम लेना चाहिए।
(मलय त्रिदेव) भूमिका रूपेश की प्रतिक्रिया आपत्तिजनक है। इससे शास्त्री जी की सद्भावना पूर्ण लेखमाला का उद्देश्य आहत होगा।
अब आगे बढते हैं. आज का विषय है कि “आप ने हिजडों की गुंडागर्दी देखी है क्या?” आप में से अधिकतर लोग कहेंगे कि हां घरबाहर इन लोगों को जबर्दस्ती पैसा वसूल करते बहुत देखा है! ठीक है, पर अब इसका एक दूसरा पहलू देखें — आप ने कभी इन लोगों को बिना इनका अपमान या उपहास किए पैसे दिये हैं क्या? या किसी व्यक्ति को पैसे देते देखा है क्या, बिना उपहास के? आप में से अधिकतर इस प्रश्न का उत्तर “हां” में नहीं दे पायेंगे.
अब जरा निम्न बातों पर ध्यान दें
- सामान्य परिवारों में जन्मे इन शिशुओं को जन्मते ही इनका परिवार ऐसे फेंक देता है जैसे उनके हाथ में एक नवजात शिशु नहीं बल्कि जलते अंगारे थमा दिये गये हों.
- (कारण या लक्ष्य कुछ भी हो लेकिन) आपके घर की इस पैदाईश को हिजडे लोग ले जाकर पालते हैं, खाना देते हैं, बडा करते हैं.
- हर व्यक्ति को भूख लगती है, कपडे की जरूरत होती है, एक छत की जरूरत होती है, लेकिन आप ने अपने खुद के जन्माये शिशु को इन सब बातों से वंचित कर दिया. कभी आप के मन में यह बात नहीं आई कि आप के बच्चे को गैर लोग पाल रहे हैं, इस कारण चलों कम से कम कुछ पैसा नियमित रूप से उस बच्चे के लिये उसके लालनपालन करने वालों को दे दिया जाये. कहां से आयगा उसका खानाकपडा?
- बडा होने के बाद उसे नौकरी नहीं मिल पाती क्योंकि उसके लालनपालन करने वाले जो खुद अपढ हैं उसे भी नहीं पढा पाये.
- पढ जाये तो भी उसे नौकरी नहीं मिलती. कौन किसी हिजडे को नौकरी पर रखता है.
- आजकल बारात में नाचने के लिये उनकी मांग न के बराबर रह गई है. सामाजिक परिवर्तन के साथ उनके अन्य परंपरागत पेशे, मंदिरों महलों से जुडे काम आदि भी खतम हो गये हैं.
- पब्लिक में वह पुरुषों के टायलट में जाये तो पुरुषों को आपत्ति है कि साडी पहन कर यहां क्यों आये. स्त्रियों के टायलट में जाये तो उनको आपत्ति है कि तुम औरत नहीं हो.
- समाज में कहीं भी उनको न तो आदर मिलता है, न संवेदनशीलता दिखाई देती है.
ऐसे समाज में अपने भूखे पेट के लिये ये लोग क्या कर सकते हैं. भीख नहीं मांग सकते क्योंकि कोई हिजडा भीख मांगने बैठ जाये तो मनचले लोग उसका जीना हराम कर दे. कोई नौकरी नहीं देता. सरकार की ओर से कोई मदद नहीं मिलती, न शिक्षादीक्षा की कोई व्यवस्था है. अत: कुल मिला कर कहा जाये तो अधिकतर हिजडों के सामने जीने का एक ही तरीका है कि वह लोगों से पैसे मांगे. इन के क्रूर मांबाप ने पैदा होते ही इनको “फेंक” कर अपनी कठिनाई से मुक्ति पा ली, लेकिन जीवन के हर दिन व्यंग, आक्षेप, कटूक्तियों द्वारा मानसिक स्तर पर मरने के लिये इनको छोड दिया.
जब एक हिजडा आकर आप से दस रुपया मांगे तो उसे इस पृष्ठभूमि में देखें. तब आप को समझ में आ जायगा कि वे भी मनुष्य हैं. उनके भी दिल है जो शायद आप के दिल से भी अधिक कोमल है. मानुषिक संवेदनशीलता मुझआप से भी अधिक है. जरा एक बार कोशिश करके देखें. जरा एक बार बिना हंसे, बिना परिहास किये, एक दस का नोट भीख के रूप में नहीं बल्कि उन के जीवनयापन के लिये एक प्रोत्साहन के रूप में दे दें. आप को एक नया संसार दिखाई देगा.
इस परंपरा के पिछले आलेख:
Article Bank | Net Income | About India । Indian Coins | Physics Made Simple | India
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हिजडों को नौकरी न दिये जाने के दो कारण जो आपने बताये हैं (शिक्षा का अभाव और हिजडेपन को सामाजिक सम्मान न मिलना) उनसे सहमति है. हिजडों की दशा “दलितों” के समान ही है.
लेकिन, ऐसी दशा में हिजडों का जीवन-अर्जन के लिये फूहडपन का सहारा लेना कहाँ तक उचित है? फूहडपन भी बिना हद के. मेरे भाई की शादी होने के ३ दिन बाद हिजडे मेरे पिताजी से पचास हजार रुपये लेकर गये थे. नाच-गाना भी सिर्फ १० मिनट दिखाया. यदि पारिश्रमिक की अपेक्षा थी तो श्रम भी दिल लगाकर करना चाहिये था. और उसके कुछ ही दिन बाद वही हिजडे पडोस के एक और घर में आये. घर के मुखिया से १ लाख रुपये की माँग हुयी, जिसे ठुकरा दिया गया. दो हिजडे नंगे हो गये, और शोर मचाकर नाचने लगे. जबसे वह दृश्य देखा, हिजडो के लिये मेरे मन में सारा मान-सम्मान काफूर हो गया.
इज्जत दी नहीं जाती, अर्जित की जाती है.
कुछ बेरोजगार महिलओं के सामने जब रोजी-रोटी कमाने का कोई भी जरिया नहीं बचा, तो उन्होंने फूहडपन का सहारा लेने के बजाय श्रम करना ठीक समझा. मात्र अस्सी रुपये की लागत से पापड बनाने शुरू किये, और आज करोडों का कारोबार कर रही है उनकी लिज्जत पापड कंपनी.
माना कि मजबूरियाँ बहुत हैं, लेकिन पुरुषार्थ पर सिर्फ पुरुषों का एकाधिकार नहीं है – हिजडे भी पुरुषार्थ करके धरती पर अपना निशान छोड सकते हैं.
और हाँ, आपके शल्यचिकित्सकों की राय की बाट जोह रहा हूँ कि आदमी हिजडा कैसे बनता है. हिजडों पर सामाजिक जागरूकता जगानी होगी – यह सिर्फ एक शुरुआत-मात्र है. कोशिश काबिलेतारीफ है, जारी रखें!
जैसा कि अनिल जी ने लिखा है शादी के अवसरों पर हिजड़ों द्वारा पचास हजार से लेकर एक लाख तक की मांग होते मैने भी देखा है। अब कल्पना करें कि उस पर क्या गुजरती होगी जो दहेजमुकत शादी कर रहा हो और पहले ही आयोजन में काफ़ी पैसे खर्च हो चुके हों या जिसने फ़िजूलखर्ची न करने का प्रण लिया हो।
हिजडो द्वारा इस तरह धन की उगाही करना अक्सर देखी जाती है जो गलत है जबकि आम हिजडे द्वारा माँगा गए दस बीस रुपये से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता बल्कि लोग खुश होकर देते है लेकिन शादियों और बच्चे के जन्म के समय धन उगाही के लिए इनका अश्लील उत्पात मैंने भी कई जगह देखा है जो बर्दास्त करने लायक नहीं होता |
यह एक बड़ी सामाजिक समस्या है और इसके भी कई पहलू हैं ! आप की जितनी प्रशंसा की जाय कम है कि आपने इस समस्या की ओर एक सकारातमक पहल कर समाजसेवा की एक मिसाल पेश की है ! मगर आप देखेंगें कि इस वर्ग से लोग सहज ही असहज हो उठते हैं !
यह मानवता की आदि समस्याओं में से एक है मगर लैंगिक विकलांगता की बात छोड़ दें तो इनमें ऊर्जा की कमी नहीं है -वृहन्नला ने तो महाभारत में युद्ध की कमान ही संभाली थी -द्रोणाचार्य उसी के पराक्रम से पराभूत हुए ! इन्हें किन्नरों का भी नामकरण मिला ,अकारण ही नहीं ! मगर आज समाज के चलते और खुद किन्नरों ने अपनी जो हालत बना ली है ये आम जीवन से बहिष्कृत और तिरष्कृत हैं -इतनी विशाल ऊर्जाशक्ति दिशाहीनता की दुर्दशा से अभिशप्त है -कुछ किया जाना चाहिए -ईश्वर आपके प्रयास को फलीभूत करे !
अरविंद जी से सहमत हैं। यह सामाजिक समस्या है लेकिन समाज इस समस्या के निदान और लैंगिक विकलांगो के पुनर्वास के लिए कतई प्रयत्नशील नहीं है।
हिजड़े हिजड़े ही होते हैं
गुण्डे तो नेता होते हैं
उनके होते हिजड़ों को
गुण्डे कहना अपमान है
गुण्डे तो मान है
नेताओं का।
हिजडा के अन्दर में वो सारी भावनाए होती है जो एक सामान्य महिला या पुरुष के अन्दर पायी जाती है . मैं एक ऐसे लैंगिक विकलांग को जानता था (कुछ वर्ष पहले उनका देहांत हो गया ) , जो हमारे घर अकसर आया करते थे. मेरी नानी जी के गाँव के पास ही उनका गाँव था. वो अपने घर वाले के बारे में पूछते थे की कौन क्या कर रहा है , कैसे है वो लोग. नानी ने कई बार कहा की वो अपने घर एक बार जा के सबसे मिल आये , तो उन्होंने कहा की जब उन्होंने मुझे भुला दिया है तो मैं फिर क्यों जाऊ उन्हें याद दिलाने .
मैंने उनसे पूछा था की आप लोग शादी और बच्चे के पैदा होने पे पैसे क्यों मांगते हो .बोले जब बीमार पड़ते है तो पैसा चाहिए खाने के लिए पैसा चाहिए , बिना पैसे के कुछ भी नहीं हो सकता है .और जब शादी होती है तो लोग बहुत सा पैसा खर्च करते है ऐसी चीजो में जो आवश्यक नहीं है , इसीलिए हम शादी में पैसे की मांग करते है , हम वही मांगते है जो जायज है पर जब सामने वाला उसे गलत ठहरता है तो हमे भी सख्त होना पड़ता है .
कोई हमें घर में काम करने की इजाजत नहीं देता , पढ़े लिखे हैं नहीं की कुछ कर सके तो अब क्या करे .मांग के ही काम चलाना पड़ता है .पिछले जन्म में कोई पाप किया होगा जो इस जन्म में हमें उपरवाले ने ऐसा बना दिया .
अगर हम किसी से प्रेम करे तो बदले में हमें प्रेम ही मिलेगा पर तिरस्कार करेगे तो गाली मिलेगी ऐसा मैं समझता हूँ .
अच्छी जानकारी
आगे भी जारी रखें किस्त
गुण्डागर्दी का समर्थन नहीं किया जा सकता. बेहतर है उन्हे नौकरी देने के लिए सही माहौल बनाया जाय. आरक्षण दिया जाय. वे भी समाज का हिस्सा बन कर रहे.
जबरदस्ती हिजड़ा बनाया जाता है.
आज की आपकी जानकारी और व्यथा गरीब परिवारों में पैदा हुए जन्मना विकलांगों या दुर्घटना वश हाथ या पैर गवा चुके लोगों पर भी लागू होती है. परन्तु जो लोग स्वयं अपना जीवन यापन नहीं कर सकते, उन्हें भीख “अधिकार पूर्वक” मांगने का हक़ देने की सामाजिक व्यवस्था असंवैधानिक है. संविधान में किसी भी प्रकार की भिक्षव्रत्ति और वैश्यावृत्ति को हतोत्साहित करने की पूरी प्रक्रिया है, भले ही इसमें संलिप्त लोग कितने भी मजबूर क्यों ना हों. हिजडे भी इसी दायरे में आते हैं.
लैंगिक विकलांगों के कुछ मजबूत संगठन भी हैं जो अपना सम्मेलन किया करते हैं। जब-जब कोई हिजड़ा चुनावी राजनीति में दाखिल हुआ तब-तब जनता ने उसे दूसरे राजनेताओं पर तरजीह देकर जिताया। लेकिन इस सबका परिणाम बहुत उत्साहजनक नहीं रहा। गोरखपुर में तो एक हिजड़ा मेयर चुन लिया गया। लेकिन उसके कार्यों ने प्रभावित नहीं किया बल्कि उपहास और आलोचना की प्रतिक्रिया ही अधिक मिली।
इन्हें सकारात्मक सोच विकसित करनी चाहिए। लैंगिक विकलांग होने के कारण इन्हें खुद को मानसिक और शारीरिक रूप से कमजोर नहीं मान लेना चाहिए। बल्कि शिक्षा और अन्य तकनीकी कौशल बढ़ाने की कोशिश करना चाहिए। जिस प्रकार लड़कियों का स्कूल होता है, अन्य प्रकार के विकलांगों का स्कूल है उसी प्रकार लैंगिक विकलांगों के लिए भी सरकार को विशेष स्कूल खोलने चाहिए। इस दिशा में यदि कोई पहल हुई हो तो उसका प्रचार प्रसार होना चाहिए।
जब हम से से किसी को भी (लडकी/ लडका ) मां बाप की ज्यादा से अपना हक न मिले तो हम क्या करते है ??? ओर इन हिज्जडो को तो अपने प्यार का हक भी नही मिलता ? बल्कि तिर्स्कार ही मिलता है, ओर बचपने से ही इन के मन मै बहुत नफ़रत हो ती होगी हम सब के बारे मै…शायद तभी यह ऎसा करते होगे,फ़िर जहां भी यह जाये लोग बत्मीजी से या फ़िर बेवकुफ़ी भरा मजाक इन से करते है, अगर यह भी हमारी तरह से एक सभ्य परिवार मै शिक्षा प्राप्त करे, जिन्दगी बिताये परिवार के साथ तो यह भी हमारी तरह से ही व्यवहार करेगे, दुसरा अगर हम इन से प्यार से बात करे तो यह भी बहुत प्यार ओर सम्मान से बात करते है, इस लिये जिस परिवार मै भी ऎसे बच्चे पेदा हो उन्हे इन्हे भी घर मै अपने दिल मै अन्य बच्चो की तरह से प्यार से रखना चाहिये, कसूर इन हिजडो का नही, इस समाज का है.
धन्यवाद
यदि चलती टेªन में हिजड़े के लिबास में कोई आपसे रुपए-पैसे मांगने आए तो भला कौन मना कर सकता है? आजकल हिजड़े के लिबास में भीख मांगने का नया प्रचलन शुरू हो चुका है क्योंकि सभी जानते हैं कि इनसे पार पाना आसान नहीं होगा। कल ही जोधपुर-इदौर इंटरसिटी एक्सप्रेस में दो युवक हिजड़े के लिबास में रुपए इकट्ठे कर रहे थे। हर तरफ जब मारामारी चल रही है तो समझदारी इसी में होती है कि सबसे आसान तरीका अपनाया जाए।
शास्त्री जी,
पहले तो अपनी उस मेल के लिए माफ़ी चाहूँगा. हम लोग हिजडों को सामने देखते ही उनके पीछे की बैकग्राउंड को नहीं देखते, हम देखते हैं सिर्फ उनसे जल्दी से जल्दी पिंड कैसे छुडाया जाये?
वैसे मैंने वो पोस्ट हिजडों को निशाना बनाकर नहीं लिखी थी, केवल एक अनुभव लिखा था. और उसमे भी आप समेत तीन कमेन्ट को छोड़कर सभी मेरी बात से सहमत थे. अगर ये समाज हिजडों को इज्जत की निगाह से नहीं देखता है तो कुछ दोष तो समाज का ही है, और कुछ हिजडों का भी है. हिजडें भी इस समाज में खुद को स्थापित नहीं कर पायें है. आखिर कुछ तो बात है.