मैं ने अपना पेशाई जीवन शालेय अध्यापन से शुरू किया था. वह भी उस विद्यालय में जहां पहली से ग्यारहवीं तक मेरी पढाई हुई थी. इसका नुक्सान यह था कि अधिकतर कर्मचारी एवं चपरासी मुझे ‘सर’ कहने के बदले ‘भईया’ कहा करते थे. फायदा यह था कि इस संस्था के नस नस पर मेरी अच्छी पकड थी.
फल यह हुआ कि नौकरी के पहले साल ही एडमिशन की जिम्मेदारी मुझे दे दी गई, जो तनाव के कारण अच्छे अच्छों को एक साल में गंजा कर देती है. प्रिन्सिपल एवं मेनेजमेंट ने सख्त हिदायत दिया कि सिर्फ सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थीयों को ही भर्ती किया जाये जिससे कि विद्यालय का सालाना परिणाम शहर में सबसे अच्छा आये. दूसरी ओर हर ऐरे गैरे नत्थू गैरे एवं गुंडेलपाडों को मेरे पास एक नोट के साथ भेज देते थे कि “आवश्यक कार्यवाही के लिये प्राभारी को प्रेषित” “नियमानुसार प्रवेश दिया जाये” या “निमानुसार प्रवेश की कार्यवाही के लिये प्रेषित”. प्रिन्सिपल के बाल तो नोच नहीं सकता था, अपने ही बाल नोच लेता था.
एक दिन मेरा साथी अध्यापक दौडा दौडा आया कि “सर, अभी अभी मेरे सामने प्रिन्सिपल ने शहर के नामीगिरामी डॉक्टर की लडकी को नवीं में प्रवेश का वायदा कर दिया है, लेकिन छोकरी सब विषय में गोल है”. क्षण भर में डॉक्टर साहब अपनी बच्ची को ले मेरे कमरे में उपस्थित थे. वह नवी फेल हो गई थी और डॉक्टर साहब “स्कूल बदलना” चाहते थे. नैतिक-विज्ञान को छोड वह सब विषयों में फेल थी. इस बीच प्रिन्सिपल ने दूरभाष पर संदेश दे दिया कि डॉक्टर को निराश न किया जाये.
मेरे लिये अध्यापन के ये साल अध्यापन कम, जीवन का अध्ययन अधिक था. परीक्षा की इस घडी में खरा उतरना था. मैं ने डॉक्टर साहब से कहा कि इस शर्त पर इसे ले लेंगे कि छमाही परीक्षा आते आते वह हर विषय में कम से कम सेकेंडक्लास आ जाये, नहीं तो उसे आठवीं में भेज दिया जायगा. लिखित में उनसे मनवा लेने के बाद मैं ने कहा कि अब किसी अच्छे एवं सहृदय अध्यापक के पास तुरंत ही ट्यूशन के लिये भेज दिया जाये. तुरंत ही उत्तर मिल गया कि “आप से अधिक इस काम को कौन कर सकता है”.
उस डरीसहमी और मासूम बच्ची को देख मुझे एक दम दया आ गई और ट्यूशन के लिये आने को कह दिया. विद्यालय में उन दिनों ट्यूशन की अनुमति थी, शर्त इतनी थी कि कक्षा में किसी तरह की लापरवाही नहीं होनी चाहिये.
मेरे पास इस तरह के लगभग 20 विध्यार्थी हो गये थे. सब के सब नगरसेठों के बच्चे थे, लेकिन किसी को भी कायदे की नीव नहीं दी गई थी. सुबह 6 बजे घर आ जाते थे और 9 से 10 तक पढते थे. दोपहर को 12 बजे स्कूल लगता था अत: सुबह हम सब आजाद थे. काम कठिन था, लेकिन मुझे उन में से हर बच्चे में ईश्वर का रूप दिखाई दिया जिसे मांबाप की लापरवाही के कारण कुचल दिया गया था. एक एक करके मैं ने उनकी नीव डाली. काम कठिन था. बच्चे इस बात को समझ कर हर तरह से सहयोग करते थे. इस बीच मेरा शिशु रोता था तो बच्चियां उसे उठा ले आती थीं जिससे कि पत्नी को तकलीफ न हो.
तिमाही में सब के सब पास हो गये. बस सीमारेखा के पार हो गये थे. इस बीच वे मेरी पत्नी से ऐसा हिलमिल गये थे कि आठ बजे सब के लिये चाय आने लगी. ठंड का मौसम असर दिखाने लगा था. समय के साथ वे बीसों विद्यार्थी अब मेरे बच्चे बन चुके थे. सुबह 6 से 10 तक मेरे छोटे बच्चे को लडकियां अपने बगल में रख खिलाती जाती थीं जिससे पत्नी को आराम हो जाये. उन सब को मालूम था कि मैं उनको पैसे के लिये नहीं पढा रहा हूँ. आपसी स्नेह लोगों को बहुत मजबूती से बांध देता है और बहुत कुछ करवा देता है.
तीन महीने और बीत गये. छमाही का परिणाम आया. किसी को यकीन नहीं हुआ! आधे विद्यार्थी पहले दर्जे में एवं बाकी उच्च-द्वितीय दर्जे मे उत्तीर्ण हो गये थे. मैं धन्य हो गया. उस साल अंतिम आखिरी परीक्षा में सब के सब प्रथम दर्जे में पहुंच गये एवं उन में से आधे लोग कक्षा में इतने आगे पहुंच गये कि कई लोगों को लगा कि शायद मैं ने उनकी उत्तरपुस्तिकायें जांची होगी. यह गलत अनुमान था क्योंकि विद्यालय के सबसे बदमिजाज अध्यापक ने उत्तरपुस्तिकायें जांची थी.
विद्यालय गर्मी की छुट्टियों के लिये जिस दिन बंद हुआ तब उन बच्चों ने अनुरोध किया कि छुट्टियों में भी उनको मेरे घर आकर पढने का अवसर दिया जाये. मैं ने ऐसा ही किया. धीरे धीरे मेरे घर हर साल इस तरह के अपंग और कमजोर विद्यार्थीयों का काफिला बढता गया. मैं सिर्फ 6 महीने पैसा लेता था लेकिन उनको 12 महीने पढाता था.
लगभग 25 साल बीत चुके हैं. आज उन में से हरेक जीवन के उन्नत स्थानों में है. कई विदेशों में हैं. लेकिन आज भी पत्र लिखते हैं. मिलते हैं तो सरे आम पैर छूते हैं. मिलने पर खुशी से कई अभी भी रोते हैं कि “सर हमारे धर्मपिता तो आप हैं”.
मैं और आप ईश्वर के स्वरूप में सिरजे गये हैं. हमारा यह स्वरूप सिर्फ तभी अर्थ पाता है जब हम गैरों को जीवनदान देते हैं. इसके लिये अध्यापक होना जरूरी नहीं बल्कि हर पेशे में आप के पास मौका है कि आप लोगों को जीवनदान दें.
पुनश्च: डॉक्टर की बिटिया सबसे होनहार निकली. आज वह हिन्दुस्तान की जानीमानी डॉक्टर है. आज भी सोचकर कांप जाता हूँ कि समय पर मेरीआपकी मदद न मिलने के कारण उस जैसे कितने होनहार बच्चे सडक छान रहे है!!
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flikr0956 by flikr
व्यथा आपकी लेख में झलक रही श्रीमान।
रखते कितने लोग अब इन बातों का ध्यान।।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.com
बच्चे तो सारे मिट्टी के जैसे होते है जैसे ढ़ालो ढल जाते है। आप जैसे गुरुओं को सादर नमन।
गुरुओं का स्थान इसीलिए सबसे ऊपर है और आप तो सद्गुरु हैं. वे बच्चे भाग्यशाली थे जो आपके हाथों में आ पड़े. नहीं तो हम अपने देश की हालत देख ही रहे हैं.
सबके मन में आप सा ही भाव हो तो अधिकतम बच्चों का उद्धार हो जायेगा.
गुरु: देवो भव!
आपका वह माजी था और आपने निश्चित ही बहुत सामाजिक काम किया -मुझे तो किसी का ब्लॉग गुरू का सम्मान अब जाकर थोप दिया गया है ! मैं कैसे निर्वाह करूं ?
@Dr.Arvind Mishra
चिट्ठाजगत में काफी युवा लेखक हैं जिनको आपके प्रोत्साहन की जरूरत है.
समाज में चारों ओर लोग प्रोत्साहन के अभाव में मुर्झा रहे हैं. उनकी मदद जरूर करें!!
सस्नेह — शास्त्री
@ और लेखिकाएं शास्त्री जी ! वे सब आपके जिम्मे ! (मजाक ) -क्षमा याचना सहित !
@Dr.Arvind Mishra
मंजूर है !!!
हमको भी आप शिष्य बना लिजिये. अगर आप जैसा गुरु हमको पहले मिल गया होता तो आज हम क्यों ताऊगिरी कर रहे होते?
रामराम.
आप जैसा गुरु मिल जाये, तो क्या बात है..जय हो!
@ताऊ रामपुरिया
आप ताऊगिरी नहीं करेंगे तो चिट्ठाजगत रोयगा !!
@समीर लाल
और आप जैसे नायक मिल जाये तो हम गुरुओं का जीवन धन्य हो जाता है!!
धन्य हुआ मैं ऐसा प्रेरणादायक आलेख पढ़कर.. और सबसे धन्य हुए वे बच्चे जिन्हें आपके जैसा ईश्वर सामान गुरु मिला..
परन्तु शास्त्री जी, मैं ठहरा निरा ठूँठ सौफ्टवेयर अभियंता.. परिवार से कटा हूँ, समाज से सरोकार नहीं. तकनीकी ज्ञान अगर ज्यादा किसी दुखियारे जूनियर को बता दिया तो अपनी खुद की नौकरी पर बन आएगी..
अब आप ही बताये…
गुरु कुम्हार शिष्य कुम्भ है गढ़ गढ़ काढ़े खोट……..
i love my GURUJI (ShastriJI JC Philip)
मुझे गर्व है कि मैन आपको गुरु बनाया। यह ईश्वरीय देन है कि मैने पहली ही बार आपसे बीना मिले इस रस्म को पुरा किया। अब हमारी नैया पार लगाना भी गुरुवर आपके हाथ है।
@ताऊ रामपुरिया Says:
April 17th, 2009 at 11:18 am
हमको भी आप शिष्य बना लिजिये. अगर आप जैसा गुरु हमको पहले मिल गया होता तो आज हम क्यों ताऊगिरी कर रहे होते?
ताऊजी ! यह करने के लिऐ भी गुरु जी ने ही आर्शिवाद दिया होगा। बिन गुरु ज्ञान कहॉ तादश्री ?
@लगभग 25 साल बीत चुके हैं. आज उन में से हरेक जीवन के उन्नत स्थानों में है. कई विदेशों में हैं. लेकिन आज भी पत्र लिखते हैं. मिलते हैं तो सरे आम पैर छूते हैं. मिलने पर खुशी से कई अभी भी रोते हैं कि “सर हमारे धर्मपिता तो आप हैं”.
वाक्य यह बाते दिल को छु जाती है। आत्मियता भरा आर्शिवाद जरुर निकलता है। वास्व मे मै इसे भारत की मिठ्ठी के सस्कारो कि देन मानता हू जो इस तरह के पवित्र रिस्तो का निर्माण होता है।
@मैं सिर्फ 6 महीने पैसा लेता था
मेरे लिऐ यह बात अदभुत है। अब तो शायद पैसो का चलन भी बन्द हो गया। नोटो मे भी लाल गान्घीजी (१००० रुपया) या पीले रन्ग वाले गान्धीजी के नोट( ५०० रुपया) टियुशन मे चलते है।
उस वक्त मे धन का प्रभाव कम था व्यक्ति का ज्यादा। इसलिए शास्त्रीजी जैसे गुरु लोगो को मिल पाऐ। आजके जमाने के गुरुओ को शिष्य से ज्यादा धन का महत्व अधिक है। आत्मीयता, सस्कार्, आदर्, सम्मान्, आज कि शिक्षा एवम शिक्षाजनो से विलुप्त है।
शास्त्रीजी आप मुलत किस प्रदेश से है ?
वैसे अभी तो आप केरला वासी है। यह बात मै इसलिऐ पुछ रहा हु कि आप द्वारा लिखित हिन्दी शब्दावली पश्चिम एवम उत्तरभारत के आम लोगो, द्वारा बोली जाती है, सारे के सारे हिन्दी शब्द हिन्दी भाषियो मे कॉमन बोले जाते है। चुकि अब आप साउथ से है फिर भी आपकि हिन्दी भाषा को किचित भी प्रभावित नही पाया । जैसे भईया’- नस नस- नामीगिरामी – नगरसेठों के बच्चे-हिलमिल। कुछ इस तरह के शब्दो से मै अपनापन महसुस करता हू। ऐसा लगाता है कि आप हमारी भावनाओ से झुडे हुऐ है। आभार्।
@HEY PRABHU YEH TERA PATH
मैं मुलत: केरल का हूँ, लेकिन पढाई-लिखाई, कामधंधा, सब कुछ ग्वालियर (मप्र) में किया. इतना ही नहीं नेताजी सुभाष चंद्र बोस के शिष्यों के प्रभाव में घोर राष्ट्रवादी एवं हिन्दीवादी बन गया. शालेय शिक्षक भी हिन्दीवादी मिले. पढाई ठेठ हिन्दी में हुई.
अब समझ लीजिये कि आप में और मुझ में अंतर क्यों नहीं है.
सस्नेह — शास्त्री
@HEY PRABHU YEH TERA PATH
हर महीने हिन्दी-सभा से कम से कम 5 हिन्दी किताबें खरीदता हूँ. घर पर सरिता, सरससलिल, हंस, कल्याण, युगनिर्माण योजना की पत्रिका, जिनवाणी एवं कई अन्य पत्रिकायें आती रहती हैं. जिनवाणी बंद हो गई है उसे पुन: चालू करना पडेगा.
सस्नेह — शास्त्री
बहुत अच्छा लगा. भले ही यह आपकी आप बीती रही हो परन्तु सतोष हमें भी हो रहा है.
गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवमहेश्वरः
गुरुसाक्षात्परब्रह्म तस्मैश्रीगुरवे नमः।
जय हो।
शास्त्री जी,आप के इस आलेख से बहुतों को प्रेरणा मिलेगी।
@सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी
इस विद्यालय में 11 साल यह हमारी प्रार्थना थी और हर सुबह मैं खुद इस प्रार्थना से शुरू करता था !!
एक बच्चे के भविष्य में गुरु का बहुत बड़ा हाँथ होता है
समय कितना बदल गया है. अब तो ऐसे अध्यापकों के बारे में सोचा भी नहीं जा सक्ता है.
A Nice inspiring article.I bow down my head to submit that recently a female student was kept in open sun where temperature is 40 degree celsius. She died. Is this is the level of a teacher. Why the teachers can not balance their mind. I am sorry to label such teachers as non human?
गुरू वही है जिसे सामने देख कर चरण छूने को मन करे ।
A nice and admirable thought !! Gurudev may I join you.
Sarathiji really you are great a writter that you have raised a nice subject. I salute you . Keep it up to update our knowledge.
What a wonderful title, that forced me to read and was very much inspired
I am fan of your’s KALAM , what it writes really amazing. Keep it up
I AM DELIGHTED TO READ THE TITLE AND WANTED TO WRITE, NATURALLY WHAT SHE CAN DO??
jivan ki sari shakti bahi deta. jiske batay gay marg par vah chalta hai or jo na batane par bhi sab kuch bata deta hai, vah guru nahi guruji hai.