कल सारथी पर एक आलेख छपा था अस्मत लुटाने के सौ फार्मूले ! इसमें मेरा मुख कथन था:
- पब संस्कृति, वेलेंटाईन डे आदि जहां से हिन्दुस्तान आवक हुए हैं जरा उस समाज को देखें. जरा यह देखें कि ये चीजें किस तरह से लोगों को मोहांध और कामांध बना रही है. जरा यह भी देखें कि किस तरह वहां प्रति वर्ष इन के चक्कर में कितने लाख लोग अपनी अस्मत लुटा देते हैं, कितनी लडकिया लुट जाती हैं, नोच ली जाती हैं, और कितने गर्भस्थ शिशु मार डाले जाते हैं. हिन्दुस्तान को इन “आवकों” की क्या जरूरत है!!
एक टिप्पणी में कौतुक ने कल पूछा
- नशा पहली बार हमारे यहाँ नहीं आया है, जिसे हम पब संस्कृति कह रहे हैं वह आखिर है क्या? जमींदारों के यहाँ मुजरे बुलाये जाते थे. स्वयं शहर के एक से एक रईस कोठों पर जाते थे. आज भी हमारे यहाँ हर शहर में एक रेड लाइट एरिया होता है. हम उसे तो न रोक पाए.
कौतुक ने एकदम सही बात कही है कि नशा पहली बार हमारे यहां नहीं आया है. लेकिन जरा ध्यान दें कि मेरा विषय नशा नहीं है, न ही नशे की उपलब्धि मेरी चर्चा का विषय है. मेरा विषय है कि किस तरह से किसी जमाने में जो काम इज्जतदार लोगों के लिये सही नहीं समझा जाता था उसे अब बडे ही तरकीब से लोगों के व्यवहार में “सरका दिया” जा रहा है.
कौतुक के प्रस्ताव में अन्य भी कई गलतियां है. यह सही है कि “कई” जमींदारों के यहां मुजरे बुलाये जाते थे, लेकिन मुजरों के स्वर्णयुग में भी “अधिकतर” जमींदार ऐसा नहीं करते थे. यह सही है कि “कई” रईस लोग कोठों पर जाते थे, लेकिन “अधिकतर” रईस लोग इस कार्य से परहेज करते थे. यही उस समाज में और आज पश्चिम से आयात हो रही संस्कृति में अंतर है — एक समय अच्छे बुरे का फरक लोगों को मालूम था और अधिकतर लोग ऐब नहीं पालते थे. लेकिन पब संस्कृति और बाल्टियान (वेलेंटाईन) जैसे उत्सव आम आदमी के जीवन में इस अंतर को मिटाने की कोशिश में लगे है.
दो मित्रों ने मेरे आलेख का काफी अच्छा विश्लेषण प्रस्तुत किया है जो इस प्रकार है
(मिहिरभोज) गुरूजी इस विषय पर इतना बेबाकी से लिखना कोई आप से सीखे….बहुत ही अच्छा लिखा आपने…जवान लङका ,लङकी और शराब इन तीनों को एक जगह करना ही पब संस्कृति है..और इसके बाद कोई नैतिकता बचती हो सोचने लायक बात है….इस चीज का समर्थन चाहे स्त्री स्वंतंत्रता के नाम पर ही सही ..उचित नहीं कहा जा सकता…
(Isht Deo Sankrityaayan)शत-प्रतिशत सही बात कही है शास्त्री जी आपने. हैरत होती है कि किस कदर हमारी दुनिया बदल रही है. हम संयम से कंडोम और अब उससे भी आगे एबोर्शन संस्कृति की ओर बढ़ रहे हैं. ऐसा सटीक और तटस्थ विश्लेषण कम ही लोग कर सकते हैं.
(सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी)पहले जो काम छिपछिपाकर किया जाता रहा है अब उसे आधुनिकता, और फैशन के नाम पर खुलेआम किया जाने लगा है। अब संयमित और मर्यादित रहने को पिछड़ापन की संज्ञा देकर ‘बिन्दास’ रहना और बोलना सिखाया जा रहा है। यही ट्रेण्ड पश्चिम से आयातित है।
(indian citizen)महिलाओं को उपभोग की वस्तु मानने वाले ही उनके लिये शराब पीने और पब जाने तथा खुले सम्बन्ध बनाने के लिये प्रेरित करते हैं. अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये मनमाने कुतर्क गढ़ना तो मनुष्य का पुराना शगल रहा है.
जरा संयम और ईमानदारी से सोचें! जो लोग सहीगलत का अंतर जानते हैं वे चुपचाप रहेंगे तो दर असल वे समाज को विकृत करने वालों का अनुमोदन कर रहे हैं.
गुरूजी इस विषय पर इतना बेबाकी से लिखना कोई आप से सीखे….बहुत ही अच्छा लिखा आपने… यह बात मै आज दोहराना चाहता हू
कौतुक ने कल ठिक सावाल किया था। उनकि चिन्ताई हमसे मिलती जुलती है।
बिल्कुल सही कहा आपने.
रामराम.
पहले जो काम छिपछिपाकर किया जाता रहा है अब उसे आधुनिकता, और फैशन के नाम पर खुलेआम किया जाने लगा है। अब संयमित और मर्यादित रहने को पिछड़ापन की संज्ञा देकर ‘बिन्दास’ रहना और बोलना सिखाया जा रहा है। यही ट्रेण्ड पश्चिम से आयातित है।
महिलाओं को उपभोग की वस्तु मानने वाले ही उनके लिये शराब पीने और पब जाने तथा खुले सम्बन्ध बनाने के लिये प्रेरित करते हैं. अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिये मनमाने कुतर्क गढ़ना तो मनुष्य का पुराना शगल रहा है.
एक बात और जो अभी ध्यान आई वह यह कि खुशवंत सिंह ने अपने एक लेख में कुछ हिन्दू साध्वियों के लिये यह कहा कि अगर उन्हें पुरुष साहचर्य मिला होता तो यह जहर न उगलतीं, इससे ही यह स्पष्ट होता है कि पुरुष महिलाओं को यौन आनन्द उठाने का एक साधन मात्र ही मानता है.
गुरूदेव भारतीय नैतिक मूल्यों के पतन के लिये ये एक बहुत सोचा समझा प्रयास है जो कि बहुआयामी है। शिक्षा से लेकर लोक व्यवहार तक में इन विकारों को खुशवंत सिंह या उन जैसे लोग एजेंट की तरह अपनी वैचारिक ताकत के द्वारा भोले मन पर आरोपित कर रहे हैं (कु)तर्क भी बड़े मजबूत होते हैं उनके। नशा और प्रयोगवाद पर मै लिख चुका हूं ये भारत की संस्कृति का अंग रहे हैं और अभी भी हैं आप देखिये कि समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग गांजा भांग आदि का सेवन करने वाले साधु संप्रदाय के लोगों को बड़े आदर से देखते हैं उसके पीछे बड़ा रहस्य है। स्पष्ट विषय और सुन्दर व संतोषजनक उत्तरों का खजाना हैं आप लेकिन जो दुराग्रही है वह आपके उत्तरों से संतुष्ट न होगा।
सादर
रूपेश
“…एक समय अच्छे बुरे का फरक लोगों को मालूम था और अधिकतर लोग ऐब नहीं पालते थे. लेकिन पब संस्कृति और बाल्टियान (वेलेंटाईन) जैसे उत्सव आम आदमी के जीवन में इस अंतर को मिटाने की कोशिश में लगे है.…”। इस वाक्य से पूरी तरह सहमत… और यही असली चिंता का विषय भी है…
बहुत ही बारीक विश्लेषण पढने को मिला और आपकी व्याख्या और तर्क से सहमत भी हूँ. हाँ मुझे मानना होगा कि जिसे हम दुष्कर्म समझते थे वह हमारे व्यवहार में घुसा जा रहा है. और यहाँ व्यक्त दुःख यह है कि इसे सहर्ष स्वीकार भी किया जा रहा है.
अब यदि चिंतन को आगे बढायें. तो क्या हम यह मान लें कि वास्तव में यहाँ विरोध दो अलग-अलग चीजों का है, जो मिश्रित हो कर एक “पब संस्कृति” के नाम से आ रहा है?
१)खुल कर नशा करना.
२)औरतों को बढ़ावा देना. (जैसा कि indian citizen ने कहा कि औरतों को इसलिए बढ़ावा दिया जाता है कि वो बिगडें ताकि पुरुषों को उनका फायदा उठाने का मौका मिले.)
तो यदि मैं अपने पुराने प्रश्नों में से एक प्रश्न को ज्यों का त्यों दुहरा दूं. तो वह अभी भी अनुत्तरित है.
१) यदि नशा करने से परहेज है, जो व्यक्ति को अपाहिज और मानसिक विकलांग और न जाने किस किस हालत में ले आती है, तो नशा का विरोध कीजिये. बंद करवा दीजिये सारे मदिरालय. वह कोई नहीं करता.
ऐसा करने से हमारा समाज जो कि नशा करने को दोष भाव से लेना बंद कर रहा है, शायद पतन से बच जाय. यदि ऐसा होता है तो दूसरा कारण तो बचेगा ही नहीं. हम प्रश्न “दो” को अभी गौण रखते हैं. महिलाओं को स्वायतता देना या उसकी वकालत करना इस बहस के बाहर रहे तो ज्यादा अच्छा है.
अब दूसरा प्रश्न ताऊ रामपुरिया का है
“ईमानदारी की बात यह है कि किसी भी बाल्टियान दिवस के बाद ही नही बल्कि किसी भी सार्वजनिक उत्सव के बाद अनचाही भ्रूण हत्या की बाढ सी आज आती है. और इसके लिये हमारा आज का वातावरण ही दोषी है. इससे कैसे बचियेगा?”
यदि दूसरे प्रश्न का उत्तर महिलाओं पर पाबंदी है तो हम फिर बहस से भटक जायेंगे, यदि नहीं तो क्या करें?
इन दिनों व्यस्तता के कारण कुछ आलेख नहीं पढ़ सका था। आज और कल का आलेख पढ़ा। आप के आलेख की सब बातों से सहमत हूँ। लेकिन सारा विवाद आप के आलेख के शीर्षक से उत्पन्न हुआ है जिस में अस्मत शब्द का प्रयोग किया गया है। इस के स्थान पर पतन के गर्त में पहुँचना होता तो कोई विवाद न होता। वस्तुतः स्त्री के लिए अस्मत शब्द का प्रयोग करना विचित्र लगता है। आखिर वह क्या चीज है? मैं यहाँ उस की व्याख्या करूंगा तो बात बहुत आगे तक जाएगी। वस्तुतः समाज विकास के दौर में जब संग्रहणीय संपत्ति अस्तित्व मे आई और उस के उत्तराधिकार का प्रश्न खड़ा हुआ तो स्त्री की संपत्ति का अधिकार तो उस की संतानो को दिया जा सकता था। फिर यह प्रश्न उठा कि पुरुष की संतान कौन? इस प्रश्न के निर्धारण ने बहुत झगड़े खड़े किए। जब तक गर्भ धारण से संतान की उत्पत्ति तक स्त्री किसी एक पुरूष के अधीन न रहे तब तक संतान के पितृत्व का निर्धारण संभव नहीं था। इसी ने विवाह संस्था के उत्पन्न होने की भूमिका अदा की और स्त्री की अस्मत को जन्म दिया। अब स्त्री भी वैसे ही व्यवहार की अपेक्षता पुरुषों से करती है। नशा तो वर्ज्य होना ही चाहिए। लेकिन पूंजी से पूंजी कमाने वाले जो राज्य पर भी अपना अधिकार बनाए हुए हैं, अपने आय के इस स्रोत को कैसे बन्द होने दें? असली झगड़ा तो वहाँ है। जरा इस परिप्रेक्ष्य में सोचिए।
कल वाले ही अपने मत को कम और आसन शब्दों में कहूँगा..
जैसा की शास्त्री जी ने कहा है तमाम बुराइयों के बारे में की “कई” लोग करते थे पर “अधिकतर” लोग नहीं करते थे.. इसी तरह मेरा भी मानना है ये जिन भी नैतिक और मानसिक विकारों की बात की जा रही है, उसमें संलिप्त महिलाए और पुरुष शून्य के दशांश के बराबर प्रतिशत में भी नहीं हैं, ना की सारा समाज.. लेकिन चूँकि वो लोग अमीर होते हैं.. पेज ३ से सम्बंधित भी होते हैं, सो हर कोई उनके बारे में ही बात करना चाहता है.. भले ही वो अच्छा हो या बुरा. ऐसे लोगों के बनाने या बिगाडने से समाज बनने या बिगड़ने वाला नहीं है.
हमारे समाज की निर्मात्रियाँ तो गावों में रहती हैं.. वो भी घूँघट के पीछे.. हर अत्याचार सहती हुई.. अगर कुछ करना ही है तो शुरुआत उनसे की जाए जिनकी व्यथा जग जाहिर है.. (ऐसा एक सफल प्रयास सारथी पर हाल ही में हो चुका है लैंगिक विकलांगो के लिए.. शास्त्री जी को आभार) और अगर सिर्फ दिखाना भर ही है तो आओ शुरुआत करते हैं खुशवंत सिंह (भारतीय फ़्रोयड) का विरोध करके.. और इसी बहाने अप्रत्यक्ष रूप से उनका समर्थन करके..
@मिहिरभोज जी की टिप्पणी पर
“जवान लङका, लङकी और शराब इन तीनों को एक जगह करना ही पब संस्कृति है..और इसके बाद कोई नैतिकता बचती हो सोचने लायक बात है”
यह तो आपने बहुत बड़ी बात कह दी.
थोड़ा विश्लेषण स्वयं करें, और देखने की कोशिश करें, कि भारत के बाहर भी कई समाज हैं और उनमे नैतिकता बची है कि नहीं. वह समाज जो नारी को इतनी बराबरी देता है किसी भी काम में पुरुषों को बराबरी का टक्कर देती है. संबंधों में भी वह उतनी ही सहजता से पहल कर सकती है जितना कि एक पुरुष. वह समाज जहाँ स्त्री के साथ उसका पति भी जबरन सम्बन्ध बनाना गुनाह समझता है. वह समाज जो बच्चों को पीटना अपराध समझता है. वह समाज जो घृणित से घृणित हो रहे कार्य को सबके सामने स्वीकारता है और फिर जुट जाता है कि कैसे उसका निदान हो, कैसे उसे रोका जाय. वह समाज जो छद्म ही सही मानवाधिकारों का अगुआ है. वह समाज जो अपने अन्दर के दुर्गुणों पर निर्दयता से आत्मविश्लेषण करता है और सुधरता भी है. और यदि न भूलें तो वह समाज एक गुलामों की जिन्दगी जीता था, गुलामी करवाता था. धर्म और शासन के नाम पर घृणित से घृणित अत्याचार भी करता था.
यदि आज वह समाज आगे बढ़ रहा है तो मेरे मत से उसके अन्दर भी नैतिकता बची है. उन नीतिगत पुरुष-महिलाओं में वे लोग भी हैं जो साथ बैठ कर वे सारे कार्य करते हैं जो दो पुरुष साथ बैठ कर कर सकते हैं.