शहरी जीवन हम को बहुत कुछ दे रहा है, लेकिन उसके साथ साथ हम बहुत कुछ खो भी रहे हैं. इन खोती हुई चीजों में से एक है वे फल और सब्जियां जो गांव के जीवन में रोजमर्रा की चीजें थीं. कोई इनकी खेती नहीं करता था, क्योंकि ये व्यापारिक नजरिये से उपयोगी नहीं थे, लेकिन अधिकतर लोगों के बागानोंखेतों में इधर उधर लगे रहते थे और बच्चे उनका आनंद लेते थे.
मैं ने कोच्चि में जब से घर बसाया है तब से केरल के इस तरह की फलसब्जियों में काफी रुचि ली है और अपने अपने घरों में इनको लगाने के लिये मेरे मित्रों को प्रोत्साहित किया है. जिस महाविद्यालय में मैं ने आखिरी नौकरी की थी उसका 50 एकड का केंपस था और वहां से मुक्त होने के पहले इस तरह के लुप्त होते पेडों को वहां तमाम जगह लगवा दिया था.
केरल के लुप्त होते फलों में एक है “चांबक्का”. सुनते हैं कि कम से कम एक दर्जन किस्म के चांबक्का हुआ करते थे, लेकिन पिछले 15 साल की भागदौड के बाद मुझे सिर्फ 3 तरह के ही मिल पाये. बाकी इतने दुर्लभ हैं कि दिखते नहीं हैं. इन में से दो मैं ने अपने घर में लाकर लगाये, और इस साल पहली बार जम कर उनमें फल हुए. इतने हुए कि अडोसपडोस के बच्चे और घर काम के लिये आने वाले मजदूर भी खा खा कर तर गये.
इसे चबाने पर यह कडे टमाटर के बराबर कडा होता है. हल्का मीठा एवं हल्का खट्टा मिश्रित स्वाद किसी भी अन्य फल के स्वाद से नहीं मिलता. इस साल इसके 10 फुट ऊचें पेड ने 4 फुट से 10 फुट तक की ऊंचाई तक की शाखाओं में फल दिये. प्रति दिन 50 के करीब फल पक जाते हैं.
जिस तरह से टमाटर को कोई आम के या केले के समान नहीं खा पाता है, जबकि ये सब फल हैं, उसी तरह चांबक्का को भी फल के रूप में अधिक मात्रा में खाया नहीं जा सकता है. यही कारण है कि इस की इतनी उपेक्षा हो रही है जबकि प्रकृतिदत्त किसी भी भोज्य वस्तु की उपेक्षा नहीं होनी चाहिये, खास कर यदि वह जरा सी जगह में न के बराबर मेहनत से प्रचुर मात्रा में उत्पन्न होता हो.
इस नजरिये से मैं ने कुछ प्रयोग किए तो पता चला कि सलाद बनाने के लिये यह फल एकदम उम्दा है. बस फिर क्या था, आजकल रोज जमकर तोड रहे हैं और सलाद सूत रहे हैं. क्या आप भी इसी तरह अपने इलाके के फलसब्जियों के प्रति जागरूक हैं?
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चित्रकार: शास्त्री, चित्र के पुनरुपयोग की अनुमति है
लोगों को चाहिए कि वे अपने अहाते मे सजावटी पौधों के साथ-साथ इन फलदार पौधों को भी लगाएं। हर जगह, कई लोग ये काम करेंगे तो बूंद बूंद से समंदर बन जाने वाली बात होगी। बस यही एक उपाय है, अन्यथा आज के विकास की दौड़ में इन्हें गुम हो जाने में देर नहीं है। पुराने जमाने में राजे-महाराजे और जमींदार अपने बागानों में दूर-दूर से मंगाकर तरह-तरह के पेड़-पौधे खासकर फलदार वृक्ष लगाया करते थे।
यहां तो अनेक जंगली फल गायब हो चुके हैं।
क्या यह कोकम या उसके परिवार का है? गोवा प्रवास के दौरान मैनें कोकम जूस/कढ़ी का स्वाद लिया था जो वहाँ काफी प्रचलित है। किन्तु कोकम का फल पकनें के बाद गहरे कत्थई रंग का हो जाता है तथा स्वाद में बहुत खट्टा होता है।
यह फ़ल बचपन मे कलकता मे खूभ खाये हैं. इनका स्वाद और शक्ल का विवरण आपने दिया है वही हुआ करता था पर हम वहां इसे जामुन के नाम से जानते थे. खैर..
यहां तो आप जानते ही होंगे कि इसके बारे शायद ही कॊई जानता हो? मुझे म.प्र. मे आये भी ३५/३६ साल होगये पर मैने यहां इसे नही देखा.
रामराम.
भूल सुधार
खूभ – खूब
इस फल के बारे में भी जान गये हम । आप की फल-सब्जियों-वनस्पतियों के प्रति जागरुकता अनुकरणीय है । धन्यवाद ।
ताऊ ने बिलकुल ठीक कहा है. यह फल उडीसा और बंगाल में खूब होता है. गुलाबी रंग लिया हुआ. इसे गुलाब जामुन भी कहते हैं. यह एक सिट्रस फल है जिसमे विटामिन सी भरपूर है. कुछ प्रजातियों के फल मीठे भी रहते हैं. हमारे घर में हमारा ही लगाया हुआ एक पेड़ है जो ३५ साल का हो चुका है. टहनियां मजबूत होती हैं.
sir thoda parcel kar dijiye mumbai………..
बम्बई मेँ ये हरे पत्तोँ पे सजा कर खूब बिकते थे
और हमने बहुत खाये थे –
बम्बई मेँ इन्हेँ ‘सुफेद जामुन’ कहते हैँ
चाँबक्का नाम दक्षिणी लगता है –
Thanx LavniyaDi,
for informtion ‘सुफेद जामुन’
अगर यह दिखाया गया फल सफ़ेद जामुन ही है फिर तसल्ली की जा सकती है की इसे व्यवसायिक रूप से उगाने वाले और खाने वाले अभी भी हैं.. वैसे खाया तो मैंने भी है इसे पर आजकल शहरों में कम ही दिखता है ..
मैने भी इन फलों को गुजरात में खाया है, वहां भी इन्हें इसकी गुलाबी सी आभा होने के कारण गुलाब जामून कहते हैं।
कभी कमरख के बारे में भी बतायें। ये भी चांबक्का की तरह बहुत ज्यादा प्रतिशत पानी वाला फल होता है।
बहुत से फल मनुष्य के लिए व्यावसायिक महत्व का न होने पर भी पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़ों के लिए बहुत उपयोगी होते हैं, और वे उन्हें खूब खाते हैं। क्या चांबक्का को आपने किसी किसी पक्षी या जानवर को खाते देखा है?