आज भारत के कम से कम 40 करोड लोग बडे आराम से हिन्दी पढलिख लेते हैं. इन लोगों के लिये कम से कम 1000 गैर सरकारी सामाजिक पत्रिकायें/अखबार हिन्दी में छपती हैं. कम से कम पच्चीसतीस अश्लील पत्रिकायें भी हिन्दी में छपती हैं. लेकिन निजी क्षेत्र में एक भी विज्ञान-पत्रिका मेरी जानकारी में नहीं है.
1960 आदि में एक निजी पत्रिका विज्ञानलोक छपती थी. उस पीढी के लोगों में वैज्ञानिक चेतना जगाने के लिये उस पत्रिका ने बहुत कुछ किया. लेकिन विकास की अंधी दौड में वह पत्रिका बंद हो गई. बच्चों को परीकथाओं, दानवप्रेत, तिलस्मटोने आदि से दूर हटा कर स्वस्थ जानकारी, एवं स्वस्थ मनोरंजन प्रदान करती थी “पराग”. यह भी बंद हो चुकी है.
लेकिन इस बीच सस्ते, फूहड, और बुद्धि को कुंठित कर देने वाली हिन्दी कामिक्स का जाल बहुत फैल चुका है. इन में से अधिकतर का युक्ति, तर्क, और विज्ञान से कोई लेनादेना नहीं है. इन को पढ कर जो बच्चे बढे होते हैं वे उसी वैज्ञानिक सोच को पालते हैं जो जंतरमंतर वाले पालते हैं.
अंग्रेजी में साइंस टुडे और साइंस एज नामक दो उत्कृष्ट भारतीय पत्रिकायें थी वे भी बंद हो चुकी हैं. मजे की बात है कि भारतीय विज्ञानपत्रिकाओं के चार गुना कीमत की साइंटिफिक अमेरिकन, जियो, और न्यू साईंटिस्ट भारत में बडे आराम से बिक रही हैं.
कुल मिला कर कहा जाये तो वैज्ञानिक सोचसमझ को पोषित करने के लिये न के बराबर निजी भारतीय पत्रिकायें बची हैं. हम ने घूरे के लिये सोने का त्याग कर दिया है. इसका हल क्या हो?
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बात तो चिन्ता की है ही, लेकिन सरकार तो विज्ञान पत्रिका निकालने से रही। निजी तौर पर ही कोई प्रयास हो तो कुछ संभवना है।
सादर
श्यामल सुमन
09955373288
http://www.manoramsuman.blogspot.com
shyamalsuman@gmail.
अपने छुटपन में पराग के कुछ अंक मैंने भी पढ़े हैं । धुंधला सा खयाल है उसके मुख-पृष्ठों का । सच में अब पराग जैसी पत्रिका नहीं । नन्दन जरूर ऐसी पत्रिका जो निरन्तर प्रकाशित हो रही कमोबेश ज्ञानवर्धक, मनोरंजक और काम की जानकारियों के साथ ।
’विज्ञान प्रगति’ और ’आविष्कार’ साथ ही विज्ञान परिषद इलाहाबाद से ’विज्ञान’ आज भी छपती हैं।
शास्त्री जी, आप का ब्लॉग पोस्ट ‘चन्दन का तेल . . . ‘ अमर उजाला में छपा है। कोई लिंक बताएँ तो स्कैन कॉपी भेज दूँ।
पराग, धर्मयुग .., आदि के बन्द होने के पीछे ‘अर्थ की अनर्थकारी माया’ का भी बहुत योगदान है। आज की आवश्यकता है – कॉर्पोरेट जगत द्वारा नि:स्वार्थ रूप से पोषित ज्ञानदायी और स्वस्थ मनोरंजन देती पत्रिकाओं का प्रारम्भ जहाँ ‘प्रॉफिट’ मोटिव न हो।
यद्यपि हिंदी में विज्ञान पत्रिकाएं इने-गिने ही रहे हैं, लेकिन हिंदी अखबार अभी हाल तक इस मामले में काफी सजग और जिम्मेदार थे और अपने रविवारीय परिशिष्टों में काफी मात्रा में विज्ञान से संबंधित सामग्री देते थे। लोकमत समाचार, रांची एक्सप्रेस, राजस्थान पत्रिका आदि में मैंने ही बीसियों विज्ञान लेख छपवाए हैं। पर धीरे-धीरे ये भी व्यावसायिकता के चलते अंग्रेजी अखबारों की लीक पकड़ रहे हैं और अपने आपको सेक्स, स्पोर्ट्स और राजनीति की त्रुपुटी तक सीमित करते जा रहे हैं।
ब्लोग, इंटरनेट और पुस्तकें ही अब चिराग जलाए हुए हैं, पर हमारे देश में बहुत कम बच्चों को ब्लोग या इंटरनेट तक पहुंच प्राप्त है। गनीमत है कि हजार कार्टूनों के बीच टीवी में अब भी डिस्कवरी, नेशनल जोग्राफिक आदि चैनल बच्चों का ध्यान आकर्षित करते हैं, खास करके तब से जबसे ये हिंदी में आने लगे हैं।
आम जनमानस में वैज्ञानिक सोच को विकसित किए बिना हम सामाजिक कुरीतियों और रूढ़ियों से छुटकारा नहीं दिला सकते। इसके लिए बचपन में ही विज्ञान पत्रिकाओं से मेल कराना आव्यक है।
यह सच है कि बच्चों के लायक विज्ञान पत्रिकाएं सरकारी खर्च पर ही प्रकाशित हो पाती हैं। जब तक अभिभावक जागरूक होकर बाजार में इसकी मांग नहीं पैदा करेंगे तबतक निजी क्षेत्र इसमें पैसा नहीं लगाने वाला।
वास्तव में निजि क्षेत्र में कोई अच्छी हिन्दी विज्ञान पत्रिका नहीं है। होनी चाहिए। लाख रुपए की कार और मुम्बई में सस्ते घर देने वाले टाटा ये काम क्यों नहीं कर सकते?
बहुत अच्छी सोच है. एक बार जब सोचना शुरु होगया यानि बीज धरती मे गिर गया है तो आपका सोच अवश्य सार्थक फ़ल सामने लायेगा.
आपके लेख का अमर उजाला मे छपने की आपको अतिशय बधाई.
रामराम.
अंग्रेजी में साइंस टुडे और साइंस एज नामक दो उत्कृष्ट भारतीय पत्रिकायें थी वे भी बंद हो चुकी हैं. मजे की बात है कि भारतीय विज्ञानपत्रिकाओं के चार गुना कीमत की साइंटिफिक अमेरिकन, जियो, और न्यू साईंटिस्ट भारत में बडे आराम से बिक रही हैं.
हाँ यह बहुत दुखद है !
सर , आपने बहुत ही अच्छा मुद्दा उठाया है , लेकिन क्या आपने कभी हमारी हिंदी विज्ञानं पत्रिकाओं पर नज़र डाली है , उनकी विषय-वस्तु बहुत ही सामान्य स्तर की होती थी , अगर वो बंद हुई है तो उसमे उनका ही दोष है , क्यों की लगता था की उन्हें बाकि दिन-दुनिया की कोई खबर ही नहीं है , और अपडेट होना -तो जैसे उनके लिए था ही नहीं, रही बात अंग्रेजी पत्रिकाओं की तो आप उनकी विषय-वस्तु ही देख ले , नहीं चाहते हुए भी आप उसे खरीद डालते है , क्या इतनी से बात हमारी हिंदी विज्ञानं पत्रिकाओं को समज़ में नहीं आती है — यही नहीं आप जरा Discovary – National Geography के बच्चों के कार्यकर्म और हमारे दूरदर्शन पर प्रसारित NCRT द्वारा समर्थित बच्चों के कार्यकर्म देख के क्या स्तर है उनका – शायद फिर कुछ कहने ही जरुरत ही नहीं है, वो आज भी इन्टनेट युग की पीढी को कागज़ की नाव बनाना सिखा रहें है
कुछ लिखने आया तो पता चला आर सी मिश्रा जी पहले ही लिख चुके हैं वह बात!
आप बजा फरमा रहे हैं. सुना है मनोरमा वालों की कुछ पत्रिका है
पराग और नन्दन वाकई बेहद अच्छी पत्रिकायें थीं… अब फ़िलहाल अखबारों के साथ जो साप्ताहिक पुल-आऊट आते हैं उनमें ही कभी-कभार विज्ञान सम्बन्धी पढ़ने को मिलता है, मूल अखबार से कोई उम्मीद नहीं बची अब…
मुनाफ़े की अन्धी दौड़ में जनचेतना को विकसित करने की फ़िक्र किसे है? महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है आपने।
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शास्त्री जी छपे तब जब लोग इन्हे पढे, हम बच्चो को खरीद कर दे, लेकिन हमे भारत की चीजे बेकार लगती है, विदेशो की बेकार चीजे भी हमे सोना लगती है, जिस दिन हम अपनी चीज कॊ , प्यार करना , इज्जत देना शुरु करे गे, यह अच्छी पत्रिका फ़िर से बाजार मै आ जायेगी,मेने बहुत से लोगो को यह कहते देखा है !! अरे मेने फ़लां लेखक का फ़लाम फ़ला नावल ५ हजार मे ले कर पढा( यह विदेशी लेखक है )लेकिन मेने आज तक किसी को भी यह कहते नही सुना कि हम ने शकुंतला पढा हि, मुंशी प्रेमचन्द को पढा हो, बल्कि इन का मजाक करते ही देखा है.
In the first instance, Hindi literature has almost disappeared and now we have come to a pass where we think in English, write in English and are even making an increasing number of films in English. We must be the only non-English speaking nation in the world expressing so much in that language.People are reading Chetan Bhagat because there is lack of distribution and reading interest of people in hindi literature.Regarding the fall of readers in hindi science magazine,nothing can be done much. Discovery Channel, History Channel and National Geographic are doing perfect job for distribution of scientific knowledge. You will argue that rural children are not getting proper attention but without massive investment in agariculture and basic education, al power will flow in the hand of english speaking middle class. I like your article but when hindi speaking belt is more interested in dance, song and reality shows, God save the nation. And it becomes very absurd to discuss about these serious matters where scientific temper is lacking from academics.
@राज भाटिया
“लेकिन मेने आज तक किसी को भी यह कहते नही सुना कि हम ने शकुंतला पढा हि, मुंशी प्रेमचन्द को पढा हो, बल्कि इन का मजाक करते ही देखा है.”
ऐसा नहीं है भाई। मैं तो गर्व से कहता हूँ।
@yayaver
सत्य वचन मित्र।
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mahodai
aap ka mudda vstav me desh ke ujwal bhawisya ke liye ati awasyak chintniy visay hai. bal sahitya ka abaw bigyan ki prarmbhik jankari se anbhigya bal man par sarkar ke door-darsan aur cinema ko aslilata prasaran ki khuli chhut hai. jisake malik baidh aur abaidh dhanwan (laxmi-putra} hai
is bharat me gyani aur sahityakaro kabewaki
pan ki kami hai.baigyanik aur sahityakaro ki andehi bhi hai.desh ko ajad karane sahityakaro
ki mahtvapurn bhumika ke bal se desh aajad hai.abhivyakti ke nam par nangepan par hamare gusse ki kami hamari bagawatki kami ke karan hamsab apane bachcho ke liye gadhdha khodane ka hi kam kar rahe hai
cinema ke kalakar aur khilari ka samman
ke bad mandir banaa bhagwan kahana hamari pagal
pan hai.desh ki akhbar jo sahitya ke darje me ata hai jo sidha chaplusi me laga hai.samachar
ke pratham panne me khel filmi hero heroin ki nangi tasbiro ke sath samachar aur prachar neta ka kalendarnuma poto bad ke panno me desh aur duniya ka samachar chapate hai.
doordarsan ke aslil cmedy-circus jaise bachcho ke dimag me kachara bharne bale prasaran band karane ki sart banani hogi.
mahodai
sahitya aur bigyan ke prasar me
tatha
ashlilata ke har jang aur virodh me hamara sath rahega