सारे वकील लुटेरे होते हैं??

image एक महीने से घर की पुताई चल रही थी. काम अब खतम हो गया. मैं पूरी तरह से “पुत” भी गया. इसके बाद बैठ कर आराम से जरा चिट्ठाजगत की खबर ली तो कई चिंतनीय, हास्य से भरपूर, लटके झटके से भरपूर, एवं हर तरह के आलेख दिखें जिन में से अविनाश वाचस्पति का आलेख एक बहुत पुराना आलेख वकील: नोटवर्किंग की कील किसी कारण एकदम नजर आ गया.

इसमें उन्होंने वकीलों की सारी करतूतें एवं सारे कारनामे उजागर किये हैं. इसे पढते ही आप को एकदम यकीन हो जायगा कि वकीलों से बढ कर नीच और पतित और कोई व्यक्ति इस दुनियां में हो ही नहीं सकता. परलोक में तो वह होगा ही नहीं, क्योंकि इस तरह की करतूतें करने वाले को परलोक कैसे नसीब होगा. खूब मजा आया पढने में. दिन भर मजे लेता रहा,  लेकिन सोचते सोचते एक बात खटक गई: अविनाश ने इसे लिखा होगा हास्य के रूप में, लेकिन आलेख के आसपास कहीं भी “यह शुद्ध व्यंग है” नहीं लिखा अत: जनता इसे बडी गंभीरता से ले रही है. एकाध ने तो आजकल में ही इसे सबके समक्ष पेश किया है.

मन में  यह बात एक दम से खटकी  कि मेरे जीवन में दोचार विकट परिस्थितियां जब आईं तब सिर्फ वकीलों के कारण ही मैं बच पाया था. जब बेटेबेटी के जन्म प्रमाणपत्र बनवाने की जरूरत पडी तब एक वकील न मिला होता तो काम न बनता.  जब चंबल के डाकू हाईवे पर मेरी मोटरसाईकिल लूट ले गये तो एक वकील न होता तो पुलीस रपट न लिखती. एक और वकील न होता तो रपट की लिखित प्रति न मिलती. फिर जब मेरे एक वैज्ञानिक शोधलेखन पर 20,000 मेंबरों वाली केरल की  एक धार्मिक संस्था मुझे कोर्टकचहरी में खीचने वाली थी तो कोच्चि का एक दमदार वकील न होता तो मैं तो अभी सडक पर  भीख मांग रहा होता. कुछ महीने पहले पेशाई जलन के कारण एक आदमी मेरे पीछे पड गया था तब परामर्श के लिये दो वकील न मिलते तो मैं मानसिक रूप से टूट गया होता.

ये बातें मन में आईं तो लगा कि सारे वकील तो ऐसे नहीं होते. इतना ही नहीं,  ये सारे आरोप तो किसी भी पेशे पर लगाये जा सकते हैं. डाक्टरों को ले लीजिये. उन में से कितने ही लोग मरीजों लूट के लिये, मरीजों के साथ बलात्कार के लिये पकडे जा चुके हैं. क्या मनोवैज्ञानिक दूध के धुले हैं. इन में से कितने ही लोग मरीजों का आर्थिक एवं यौनिक शोषण करते पकडे गये हैं. व्यापारी लोग मिलावट करते हैं और मिलावटी खेसरी दाल और खाद्य तेल के प्रयोग के बाद कितने ही लोग अपंग हो गये हैं.

तो फिर कौन सा पेशा है जिस में हर कोई दूध का धुला है? आप कहेंगे कि अध्यापक लोग सही हैं! लेकिन अध्यापकों में से कई लोग जम कर विद्यार्थीयों का आर्थिक, मानसिक और शारीरिक (यौनिक) शोषण करते हैं. आप कहेंगे कि शायद धर्मगुरू लोग दूध के धुले हैं.  लेकिन शायद हत्या, बलात्कार, ब्लेकमेलिंग और अन्य अपराधों में जेलबंद धर्मगुरुओं को आप भूल गये.

आप कहेंगे कि अब तो आम आदमी ही बेहतर है. लेकिन आप भूल गये. जब भूकंप से घर धाराशायी होते हैं, जब रेलगाडियां, बसें पलट जाती हैं, तब जम कर लूट मचती है. यह आम आदमी करता है, न कि दूर से बुलाये विशेष लुटेरे लोग. मैं ने अपनी आखों से ये बातें देखी हैं.

कुल मिला कर कहा जाये तो समाज के हर तबके में बुरे लोग मिल जाते हैं. ऐसा कोई तबका नहीं है जहां सब के सब दूध के धुले हों. लेकिन ऐसा भी कोई तबका नहीं है जहां हर कोई अपराधी और लुच्चा हो. 80/20 का हिसाब सब जगह चलता है. 100 में से 80 सही हों तो 20 गलत किस्म के लोग निकल आते हैं. कोई भी पेशा इसका अपवाद नहीं है.  अत: किसी भी तबके में सब को एक ही लपेट में लेकर उन पर आरोप लगाना सही नहीं है कि 100% लोग इस प्रकार के हैं. हो सके तो व्यंग के रूप में भी यह कार्य नहीं करना चाहिये क्योंकि जब एक व्यंग पचास बार दुहरा दिया जाता है तो लोग उसे एक तथ्य के रूप में देखने लगते हैं.

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Author: Super_Admin

29 thoughts on “सारे वकील लुटेरे होते हैं??

  1. आपकी बात एकदम ठीक है अच्छे-बुरे लोग हर पेशे में होते हैं और समाज के हर तबके में भी । पर बुराई को समने लाने में क्या हर्ज है । इससे तो जागरूकता बढती ही है । आदमी ज्यादा सतर्क हो कर चलता है ।

  2. अब यदि घर की पुताई निपट गई हो तो टिप्पणी पोतन में पुनः सक्रिय हो जायें. आखिर कब तक अपने कर्तव्यों से विमुखता बनाये रखेंगे, महाराज!

  3. सही कहा – अच्छे बुरे लोग सभी जगह हैं और फिर बुराई भी जरुरी नहीं तो अच्छाई के पक्ष का पता ही नहीं चलेगा।

  4. सहमत हूं आपके एक एक वाक्‍य से .. हर पेशे , हर क्षेत्र से अच्‍छे और बुरे दोनो ही प्रकार के लोग जुडे हैं .. और खासकर आज के अर्थप्रधान युग में .. न चाहते हुए भी कुछ लोगों को दूसरे के हित से ज्‍यादा अपने हित की चिंता करनी पड रही है।

  5. Perception of aam aadmi is that vakeel and police are most corrupted ones. With long holding cases and human right abuse both are exploiting the society. The good, the bad and the ugly ones will be there in each walk of the life. And thanks for the article by avinash vachaspati.

  6. बिलकुल सही बात -यह तो पूरे समाज की बात है ! वकीलों से मुझे भी नुक्सान हुआ है मगर इससे पूरा वकील समाज दोषी नहीं बन जाता -प्रत्येक पेशें में भले बुरे लोग हैं ! और कानूनी झाम होने पर उसी में से कोई वकील मदादगार भी होता है ! ये भी प्रोफेसनल लोगों का एक समूह है -और समूह की मानसिकता जैसी है वैसी ही ये लोग भी हो जाते हैं !

    arvind mishra
    http://bhujang.blogspot.com/2009/06/blog-post.html

  7. बुरे लोगों का कोई अलग गाँव-शहर नहीं बसा होता। ये हमारे बीच ही यत्र-तत्र बिखरे पड़े हैं। वैसे ही जैसे मूर्खों, मवालियों, व्यभिचारियों, विद्वानों, सन्तों और महात्माओं की अलग बस्ती नहीं होती। हमारे समाज में सभी प्रकार के लोग अपस में मिले हुए हैं। किसी एक पेशे को सामूहिक रूप से लांछित करना ठीक नहीं है।

    आदरणीय शास्त्री जी, सत्यार्थमित्र पर आपके आगमन की प्रतीक्षा लम्बी होती जा रही है। आपके स्नेह और आशीर्वाद की आकांक्षा लिए कोई राह देख रहा है।

  8. चलिए शुक्र है की, इस मुद्दे पर अब कुछ सकारात्मक बातें भी सामने आ रही हैं..बिलकुल सह मत हैं आपसे ..अच्छाई और बुराई हर जगह हर क्षेत्र में है..वकील के बारे में एक बात कहीं मैंने सूनी थी.न जाने क्यूँ लगा की यहाँ लिखता चलूँ…..वकील वो होता है तो आपके बहुत सारे पैसे ले लेता है..मगर बदले में आपकी सारी मुसीबतों से आपको छुटकारा दिलाने की कोशिश करता है…….

  9. क्या शास्त्री जी, कितने ही लोग आहत हुये होंगे आपकी पोस्ट से 🙂

    … और अविनाश वाचस्पति जी को अब भूल सुधार कर लेना चाहिए। सामने आकर कह तो दें कि ‘वह’ एक हास्य मात्र था। उनके कुछेक (हास्य) लेखों को भी गंभीरता से लेकर पहले भी बखेड़ा हो चुका है।

  10. बिल्कुल ठीक कहा आपने लेकिन डाक्टर, पुलिस, वकील यह सब ऐसे लोग या प्रोफेशन हैं जो लोगों की जिन्दगी से सीधे जुड़े हुये हैं और यदि इनमें बीस प्रतिशत भी खराब निकलते हैं तो जिसके लिये खराब निकले उसके लिये तो पूरा सौ प्रतिशत हो गये. एक कानून बनाया जा रहा था कि एक निश्चित समय के अन्दर ट्रायल पूरा होगा लेकिन वकीलों के विरोध के चलते ऐसा नहीं हो सका. यह क्या सिद्ध करता है?

  11. कुल मिला कर कहा जाये तो समाज के हर तबके में बुरे लोग मिल जाते हैं. ऐसा कोई तबका नहीं है जहां सब के सब दूध के धुले हों. लेकिन ऐसा भी कोई तबका नहीं है जहां हर कोई अपराधी और लुच्चा हो. 80/20 का हिसाब सब जगह चलता है. 100 में से 80 सही हों तो 20 गलत किस्म के लोग निकल आते हैं. कोई भी पेशा इसका अपवाद नहीं है.

    आपके उपरोक्त कथन ने सब कुछ स्पष्ट कर दिया है और मैं निजी रुप से आपसे सहमत हूं.

    रामराम.

  12. “किसी भी तबके में सब को एक ही लपेट में लेकर उन पर आरोप लगाना सही नहीं है कि 100% लोग इस प्रकार के हैं”
    बिल्कुल सही बात कही जी आपने
    और कम से कम 80/20 का हिसाब तो हम सबके अन्दर भी होगा।
    प्रणाम करता हूं जी

  13. असल में जिन प्रोफेशन्स के मेल में जनता बारम्बार आती है, उनके बारे में एक्स्ट्रीम रियेक्शन देती है – मसलन टीटीई, वकील, म्यूनिसिपालटी या आरटीओ का बाबू/अफसर आदि।

  14. बिलकुल सही समय पर सही वक्तव्य दिया है आप ने , इस परकार की sooch ही हमारे समाज को सार्थक दिशा पर्दान कर सकती है

  15. Khub kaha shastriji ne; Nishantji(hindiZen) yadi aap ise pad rahe hon to me bataladu ki, engineer aur manager ke pesho ka chhidranveshan na karne ka anurodh aapse maine inhi karano ki vajah se kiya tha. Burai karane baithege to burai shayad aap bhagvaan mai bhi khoj denge!!!!

  16. पर मेरे विचार में बुराईयों की खोज बंद नहीं होनी चाहिए
    उसी में सुधार की राहें मिलती हैं
    बुराईयों को बंद करने के लिए
    उनको सबको बतलाना बहुत जरूरी है।

  17. Sahi ka Mahanumbhav aapne. Kuchh log jo dushron ko bura kahte hai unko yaad rakhna chahiye ki “Bura jo dhundhan main chala, bura na miliya koy, Jo dil dhundha aapna mujhse bura na koy.”

  18. अधिवक्ता एक आईने की तरह होता है आप उसके सामने जिस रूप में होते है आप को वैसा ही दिखाई देता है और वैसी ही अनुभूति होती है अच्छाई और बुराई तो समाज के हर वर्ग में है पेशे में है एक या दो दृष्टान्त से नियम नहीं बनाया जा सकता

  19. ek dam sahi hai sir
    lekin kuch main bhi kahna chata hoon ki
    sabhi log ek saman nahi hote.
    jo aadmi aapke liye bura hai ho skata hai wo mere liye achcha hai.
    sabhi vakil bure nahi hote

  20. आप तो हिन्दी चिट्ठाजगत से गायब ही हो गए हैं। सप्ताह में एक बार भी आप की उपस्थिति हो जाए तो अच्छा हो। पूर्व में यह आलेख मैं पढ़ न सका था। आज एक मित्र ने इस की लिंक भेजी है। वैसे अविनाश जी का अपना अनुभव इस आलेख में बोल रहा है। हो सकता है तब तक वे किसी अच्छे वकील से न मिल सके हों। वैसे भी वकीलों के पास सब समस्याओं का हल नहीं होता। वह भी तब जब हमारी न्याय व्यवस्था आवश्यकता की 20% से भी कम आकार में संकुचित हो चुकी हो।

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