प्रजातंत्र अपने आप में एक अच्छी चीज है लेकिन जहां विभिन्न राजनीतिक पार्टियां सीटों के लिये लडती हैं तो उनको तुष्टीकरण की गंदी नीति अपनानी पडती है.
दर असल नायक को एक जज के समान होना चाहिये जो दूध का दूध और पानी का पानी कर दे, लेकिन जो वोटों के आधार पर उन्नत स्थान पर पहुंचता है वह ऐसा नहीं कर पाता. जो दूध को पानी बोलता है, और जो पानी को दूध बोलता है उसकी हां में हां न मिलाओ तो वोट नहीं मिल पाते. आज भारत की हर राजनीतिक पार्टी की दुर्दश का कारण, जहां वह सहीगलत क्या है यह जानते हुए भी सत्य के लिये कार्य नहीं कर पा रही है, यह वोटों की राजनीति ही है. यदि समय रहते इसका इलाज न हुआ तो देश की बहुत दुर्दशा होने वाली है.
तुष्टीकरण की राजनीति का एक अच्छा उदाहरण आज यूरोप से मेरी नजर में आया. हिटलर ने लगभग एक से दो करोड के बीच यहूदियों की हत्या करवाई थी. दुनियाँ भर के इतिहास की पुस्तकों में यह बात रेखांकित है. लेकिन वर्तमान यूरोप में मुस्लिमों की संख्या बढी तो उन लोगों ने मांग की कि यहूदियों का नाम लेना उनके लिये घृणित है और इस इतिहास को मिटा दिया जाये. वोटों की राजनीति से डर कर कई यूरोपिय प्रकाशकों ने एवं विद्यालयों ने इस विषय की चर्चा पूरी तरह से अपनी पुस्तकों से मिटा दिया है. एक ओर दो करोड लोग क्रूरता से मटियामेट कर दिये गये, पर दूसरी ओर वोटों की राजनीति के कारण विषय को ही छुपाया जा रहा है.
इस बीच इन नई पुस्तकों के एक विक्रेता अमेजोन को यहूदियों ने कोर्ट में घसीट दिया है कि पुस्तक में असल जानकारी को छुपा कर यहूदियों के साथ अन्याय किया गया है.
सारथी पर सामान्यतया राजनैतिक विषयों पर आलेख नहीं छापे जाते. इस आलेख में भी राजनीति का नाम जरूर आया है लेकिन विषय राजनीति नहीं बल्कि देशप्रेम और देशभक्ति है. हर देशप्रेमी एवं देशभक्त को हिन्दुस्तान में ऐसा माहौल पैदा करने की कोशिश करनी चाहिये जिससे तुष्टीकरण की राजनीति खतम हो और राजभक्त (राष्ट्रभक्ति) लोगों के दिल में बसे. हम आप कई तरह से इस कार्य को कर सकते हैं. समस्या सिर्फ इच्छा की है.
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हिन्दुस्तानी रोग वहाँ भी पहुँच गया !
राजभक्ति या राष्ट्रभक्ति?
आप की सदिच्छा सफल हो।
सही है शास्त्री जी गड्डे हर तरफ है …. आभार
बीमारी का इलाज करने के लिए दवा के रूप में पैदा किया गया आरक्षण क्या आज तुष्टिकरण नहीं हो गया है?
इसलिए तो इतिहास की पुस्तकों पर पूर्ण तौर पर विश्वास भी कर पाना मुश्किल होता है !!
दिनेशराय जी की बात काबिले गौर है। सबसे मूल तत्व है स्वार्थ जो प्रत्येक व्यक्ति के व्यवहार को निर्देशित करता है। बाकि सारे सिद्धान्त इसी की पूर्ति के लिए प्रयुक्त होते हैं या बदले जाते हैं।
तुष्टिकरण की राजनीती के तहत हम भी टिपिया देते हैं की आप बिलकुल सही कह रहे हैं.
“दर असल नायक को एक जज के समान होना चाहिये जो दूध का दूध और पानी का पानी कर दे…” अब तो जनता ढूंढ रही है कि दूध कहां है!!
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यही तुष्टिकरण तो अब नासूर बनते जा रहा है धीरे धीरे.
रामराम.
तुष्टिकरण की निति के कारण ही देश बारूद के ढेर पर छिपा ज्वालामुखी प्रतीत होता है ..!! जाने कब फट जाये !!
इस देश में कुछ भी नहीं हो सकता. स्वार्थ की पट्टी को आंखों पर इस प्रकार चढ़ा दिया गया है कि अब स्वार्थ के अतिरिक्त कुछ और नजर नहीं आता. यह वही देश है जिसमें दधीचि ने अपनी हड्डियां तक राष्ट्र के लिये समर्पित कर दी थीं. जिस देश में शिक्षा नहीं दी जाती वहां और क्या होगा.
आप सही कह रहे हैं।
bilkul sahi kaha aapane yahee to vidambana hai ki isakaa koi hal bhi nazar nahin aataa