यह लेख कई दिन से मन में चक्कर काट रहा था, लेकिन दो कारणों से इसे आज ही लिखने का इरादा बन गया. पहला कारण है इस हफ्ते के नाबेल प्राईज. दूसरा कारण है अनुनाद जी की एक सूचना कि दुनियां के 100 सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में एक भी भारतीय विश्वविद्यालय नहीं है.
भारतीय उच्च शिक्षा से मेरा पाला 1970 से आज तक चलता आया है. कम से कम अमरीका, कनाडा, हालेंड आदि की उच्च शिक्षा से भी कम से कम 20 सालों से पाला पडता आया है. पिछले पांच साल से अमरीका की एक संस्था के कुलाधिपति के रूप में भी काम कर रहा हूँ. मेरी अपनी संस्था इस समय दुनियां के 140 से अधिक देशों के विद्यार्थीयों को ट्रेनिंग दे रही है.
इन सब के आधार पर मन में अकसर खुंदक होती रहती है कि हम ने नौकरशाही और सिप्पा-चमचागीरी-जुगाड के चक्कर में भारतीय उच्च शिक्षा व्यवस्था को इस तरह से तहस नहस कर दिया है कि अब अच्छे से अच्छा विद्वान भी इसे शायद सुधार नहीं सकता है.
शालेय शिक्षा व्यवस्था को तो निजी अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों ने घेर रखा है जहां सोचने की शक्ति को बचपन में ही छीन लिया जाता है और बच्चों को नम्बर-कमाऊ मशीन बना दिया जाता है. बच्चा अपनी सोच विकसित करे तो नम्बर धरे रह जाते हैं, और नम्बर कमाने का जुगाड करे तो तार्किक सोच कुन्द हो जाती है.
हमें कुछ मसीहाओं की जरूरत है जो एक नही सोच, नही प्रणाली ला सके. इसके पहले शिक्षा व्यवस्था की मूलभूत खामियां क्या है यह जानना जरूरी है जो अगले एक दो आलेखों में मैं आपके समक्ष रखूँगा.
चित्र: एक करोड रुपये कीमत की यह स्केनिंगटनलिंग माईक्रोस्कोप लगभग 5 साल पहले जब एक संस्था को मिली तो वहां अधिकतर अध्यापकों को एक करोड रुपये के इस सफेद हाथी और संडास में लगे फ्लश-टेंक के बीच का अंतर नहीं मालूम था.
आप से सहमत हूँ। भारतीय शिक्षा प्रणाली को आमूल परिवर्तन की आवश्यकता है.
प्राचीन काल में शिक्षा के केन्द्र रहे भारत का एक भी विश्वविद्यालय आज दुनियां के 100 सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में नहीं आ रहा है .. जानकर बहुत तकलीफ हुई .. ‘नही सोच, नही प्रणाली’ की जगह शायद ‘नई सोंच नई प्रणाली’ होनी चाहिए .. कृपया सुधार कर लें .. वैसे बहुत सही लिखा है आपने !!
आपके अनुभवों को पढ़ने के लिये बेताब हैं…। भारत की शिक्षा व्यवस्था आज भी चौराहे पर पड़ी कुतिया के समान ही है, जिसे हर आने-जाने वाला एक लात जमा देता है…
सब से पहले तो अनुनाद जी की बात से सहमत हुं, कारण मेरे लडके ने दो साल के बाद विश्वविद्यालय जाना है, ओर उस की कोशिश है कि किसी बहुत बडे विश्वविद्यालय मै जाये ओर स्कालर सिप ले कर, (मेने अपने बच्चो को कभी भी जोर नही दिया पढाई के लिये)इस बार मेने बच्चो को कहा कि तुम भारत जा कर क्यो नही पढते ? तो मेरे लडके ने सारे विश्वविद्यालयओ की लिस्ट निकाल कर मुझे दे दी…..दुसरा कारण यहा भारत की डिगरी नही चलती, कारण भी साफ़ है पहले भारत की पढाई की बहुत इज्जत होती थी, लेकिन आज आप ने भारत डिगरी लेनी है तो पेसा खरच करो ओर लेलो…. हालात बहुत खराब है, विद्वान एक तरफ़ खडे है… ओर चोर उचाके डिगरी ले कर मजे कर रहे है…लेकिन यह अभी १० एक सालो से ही हुया है. गुंडा गरदी नहि तो फ़िर यह क्या है
आप की बातो से ओर अन्य टिपण्णीयो से सहमत हुं
ताऊ लोग आजकल बहुत उधम मचा रहे हैं.आपका सोचना यथार्थ से साक्षात्कार है. आपकी यह तस्वीर पहले भी कहीं देखी है.
आपका कहना बिलकुल सही है, भारतीय मूल के वैज्ञानिकों पर भारत को गर्व करने का कोई हक नहीं है. ये वैज्ञानिक भारत का नाम तक लेना पसंद नहीं करते यहाँ न इनकी प्रतिभा का कोई कद्रदान था न मौके थे. उन्होंने यह सब उपलब्धियां विदेशी शिक्षा, विदेशी नौकरी, विदेशी फंड्स, विदेशी लैबोरेट्रीज, विदेशी सहयोगियों की मदद से प्राप्त की हैं. और आज तक भारत को उनकी कोई सुध नहीं थी, आज नोबेल मिल गया तो एकदम से अपना हो गया!
पढाई के नाम पर हम केवल आईआईटी आईआईएम् गाते फिरते हैं, जिनका दुनिया के चोटी के सौ इंस्टीट्यूट्स में भी नाम नहीं आ पाता. इनका प्रबंधन और इंजीनियरिंग के क्षेत्र में शायद कोई मौलिक योगदान नहीं है. हम दुनिया को रिसर्चर नहीं देते बल्कि कुशल कर्मचारी देते हैं.
ये वैज्ञानिक अन्दर तक भरे हुए हैं, आप किसी नासा या बेल लैब्स के बड़े भारतीय वैज्ञानिक से पूछ कर देख लीजिये की वे आज भारत में होते तो क्या अच्छा नहीं होता? यकीन मानिये वह सिहर उठेगा इस कल्पना से.
भारतीयों को तभी गर्व होना चाहिए जब भारत में जन्मा, भारत में पढ़ा वैज्ञानिक भारत में ही शोध करते हुए ऐसी उपलब्धियां पाए.
बढ़िया! शिक्षा व्यवस्था पर लिखा जाना चाहिये। वैसे मुझे लगता है कि जनता शिक्षा की बजाय येन-केन-प्रकरेण डिग्री चाहती है!
सही कहा आपने कि शिक्षा में मूलभूत परिवर्तन लाने की बहुत ही ज़्यादा ज़रूरत है।
आप भारतीय शिक्षा प्रणाली की बात करते हैं सर हम तो पूरे भारत के बदलाव के फ़ेर में हैं। काश ये सम्भव होता। आपने वाजिब कहा।