भारत की चिंतन परंपरा न केवल अतिप्राचीन है बल्कि अति व्यापक भी है. फलस्वरूप भारतीय मनीषी लोगों ने अपनी तर्कशीलता के आधार पर जो ज्ञान प्रात किया और जिसे लिखित रूप में भावी पीढियों को दिया उसके तुल्य कोई कार्य दुनियां के किसी देश में नही हुआ है.
राजाश्रय में या जनसाधारण की मदद से चलने वाले स्वतंत्र आश्रमों में चिंतकों, कलाकारों, शिल्पी आदि को मुक्त चिंतन और रचना के लिये हर तरह की आजादी थी. फलस्वरूप जो लाखों हस्तलिखित ग्रंथ लिखे गये, जो लाखों मूर्तियां उकेरी गईं, जो दैत्याकार वास्तुशिल्प निर्मित हुए उनका जोड दुनियां में कहीं नहीं मिलता है.
स्वतंत्र चिंतन, तार्किक विश्लेषण, शास्त्रार्थ के प्रति समर्पण आदि ऐसी चीजें हैं जो लोगों को चिंतक बनाते हैं. लेकिन हमारी शालेय शिक्षा व्यवस्था, महाविद्यालयीन व्यवस्था, अनुसंधान आदि में मौलिक चिंतन के बदले लकीर के फकीर बनने पर ही विद्यार्थी पास हो पाता है. उदाहरण के लिये जब मैं एमएससी में पढ रहा था तो मेरे सारे साथी इस बात को मानते थे कि उन सब की तुलना में मैं विषय को बेहतर समझता हूँ और बेहतर तरीके से समझाता हूँ. लेकिन वे खुद कहते थे कि परीक्षा व्यवस्था ऐसी है कि मुझ जैसे विषय को समझने वाले की तुलना में रट्टा लगाने वाले को अधिक नंबर मिलते हैं.
इसका उदाहरण एमएससी पूर्वार्ध में ही हम को मिल गया. मेरा एक सहपाठी इलेक्ट्रानिक्स के मेरे नोट्स माग ले जाता था, नकल उतार लेता था, और जबर्दस्त रट्टा लगाता था. विषय की समझ उसे बिल्कुल नहीं थी, लेकिन जब परिणाम आया तो उसे मुझ से अधिक नंबर मिले. हर कोई दंग रह गया क्योंकि उसे विषय का क ख ग तक का ज्ञान नहीं था.
मेरे इलेक्ट्रानिक्स के नोट्स उस विश्वविद्यालय में लगभग 25 साल तक चलते रहे, कई अध्यापक भी उसी की मदद से पढाते रहे क्योंकि वे उस विषय की पुस्तकों से भी बेहतर थे. लेकिन परीक्षा में विषय का ज्ञानी धरा रह गया और रट्टू आगे निकल गया. घोडे के लिये हमारी शिक्षा व्यवस्था में कम स्थान है, लेकिन जिस दिन आप रट्टू खच्चर बन जायेंगे उस दिन आप नंबरों के मामले में बहुत आगे निकल जायेंगे.
बहुत ही सटीक बात कही है आपने। हमारी शिक्षा व्यवस्था मे परिवर्तन की बहुत आवश्यकता है।
अजय कुमार झा
राजाश्रय में या जनसाधारण की मदद से चलने वाले स्वतंत्र आश्रमों में चिंतकों, कलाकारों, शिल्पी आदि को मुक्त चिंतन और रचना के लिये हर तरह की आजादी थी. फलस्वरूप जो लाखों हस्तलिखित ग्रंथ लिखे गये, जो लाखों मूर्तियां उकेरी गईं, जो दैत्याकार वास्तुशिल्प निर्मित हुए उनका जोड दुनियां में कहीं नहीं मिलता है.
और आज सिर्फ चिंतन से पेट नहीं भरता .. सबों के समक्ष अपना और अपने परिवार के पेट पालने की चिंता हैं .. मुक्त और मौलिक चिंतन कहां से हों ?
झिलमिलाते दीपो की आभा से प्रकाशित , ये दीपावली आप सभी के घर में धन धान्य सुख समृद्धि और इश्वर के अनंत आर्शीवाद लेकर आये. इसी कामना के साथ॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰॰ दीपावली की हार्दिक शुभकामनाए..”
regards
इस दुर्व्यवस्था का थोड़ा सा शिकार मैं भी हुआ हूं शास्त्री जी. पर क्या किया जा सकता है. फूलप्रूफ व्यवस्था तो नहीं है न!
इस व्यवस्था को ज्यादा भाव देना बेकार!
you are saying right beacause its need there