मेरे चिट्ठामित्र सुरेश चिपलूनकर ने अपने आलेख भारत में ईसाई-मुस्लिम संघर्ष की शुरुआत केरल से होगी… Christian Muslim Ratio and Dominance in Kerala में केरल में भयानक संघर्ष का भय जताया है. मैं टिप्पणी द्वारा उस आलेख की गलती बताने लगा तो मुझे लगा कि एक छोटी सी टिप्पणी से काम नहीं चलेगा बल्कि एकदो पूरा आलेख ही चाहिये. अत: सुरेश को दिये गये अपने वचन के अनुसार मेरा आलेख प्रस्तुत है!!
सुरेश केरल में जिस भयानक संघर्ष का जो अनुमान लगा रहे हैं वह दोतीन गलतफहमियों पर आधारित है. पहली गलतफहमी यह है कि केरल में सिर्फ 10% हिन्दू हैं और यह भी कि वे 10% लोग स्वाभिमान के साथ कह नहीं पाते के वे हिन्दू हैं. ये दोनों बातें गलत है. केरल में लगभग 60% जनता हिन्दू हैं, और केरल का औसत हिन्दू काफी स्वाभिमानी होता है.
उनकी दूसरी गलतफमी यह है कि केरल का धार्मिक वातावरण उत्तर के वैमनस्य भरे सांप्रदायिक वातावरण के समान है. दर असल केरल के धार्मिक वातावरण और उत्तर के वातावारण में जमीन आसमान का फरक है क्योंकि केरल हिन्दुस्तान के सबसे अधिक सहिष्णू प्रदेशों में से एक है. सहअस्तित्व लोगों की नस नस में है. इसके कुछ उदाहरण दूँ:
दक्षिण केरल में सैकडों साल तक कई हिन्दू मंदिरों के “भंडारी” अनिवार्यतया ईसाई लोग होते थी. (इसका एतिहासिक कारण शायद पी एन सुब्रमनियन जी या बालसुब्रमण्यम लक्ष्मीनारायण जी बता सकें क्योंकि केरल के इतिहास पर उनकी पकड मेरी पकड से अधिक है). इसका सबसे अच्छा उदाहरण है मेरे परदादा जी. हमारा परिवार 2000 साल से ईसाई हैं और मेरे परदादा जी घोर ईसाई थे लेकिन एक हिन्दू मंदिर के भंडारी भी थे. मंदिर के उपयोग में लाई जाने वाली कई वस्तुएं, खासकर तेल, पहले उन से स्पर्श करवाया जाता था और फिर उसे उपयोग में लाया जाता था. उनकी अगली पीढी से हम सब के नाम के साथ इस मंदिर का नाम भी जुड गया और मेरे नाम में जो “सी” आपको दिखता है वह उस मंदिर के नाम पर पडा है और पूरा नाम है “चेरुवेल्लेत्तु”.
केरल की धार्मिक सहिष्णुता का सबसे अर्वाचीन उदाहरण जरा ले लें. मैं त्रिक्काक्करा मंदिर से 1500 फीट दूर रहता हूँ. वामन अवतार को समर्पित इस मंदिर में एक प्लेटफार्म है जहां कहा जाता है कि वामन अवतार ने महाबली को पाताल भेजा था. केरलवालों का महाउत्सव ओणम इसी अवतार और इसी मंदिर से जुडा हुआ है और हर ओणम के समय यहां हर दिन लाखों रुपया खर्च करके भंडारा किया जाता है. इस कार्य के लिये ओणम से दो हफ्ते पहले दान एकत्रित किया जाता है. मंदिर के आसापास के निवासी (जिन में ईसाई और मुस्लिम परिवार बहुत अधिक हैं) उत्साह से दान देते हैं और दानराशि काफी बडी होती है.
दिलचस्प बात यह है कि पिछले एक दशक से अधिक समय से पहली राशि के लिये मंदिर के अधिकारी लोग मेरे घर आते हैं. उनका कहना है कि यदि पहला दान मेरे हाथ से मंदिर पहुँचे तो उस साल काफी दान मिल जाता है. केरल की धार्मिक स्नेह और सहिष्णुता की एक मिसाल है यह.
आप शायद कहेंगे के केरल के हिन्दू और केरल के मंदिर शायद ढीलेढाले होंगे. बात बिल्कुल उल्टी है. केरल के अधिकतर मंदिर अभी भी हिन्दू धर्म और कर्मकांड को उसके मूल रूप में बनाये हुए हैं. किसी भी बात में ढीलढाल नहीं है. कडाई इतनी है कि अभी भी (जी हां, 21वीं शताब्दी में भी) गैर हिन्दू इन मंदिरों में प्रवेश नहीं कर सकते. हमारे घर के बगल के इस मंदिर के लिये उत्सव के समय हम रात को रास्ते की रो़शनी के लिये मुफ्त बिजली देते हैं, ओणम के समय पहला दान मुझ जैसे गैर हिन्दू का होता है, मंदिर आनेजाने वालों के साथ भोर से रात तक दुआ सलाम होती है, घरों में आपस में आनाजाना और खानापीना चलता है, लेकिन इन सब बातों के बावजूद मेरे घर से 1500 फुट दूर इस मंदिर में मेरा प्रवेश वर्जित है. एक ओर धार्मिक कट्टरता है, लेकिन दूसरी ओर सहिष्णुता है, जिसके कारण वे मेरा सहयोग खुले तौर पर वे मांगते हैं और उनको मिलता है.
मैं क्या कहना चाहता हूँ — यह कि हिन्दू धर्म को उसके शुद्ध स्वरूप में बनाये रखने के लिये केरल के हिन्दूओं ने बहुत अधिक योगदान दिया है. लेकिन अन्य प्रदेशों में हिन्दुओं और मुस्लीमों/ईसाईयों में जो खटपट दिखती है वह यहां नगण्य है. यहँ धर्म धर्म है, संबंध संबंध है, और वे एक दूसरे को प्रभावित नहीं करते हैं.
केरल के प्रसिद्ध अय्यप्पन तीर्थ के लिये जाते समय भक्तगण पहले एक मुस्लिम अवतार को प्रणाम करते हैं और फिर अय्यप्पन के दर्शन को जाते हैं. ऐसे प्रदेश के लिये सुरेश जैसे देशप्रेमी का आलेख अतिशयोक्ति से भरा हुआ है. उन्हें अभी कुछ और घूमफिर कर देशदर्शन की जरूरत है. शायद कभी वे केरल पधारेंगे और मेरे साथ रहेंगे तो इस बात को समझ जायेंगे कि यहां हिन्दू, ईसाई, मुल्लिम सभी धर्म के मामले में कट्टर हैं, लेकिन आपसी संबंधों के मामले में उदार और सहिष्णु हैं. अत: उन्होंने केरल में जिस सांप्रदायिक घमासान की संभावना बताई है उसमे थोडी सी अतिशयोक्ति आ गई है. [क्रमश:]
काश ! ऐसी सहिष्णुता राष्ट्रव्यापी हो जाये…
keral kai baar gaya hu aur vaisa hi anubhav hua jaisa aapne likha hai mere dost ka vaha bada vyapaar hai aur ve up se jyada surkchhit mahsus karte hai .
आदरणीय शास्त्री जी,
आपकी लेखमाला जारी रहे… फ़िर मैं अपनी बात रखूंगा… धन्यवाद…
पढ़ रहे हैं अगली कड़ी का इंतजार है, अब तो शायद केरल जाकर ही देखना पड़ेगी ये सहिष्णुता तो । ओर वाकई ऐसा है तो इससे बड़्कर खुशी की कोई बात ही नहीं है।
धार्मिक सहिष्णुता तो पूरे देश में है। देश का कोई कोना उस से रिक्त नहीं है। धार्मिक कर्मकांडों की कट्टरता से वह प्रभावित भी नही होती। क्यों कि मंदिर में हिन्दुओं को, मस्जिद में मुसलमानों को और चर्चों में ईसाइयों को अपनी अपनी पद्यतियों को अपनाने की पूरी स्वतंत्रता है और होनी चाहिए क्यों कि वह धार्मिक समूहों की स्वतंत्रता है जिस की संविधान और हमारे देश का मूल चरित्र दोनों ही स्वीकृति देते हैं। भारत में यदि यह स्वतंत्रता न होती तो अब तक देश में संस्कृति के भिन्न रूप अर्थात हिन्दुओँ के ही अनेक संप्रदाय शैव, वैष्णव, देवी आदि. जैन, बौद्ध और सिख एक साथ नहीं रह सकते थे। इस में भारतीय संस्कृति का मूल तत्व प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मान्यताओँ के धर्म को अपनाने की आजादी और दूसरे की मान्यताओं के लिए सम्मान सम्मिलित है।
हाँ, इस मूल प्रवृत्ति के अतिरिक्त बहुत से लोग हमेशा ही समाज में वर्चस्व यहाँ तक कि राजकीय वर्चस्व प्राप्त करने के लिए इस सहिष्णुता के विरुद्ध काम करते रहे हैं। राजा लोग धार्मिक रुप से जनता और सैनिकों को उत्तेजित कर अपना काम बनाते रहे हैं। लेकिन इतिहास ने उन्हें निकृष्ठ ही कहा है। आज भी राजनैतिक दल इस सहिष्णुता को यदा कदा घात बहुंचाते रहते हैं जिस में कांग्रेस और भाजपा जैसे कथित बड़े दल भी सम्मिलित हैं। कुछ दलों ने तो इस वैमनस्य को आघात पहुँचाना अपनी रणनीति का प्रधान तत्व बना लिया है। जहाँ धार्मिक सहिष्णुता जनता की थाती है वहीं वैमनस्यता का प्रचार विभेदक राजनीति जो जनता के हितों के विपरीत है। लेकिन राजनीति के लिए वह जरूरी है क्यों कि जब राजनैतिक दल अपने कार्यकलापों से जनता को संतुष्ट नहीं रख पाते हैं तो उन के पास जनता को विभाजित करने के अलावा जीवित रहने का और कोई मार्ग शेष ही नहीं रहता। वस्तुतः वे लाचार हैं।
केरल सदियों से सभी विदेशी धर्मों का पनाहगार रहा है. वहां की सहिष्णुता अतुलनीय है. इसका अनुभव वहां कुछ समय बिताने पर ही किया जा सकता है. पूरे देश की तुलना में वहां धार्मिक उन्माद के कारण हुए दंगे नगण्य हैं.हमारी कामना है की वहां साम्प्रदायिक घमासान की स्थिति निर्मित न हो.
आपकी बातों से सहमत हूं । केरल वासियों के साथ मेरे अनुभव भी इसी बात की पुष्टि करते हैं ।
धार्मिक सहिष्णुता तो पूरे देश में है, समस्या तब आती है जब इसी के नाम पर देश को नुकसान पहुँचाने वाले तत्वों को संरक्षण व प्रोत्साहन दिया जाता है. विरोध करने वालों को कट्टरपंथी हिन्दु कहा जाता है.
आपका परिवार 2000 साल से ईसाई है. भारत में ईसाई धर्म कब से है? इस पर भी रोशनी डालें.
वाह जी खूब लिखा, आपकी लेखनी से ही लग रहा है के प्रेम की तलवार बढिया चल रही है, वही शिक्षा कोई एक गाल पर मारे दूसरा आगे कर दो, हमें तो यह जानकर खुशी हुई कि केरल से संघर्ष नहीं होगा, अब कहां से संघर्ष शुरू करवायेगे फसादी भाई? यह हमारे दंगा अभिलाषी बतायेंगे,
आदरणीय शास्त्री जी ,
आपने केरल के धार्मिक संघर्ष की जो सही तस्वीर दिखाई है , उसके लिए में आपका शुक्रगुजार हूँ , दरसल राजनीतिक कारणों से लोग गलत प्रचार करते हैं , जिसका असर आम जनता पर पड़ता है , अब जरूरत है उन राजनीतिज्ञों को रास्ता दिखाने की , अब जरूरत है सही लोगों के जागने की. और उन राजनीतिज्ञों को बताने की अब सुधर जाओ वर्ना गंभीर परिणाम भुगतने के लिए तैयार हो जाओ .
आदरणीय शास्त्री जे सी फिलिप जी आपने भी सहिष्णुता की अतिशयोक्ति दिखाई है | मेरे भी कई मित्र केरल से हैं और सहिस्नुता के साथ साथ … असहिस्नुता की चर्चा भी करते हैं |
आपके द्वारा दी गई जानकारी पढ़कर बहुत अच्छा लगा। काश संपूर्ण भारत में ऐसा माहौल होता.
आपका परिवार 2000 साल से ईसाई कैसे है? भारत में ईसाई धर्म का प्रवेश तो बहुत बाद में हुआ. आपके पूर्वज ईसा के महज 9-10 साल बाद ईसाई कैसे हो गए!
बढ़िया जानकारी दी है आपने | आगे के लेखों का भी इन्तजार रहेगा | केरल के बारे में ज्यादा तो नहीं जानते पर फरीदाबाद में बहुत सारे केरल वासी रहते है जिनसे भी मिलना हुआ अभी तक सभी लोग अच्छे ही लगे चाहे वे किसी भी धर्म के ही रहे हों हाँ सहिष्णुता उनमे कूट कूट कर भरी देखि जा सकती है |
प्रिय शास्त्री जी,
आपके विचार जानकर अत्यंत खुशी हुई, काश हम सभी इतने सुलझे हुए एवं परिपक्व समाज मे मानवता पूर्वक रह पाते.
आपका लेख एक सुलझे हुए परिपक्व समाज के निर्माण में एक सार्थक कदम है.
प्रिय शास्त्री जी,
आपके विचार जानकर अत्यंत खुशी हुई, काश हम सभी इतने सुलझे हुए एवं परिपक्व समाज मे मानवता पूर्वक रह पाते.
आपका लेख एक सुलझे हुए परिपक्व समाज के निर्माण में एक सार्थक कदम है.
जन-सामान्य तो स्वभाव से ही सहिष्णु होते हैं। पर वे लोग क्या करें जिनका धन्धा ही नफ़रत फैलाना है। उन्हें भी तो अपनी दुकान चलानी है।विद्वेष-पूर्ण दुष्प्रचार का संयत और सटीक जवाब देने के लिये साधुवाद।
हिन्दू धर्म को उसके शुद्ध स्वरूप में बनाये रखने के लिये केरल के हिन्दूओं ने बहुत अधिक योगदान दिया है. लेकिन अन्य प्रदेशों में हिन्दुओं और मुस्लीमों/ईसाईयों में जो खटपट दिखती है वह यहां नगण्य है. यहँ धर्म धर्म है, संबंध संबंध है, और वे एक दूसरे को प्रभावित नहीं करते हैं.
धीरे-धीरे यही समझ राष्ट्रव्यापी होगी. शायद अब तक कब की हो गई होती, अगर धर्म के झंडाबरदार और धर्मनिरपेक्ष नेता लोग टांग न अड़ाते रहते तो…..
Hindu to sare desh me muslim peer faqiro aur Isha ka bhi samman karta par kya keral me Issai aur Muslim bhi hindu devi devtao ka samman karte hai. Kripya Jabab dijiyega Sarthi Ji
इस लेख के बाद एक महीने में आप लव जिहाद को सच मानने लगे। यह संघर्ष नहीं तो और क्या है। अब एक साल होने को आया और पीएफ़आई की खौफ़नाक ख़बरों को देख रहे हैं। पादरी पर जानलेवा हमला हो गया। मेरी जिन हिन्दुओं से बात हुई है उनके मुताबिक़ केरल में भारी मात्रा में विदेशी धन आ रहा है और कई मुस्लिम बैठे-धाले लखपति बन गए। आज एक रिपोर्ट आई जिसमें बताया गया है कि नक्सलियों को ट्रेनिंग भी दी जाने लगी है।
यह सब पढ़े लिखे राज्य में ही तो हो रहा है।
इतना ही क्यों.. मुख्यमंत्री वीएस अच्युतानंदन का ताज़ा बयान चौंकाने वाला है जिसमे उन्होंने कहा है कि पीएफ़आई का लक्ष्य अगले बीस सालों में केरल को मुस्लिम बहुल राज्य बना देना है।