कल दोपहर को एक भिखारी आया जिसे मैं ने दो रुपये दिये. उसने झुक कर ऐसा प्रणाम किया जैसे मैं ने सारी दुनियां उसकी झोली में डाल दी हो. भीख को अपना हक मानने के बदले उसे एक एहसान मानने वाले भिखारियों को मैं काफी उत्सुकता से देखा करता हूँ. कल भी ऐसा ही हुआ.
खिडकी से देखा तो वह तो फाटक के बाहर बैठ पैसा गिनता दिखा. पास जाकर देखा तो कम से कम सौ दोसौ रुपये का अनुमान बैठा. मैं चूँकि सिक्कों का शौकीन हूँ, और चूँकि लोग घर मे इधरउधर पडे पुराने सिक्के भिखारियों को दे देते हैं अत: उन सिक्कों की विविधता को सोच कर मैं ने पूछा कि सिक्कों के बदले नोट दे दूँ तो उस ने मना कर दिया.
कारण पूछा तो बोला कि (मेरे घर से लगभग 10 किलोमीटर दूर) एक होटल वाला उससे सारे खुले पैसे लेकर नोट दे देता है और हर 100 रुपये पर उसे एक खाना मुफ्त देता है. मुझे एकदम लगा कि दोनों ही लोग अकलमंद हैं. एक आदमी जिसके पास न आगे कुछ है न पीछे उसे 10 किलोमीटर चलने में कोई तकलीफ नहीं है. भिक्षाटन भी हो जाता है, 10 किलोमीटर की कवायद से शरीर को भी फायदा होता है. अंत में 21 रुपये का खाना मुफ्त मिल जाता है, कमाये पैसे उसकी अंटी में सुरक्षित रह जाते हैं.
होटल वाला भी अकलमंद है क्योंकि बैंक का चक्कर लगाये बिना उसे इतने खुले पैसे मिल जाते हैं कि एक चाय पीने के बाद कोई ग्राहक बीस का नोट दे दे तो भी बिन झुंझलाये उसे बाकी पैसे दे सकता है. किसी होटल में दोचार भिखारियों को दोपहर का खाना खिला देने से उनको कोई अतिरिक्त खर्चा नहीं बैठता है, खासकर जब भिखारी को खाना सिर्फ आखिर में दिया जाता है.
काश हम में से हरेक अपने जीवन की समस्याओं को इतने व्यावहारिक तरीके से सुलझा पाता!!
यही तो है भारतीय अर्थशास्त्र, जिसे आज के नियोजनकर्ता रद्दी में डाले दे रहे हैं.
प्रभावित किया आपके बताये इस किस्से ने
bahut achha va seedha saral tarika apni apni samasyao ko hal karne ka bataya va sikhaya aapke is lekh ne…….. vakai shikshaprad laga
बहुत बढ़िया रोचक किस्सा आपने सुनाया . ..आनंद आ गया . आभार.
शास्त्री जी सच तो सच ही होता है, परन्तु कितना कड़वा होता है यह वही जानता है जो इससे गुजरा है। किस्से में छुपा सच एक व्यंग्य के रूप में बाहर आया है।
घर में सभी कैसे हैं? बहुत समय से बात नही हो पाई। आपका स्वास्थ्य कैसा है।
रोचक पोस्ट! हम जिसे भिखारी समझते हैं, वो असल में गरीब नहीं होते 🙂
बहुत रोचक वाकया। भिखारी भी प्रबन्धन जानते हैं। 🙂
धन्यवाद।
वाकई, सही समस्या समाधान है दोनों का!!
महत्वपूर्ण यह है कि आप ने भीख को उद्योग माना।
प्रबंधन की यह सरल विधा से एक पुस्तक भी लिखवा सकती है ..!!
भिखारियों se
यह अटकी का सिद्धांत है जिस पर पूरी दुनिया चल रही है।
what an idea sir ji!!
रुचिकर किस्सा, बहुत सही तरीका भिड़ाया भिखारी ने।
Gurudev,
Aapke shabd me eisa shahad hai ki,bus padhte rahne ho hi maan karta hai. Lekin ke baat hai, lekh khatam hone par, saath bichhudne jaisa dukh hota.
aapke shabd me jo satya jalkta hai vo tarif se b pare hai.
aapke lekh me jo aanad hai uska vivran nahi ho sakta.