मेरे कल के आलेख एक झूठ जिसे हर कोई सच मानता है!! पर दिनेश जी ने टिपियाया:
यह कह कर नहीं टाला जा सकता कि विषमता इतनी अधिक नहीं थी। समाज में जब से संपत्ति का संचय आरंभ हुआ है तब से विषमता है। एक समय वह था जब दास हुआ करते थे। यह विषमता का उच्चतम शिखर था। दासों की उपस्थिति मोर्यकाल में भी दिखाई देती है और उस के बाद भी। दासों के उपरांत सामंत वाद आया। तो सामंतों की भूमि पर काम करने वाले बंधक किसान और सामंत दोनों में दास-स्वामी विषमता से अधिक थी लेकिन बंधक किसान की जीवन परिस्थितियाँ दास से बेहतर थीं। हालांकि दास की अपेक्षा किसान चार गुना अधिक सुविधा प्राप्त था तो स्वामी की अपेक्षा सामंत चालीस गुना अधिक सुविधा प्राप्त हो गया था। आज उजरती मंजदूर जिस में खेत मजदूर से ले कर कंस्ट्रक्शन के लिए बोझा ढोने वाला मजदूर और विज्ञानी तक शामिल हैं दास और किसान से दस गुना बेहतर जीवन जीता है लेकिन आज का पूंजीपति सामंतो की अपेक्षा सौ गुना नहीं हजार गुना अधिक संपत्तिवान है। इस तरह विषमता में वृद्धि हुई है। देश की संपत्ति भी उस के मुकाबले बहुत अधिक बढ़ी है। लेकिन यदि साम्राज्यवादी ताकतों ने भारत को न लूटा होता और अब भी नहीं लूट रही होतीं तो भारत आज न जाने कहाँ होता। साम्राज्यी लूट को खत्म करने और विषमता को न्यूनतम करने की आवश्यकता है उस के लिए तंत्र विकसित करना होगा। (दिनेशराय द्विवेदी)
यहां एक बात स्पष्ट करना जरूरी है: जहां भी किसी चीज को अर्जित की सुविधा दी जाती है, वहां कहीं भी हर व्यक्ति एक समान अर्जित नहीं कर पाता. अत: एक ही अध्यापक के पढाये विद्यार्थी जिस तरह पोजिशन से लेकर फेल होने तक के अंक अर्जित करते हैं, उसी तरह संपत्ति के अर्जित करने की स्थिति है. धनी एवं गरीब का अंतर हमेशा रहेगा. लेकिन यदि गरीब को अपने स्तर पर पर्याप्त रोटी, कपडा और मकान की सुविधा मिलती है तो उस समाज को बुरा नहीं कहा जा सकता है. आर्थिक स्थिति तब बुरी हो जाती है जब गरीब के पास अपनी मौलिक जरूरतों की आपूर्ति के लिये कोई रास्ता या साधन न बचे, जैसा आज करोडों भारतीयों के साथ हो रहा है.
प्राचीन भारत में धनीगरीब का अंतर जरूर था, लेकिन गरीब से गरीब व्यक्ति के पास अपनी मूलभूत जरूरतों की आपूर्ति के लिये जमीन, खेती, जंगल से प्राप्त सामग्री आदि उपलब्ध थे. जलाऊ लकडी की कोई कमी नहीं थी. बाजार या हाट में वह अन्न, उपज, या जंगल-जमीन से प्राप्त की हुई चीजों के विनिमय के द्वारा अपनी जरूरत की चीजें प्राप्त कर लेता था.
“दास” या “गुलाम” शब्द एकदम से अभागों का चित्र हमारे समक्ष लाता है. लेकिन यह न भूलें कि शोषित एवं बंधुआ दास या गुलाम एक अर्वाचीन प्रक्रिया है, प्राचीन नहीं. प्राचीन समाज में दास और गुलाम को पर्याप्त सुरक्षा मिल जाती थी. (अपवादों को छोडें क्योंकि अपवाद हमेशा संख्या में न्यून होते हैं).
प्राचीन केरल का उदाहरण लें तो यहां उपजाऊ भूमि इतनी प्रचुर थी कि हर किसी को अपने जरूरत की पूर्ति अवसर मिल जाता था. इतना ही नहीं, काली मिर्च, इलायची, अदरख, दालचीनी आदि की खेती आम थी और इनको विदेशी व्यापारी लोग हाथों हाथ खरीद ले जाते थे. काली मिर्च की खेती इतना आसान है कि कोई भी व्यक्ति अपने घरजमीन में बीसतीस बेल लगा सकता है, और आजीवन फल लेता रह सकता है. इससे इतनी आय होती थी कि कालीमिर्च को उस जमाने में काला-सोना कहा जाता था.
केरल में अरब, पुर्तगाली, डच और ब्रिटिश लोग सिर्फ इस काले-सोने के लिये आये थे और आपस में मारामारी करते थे. केरल की जनता के लिये जबकि कालीमिर्च एक आम चीज है, एवं खेती बहुत आसान है. 1300 ईस्वी से पहले सामंतवादी व्यवस्था लगभग न के बराबर थी.
कुल मिला कर कहा जाये तो हिन्दुस्तान वाकई में सोने की चिडिया थी जिसे लूटने के लिये दुनियां भर के लोग लालाईत रहते थे. दिनेश जी ने सही कहा है:
यदि साम्राज्यवादी ताकतों ने भारत को न लूटा होता और अब भी नहीं लूट रही होतीं तो भारत आज न जाने कहाँ होता।
प्राचीन भारत में धनीगरीब का अंतर जरूर था, लेकिन गरीब से गरीब व्यक्ति के पास अपनी मूलभूत जरूरतों की आपूर्ति के लिये जमीन, खेती, जंगल से प्राप्त सामग्री आदि उपलब्ध थे…
इसीलिए परेशानियों के बीच भी उनका जीवन सरल था …आज सुविधा संपन्न होने के बावजूद कठिन …!!
लेकिन यह न भूलें कि शोषित एवं बंधुआ दास या गुलाम एक अर्वाचीन प्रक्रिया है, प्राचीन नहीं. प्राचीन समाज में दास और गुलाम को पर्याप्त सुरक्षा मिल जाती थी. (अपवादों को छोडें क्योंकि अपवाद हमेशा संख्या में न्यून होते हैं).
एक बार फिर से बिल्कुल सहमत हूं आपसे .. जब लोग भौतिकता को महत्व देने लगे और संचय करने की प्रवृत्ति बढी .. तो वे कमजोरों को दास और गुलाम बनाने लगें !!
ज्यादा पढ़े लिखे होने में यही झमेला है कि हम पूंजी, श्रम, समानता, विषमता आदि शब्दों से खेलने लग जाते हैं।
मनुष्य समान बन नहीं सकता। पूंजी को आप समान बांट भी दें तो वह कालान्तर में पुन: वही असमान बंट जायेगी। अगर मुझे पूंजी की इज्जत करनी नहीं आती तो मैं जितना भी जोर लगाऊं – टाटा बिरला का क्लोन बन नहीं सकता।
हां, आप सकी कहते हैं कि प्राचीन भारत में जीवन सरल था, सो आर्थिक वैषम्य का दुष्प्रभाव नहीं था। हम अपनी जरूरतें कम कर लं तो आज भी मजे में रह सकते हैं।
आपकी बात से पुर्णतया सहमत.
रामराम.
हर समाज में संसाधनों के लोभ के चलते विषमताओं का होना जरूरी रहा है.
मैं यह जानना चाहता हूँ कि ‘दास’ शब्द और उससे जुड़ा हुआ शोषण (यदि कुछ है) पश्चिमी और अरबी ‘गुलामी’ या स्लेवरी के कितना पास था? कहीँ तिल और ताड़ की तुलना करके दोनो को बराबर दिखाने की कोशिश तो नहीं की जाती है?