पिछले दिनों महिलाओं के लिये आरक्षण के मुद्दे पर जिस तरह हमारे कई राजनीतिज्ञों ने हिंसा का प्रदर्शन किया उसे देख हम सब को समझ लेना चाहिये कि फिलहाल हम सुधरने वाले नहीं हैं। कारण यह है कि जब जनता-की-सरकार बनती है तब यदि आदर्शों से प्रेरित लोग सत्ता की कुर्सी नहीं सभालते तो फिर उनका हर निर्णय, हर चुनाव, स्वार्थ से प्रेरित होगा।
आजादी के शुरू के सालों में ऐसे लोग राजनीति में आये और सत्ता की कुर्सी पर बैठे जो आदर्शों से प्रेरित थे, आदर्शों के आधार पर सहीगलत का निर्णय करते थे, एवं उन बातों का समर्थन करते थे जो जनहित एवं देशहित मैं है। उनका अजेंडा ‘अगले’ चुनाव में जीतना नहीं, बल्कि ‘आज’ देश के लिये कुछ करना था। लेकिन 1960 आदि में ऐसे काफी सारे लोग राजनीति में ‘भरती’ हो गये हैं जिनका लक्ष्य देश की भलाई नहीं बल्कि सत्तासुख भोगना एवं मलाई को अपने लिये निकाल लेना है। बाकी सेपरेटा जनता के लिये छोड दिया जाता है। जनता नंगे भूखे रहे उनकी बला से।
इन लोगों ने बहुत जल्दी ही समझ लिया कि इसका एकमात्र तरीका है फूट डालो, राज करो। इस नीति का प्रयोग अंग्रेज लुटेरों ने 200 साल किया था, अब काले अंग्रेज इसी नीति का पालन कर रहे हैं। इस कारण भाषा, प्रदेश, धर्म, एवं इस तरह के नये नये आधार बना कर फूट डाली जा रही है। वर्ना इतिहास में किस ने कब सुना है कि देश की राजभाषा में शपथ लेने के कारण सत्ताधारियों ने साथी सत्ताधारियों को पीटा।
जब तक देश में एक नैतिक-धार्मिक नवीकरण नहीं आयगा तब तक फूट बढता रहेगा, मारकाट होती रहेगी, और जिस की लाठी उसका राज वाला हिसाब चलेगा। जो थोडे से आदर्शवादी सत्ता में है वे चाहें तो भी कुछ नहीं कर पायेंगे क्योंकि वे हमेशा अल्प संख्या में होंगे जब कि लुटेरे बहुमत में होंगे। बहुमत न हो तो भी वे ऐसा ऊधम और दंगाफसाद करेंगे कि जो लोग कुछ सकारात्मक करना चाहते हैं वे कान पकड कर अलग हो जायें कि कौन पडे इस पचडे में।
आज हिन्दी चिट्ठाजगत में जो हो रहा है वह भी सिर्फ इन राष्ट्रीय स्तर की घट्नाओं का एक छोटा सा चित्र मात्र है।
is sabke liye charitra kee giravat jimmewar hai jo kewal sahi shiksha se hee banta hai
इस बिगड़े तंत्र का जनतंत्र कभी नहीं सुधरेगा ….आभार
सामयिक चिंतन -यथा पिंडे तथा ब्रह्मांडे -मतलब जो बड़ी दुनिया में वही आभासी दुनिया में भी !
आदरणीय शास्त्रीजी,
नमस्कार। चिट्ठे पर आपकी फ़िर से सक्रियता देखकर मन प्रसन्न हुआ। लेकिन क्या नैतिकता और धार्मिक दोनो एक दूसरे के पूरक हैं? नैतिक होने के लिये धार्मिक होना कोई शर्त तो नहीं है?
आप की उपस्थिति हिन्दी चिट्ठाजगत के लिए आवश्यक है।
कब तक यूँ ही गायब रहियेगा?
लो जी हम युगों से नही सुधरे तो अब सुधर कर क्या कर लेंगे? हम तो कहता हुं कि हमें सुधरना भी नही चाहिये.
रामराम.
अब तो यह सब हमारे खून का हिस्सा हो गया है, आत्मा में बस गया है. अब कोई हैरानी नहीं होती.
जब तक देश में एक नैतिक-धार्मिक नवीकरण नहीं आयगा तब तक फूट बढता रहेगा
सब कुछ मात्र एक लाईंन में ही बयाँ कर दिया ।
दुनिया के न्यूनतम भेदों पर, अधिकतम वैमनस्य हुये हैं । मानव स्वभाव है । क्या कीजियेगा ?
मिथिलेश जी की टिप्पणी ही मेरी और से भी
प्रणाम
प्रणाम श्रीमान जी, बड़े दिनों के बाद आपसे मिलना हो पा रहा है. मैं यह कहना चाहता हूं कि ” न हम सुधरते हैं और न जग सुधरता है”, जिन लोगों पर इसकी जिम्मेदारी है, वे सब भ्रष्ट हैं. हर व्यक्ति पड़ोसी के यहां भगत सिंह पैदा होने की आशा रखता है, ऐसे में परिदृश्य बड़ा निराशाजनक है.
आजकल हर कोई यही कहते फिर रहा है. कोई खुद की बात नहीं करता.