मार्च के आखिरी हफ्ते का बडा इंतजार था, एक व्यक्ति से मिलने का जो अभी तक तो सिर्फ एक अमूर्त “नाम” था लेकिन जिसे मूर्त रूप में देखने की बडी कामना थी. इस घटना का एक पहलू …केरल में हुआ इक ब्लॉगर महामिलन ……(केरल यात्रा संस्मरण -८) में आ चुका है, लेकिन दूसरा पहलू विन्डोज ७ की तकनीकी समस्या के कारण अभी तक पेश नहीं कर पाया था. आज सुबह हिन्दीटंकण की समस्या हल हुई तो लगा अब इस “महामिलन” के बारे में लिखने का समय आ गया है.
दर असल डा अरविंद मिश्रा मेरे इष्ट चिट्ठाकारों में से एक हैं. उनका वैज्ञानिक लेख गजब का होता है, और मैं उनको नियमित रूप से पढता हूं. वैचारिक विषयों पर भी उनके आलेख पाठक को चिंतन के लिये प्रेरित करते हैं अत: उनके वैचारिक आलेख भी काफी रुचि से पढता हूँ. चिट्ठाजगत के एकाध चिट्ठा-पिस्सुओं को उनके वैज्ञानिक आलेखों से बढी तकलीफ होती है, और उनके कहे को तोडमरोड कर पेश करने की कोशिश करते हैं, लेकिन अरविंद जी ने आज तक जम कर उनका सामना किया है. इन सब कारणों से मैं उनका बडा भक्त हूँ और उनसे मुलाकात के लिये एक एक पल काटना मुश्किल हो गया था.
लेकिन वैज्ञानिक ठहरे वैज्ञानिक. वे कहां हम धरतीधारियों के टाईमटेबल से चलते हैं. (सुनते हैं कि बिजली के बल्ब के अविष्कारक थामस एडिसन ने तो शादी के एक हफ्ते के बात अपनी श्रीमती जी को अपने पास देख टोक दिया था कि देवी आप कौन हैं और क्यों मेरे आसापास घूम रही हैं). खैर डॉ अरविंद ने अंत में चलभाष पर खबर की कि वे शहर के दूसरे कोने में पहुंच चुके हैं और हमारी कुटिया/आश्रम में सशरीर तशरीफ लाना चाहते हैं. बडा सुखद आश्चर्य हुआ कि उनके व्यस्त कार्यक्रम के बीच १४ किलोमीटर दूर मुझ से मिलने के लिये वे खुद आना चाहते थे.
चित्र को बडा करके देखने के लिये मंदिर के चित्र पर चटका लगाईये
शास्त्रीधाम तक पहुंचना बहुत आसान है. वामन अवतार के लिये प्रसिद्ध त्रिक्ककरा मंदिर के बगल में ही है शास्त्रीधाम. (चित्र ऊपर संलग्न है. किलका कर बडा चित्र देख लें). बस उनको बता दिया के आटोवाले को मंदिर का नाम बता दे और उसके सामने उतर लें. यह वही प्रसिद्ध मंदिर है जो ओणम त्योहार का कारण है. (हर ओणम पर त्योहार मनाने के लिये पहला दान मेरे घर से लिया जाता है, लेकिन केरल के नियमों के अंतर्गत मैं इसमें प्रवेश नहीं कर सकता). ऑटो समय पर आ गया और अलिंगन के साथ स्वागत कर मैं उनको अपने घर ले गया.
ऐसा लगता था कि हम दशाब्दियों से एक दूसरे को जानते थे. आपस में बातचीत जो शुरू हुई तो चिट्ठाजगत से लेकर प्राचीन-भारत तक और सौन्दर्यशास्त्र से लेकर दर्शन तक की चर्चा बडे ही अनायास हुई. बातचीत के लिये हम दोनों में से किसी ने कोई एजेंडा सोच नही रखा था, लेकिन जब आपसी स्नेह होता है तो कब शब्दों की कमी पडी है और कब पूर्व-योजना की जरूरत पडी है. खानपान के बीच उन्होंने अपने परिवारजनों द्वारा भेजी गई कुच चीजें मेरी श्रीमतीजी को भेंट कीं तो वे भौचक्की रह गईं. उनके लिये अनजान लोगों के स्नेह की निशानी देख वे एकदम अवाक-मूक रह गईं.
खानपान के बाद हम लोग ऊपर की मंजिल के मेरे सिंहासन-कक्ष (लाईब्रेरी) में चले गये. मेरे अनुरोध पर डॉ अरविंद ने वाकई में मेरा “सिंहासन” ग्रहण कर लिया. हर ओर किताबें ही किताबें. उन्होंने बहुत पसंद किया. मुझे बताना पडा कि ये सिर्फ २००० ग्रंथ हैं. मेरा संकलन ३०,००० पुस्तकों का था जिन में से १०,००० के हिसाब से दो संस्थाओं को (जिन में मैं प्राचार्य रहा था) और ८,००० अपने मित्रों को बांट दिये हैं. फिर मैं ने अपने सिक्कों के कुछ नमूने उनको दिखाये और भारतीय सिक्काशास्त्र के बारें कुछ दिलचस्प बातें बताईं. पुन: विभिन्न विषयों पर चर्चा का दौर चला तो पता न चला कि समय कैसे बीत गया.
डॉ अरविंद एक सुलझे हुए चिंतक हैं को कई विषयों में दखल रखते हैं. हर विषय पर उनकी एक निश्चित सोचीसमझी राय है. ऐसे व्यक्ति से घंटों बात की जा सकती है और हर पल ऐसा लगता है जैसे आप किसी विश्वविद्यालय के अनुभवी अध्यापक की ऐसी कक्षा में बैठे हों जहां ज्ञान अनवरत बांटा जा रहा है लेकिन जहां परीक्षा का कोई डर नहीं है. एक जिज्ञासु विद्यार्थी के समान मैं बैठकर ज्ञानपान करता रहा. एकाध बार विपरीत विचार रखे तो शहद के छत्ते से और अधिक सोमवर्षा हुई. कुल मिला कर यह ऐसी एक अनुभूति थी जिस में डूब कर मुझे पता ही न चला कि समय जैसी भी कोई बला हम दोनों के सर पर आसीन है.
अचानक डॉ अरविंद चौंके जैसे कि एक अच्छा प्यारा सा सपना एकदम उसके चरमोत्कर्ष पर टूट गया हो. जैसे ही उन्हों ने घोषणा की कि खेल खतम पैसा हजम, वापस जाने का समय तो कभी का निकल चुका है तो मेरी हालत उस बच्चे के समान थी जिस का प्यारा सा खिलौना दुकानदार ने वापस खीच लिया हो. अरविंद जी को क्या दोष देता. भलामानुस ३००० किलोमीटर दूर से आया, घर आया, समय बिताया, इससे अधिक मैं उन से क्या मांग सकता था.
लाइब्रेरी से निकल हम दोनों निचली मंजिल पहुंचे तो मेरी पत्नी एक लिफाफा लिये खडी थीं, ३००० किलोमीटर दूर एक अन्य नारी एवं उनके बच्चों को अपना प्यार जताने के लिये. यह है नैसर्गिक प्यार जहां स्नेह दिखाने के लिये कोई दबाव नहीं है, बल्कि जो स्नेह एक बिनदेखी नारी से मिला उसे उसी तरह वापस अभिव्यक्त किया गया. जब जब किसी को लगता है कि दोचार चिट्ठापिस्सू चिट्ठाजगत को कलुषित कर रहे हैं तब तब जरा सोच कर देखें कि चिट्ठाजगत के इस तरह के सकारात्मक पहलू कितने कितने हैं.
आखिर विदा कह कर अरविद जी हम को दुखी मन के साथ छोड गये कि आपस में बिताये गये थोडे से घंटे जितने थे उससे भी बहुत कम लगे! ईश्वर करे के वे जल्द ही केरल पुन: तशरीफ लायें.
……..यह है नैसर्गिक प्यार जहां स्नेह दिखाने के लिये कोई दबाव नहीं है, बल्कि जो स्नेह एक बिनदेखी नारी से मिला उसे उसी तरह वापस अभिव्यक्त …….
Beautiful example of genuine love…..
बड़ा अच्छा लगा इस महामिलन प्रसंग को पढ़कर। डॉ. अरविन्द मिश्रा के पास अदम्य ऊर्जा और लड़ने की ताकत है। चिठ्ठापिस्सुओं की बात पढ़कर चेहरे पर मुस्कान उग आयी। मुझे तो बड़ा डर लगता है ऐसी आत्माओं से लेकिन कभी-कभी चुप लगा लेने की पॉलिसी तोड़नी पड़ती है।
आप दोनो महानुभावों को सादर नमन।
इस महामिलन का वर्णन पढ़कर जो आनन्द आ रहा है वह भी कम नहीं है। शास्त्रीधाम का फोटू देखकर मन को अपार शान्ति का अनुभव हुआ। ये सुखद आश्चर्य सबसे बड़ा है कि शास्त्रीधाम वामन अवतार के लिये प्रसिद्ध त्रिक्ककरा मंदिर के बगल में ही है।
दो अतृप्त आत्माओं का मिलन प्रसन्न कर गया.
खुबसूरत यादो का उतना ही सुन्दर चित्रण…….
regards
ऐसा ब्लॉगर मिलन की आश हरएक को होगी.
ब्लागर एक नई संस्कृति पैदा कर रहे हैं। हालांकि बहुतों को इस से भय भी है। पर भय कहाँ नहीं होता। कभी सर की छत ही गिर पड़े तो क्या?
मुझे तो बहुत से ब्लागरों के मामले में ऐसा महसूस होता है कि हम एक ही परिवार के सदस्य हैं। लेकिन सब के साथ ऐसा नहीं। इस के लिए विचार साम्य भी आवश्यक नहीं है।
जिस संस्कृति और सौहार्द्रता का चित्रण इस विवरण में पाया, ईश्वर से प्रार्थना है, वैसे ही हमारे पारस्परिक सम्बन्ध हों ।
शास्त्री जी आपसे मिलना जीवन का अविस्मरनीय अनुभव बन कर रह गया है -आप सादर सपरिवार बनारस आमंत्रित है -याद है ,आपको डेपार्टमेंट ऑफ़ इंडोलोजी देखना है न ?
बहुत अच्छा लगा पढ़कर. लेकिन बहुत खराब लगा यह पढ़कर “र ओणम पर त्योहार मनाने के लिये पहला दान मेरे घर से लिया जाता है, लेकिन केरल के नियमों के अंतर्गत मैं इसमें प्रवेश नहीं कर सकता” समाज को अब तो रूढि़यों से मुक्त होना/करना चाहिये….
अरविन्द जी ने इस मुलाकात की गर्मजोशी का भान करा दिया था !
आपके इस आलेख से रस-रस टपकती आत्मीयता ने इसे महत्वपूर्ण बना दिया है !
आलेख का आभार !
अरविन्द मिश्र और आपका यह मिलन अच्छा लगा शाष्त्री जी ! निस्संदेह आचार्यवर अरविन्द मिश्र ब्लागजगत में अपनी बेवाकी के लिए मशहूर ( बदनाम ) हैं, मगर मुझे लगता है कि वे ईमानदार और सुह्रदय हैं ! आजकल उनकी इसी कटाक्ष युक्त बेवाकी और साफगोई के कारण कुछ “विशाल ह्रदय लोग” उनसे नाराज हैं और अरविन्द मिश्र अपनी सफाई भी नहीं दे रहे :-), आप ही समझाएं शायद वे आपकी बात मन जाएँ और अपना मत व्यक्त करें !
५०००० से अधिक की इस भीड़ चाल में गलत फहमी के कारण भी, कई बार अच्छे लोगों को बुरा सिद्ध कर दिया जाता है ! अक्सर विद्वजन मूर्खों को जवाब नहीं देते मगर सामने अगर कुशाग्रबुद्धि अभिमन्यु हो तो जवाब न देना, उसे खोना नहीं कहा जायेगा ? और भटके बच्चे की पीठ थपथपाने बहुतेरे विद्वान् इंतज़ार में हैं !
अरे वाह, यह अंतरग मुलाकात सचमुच स्मर्णीय है।
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गुफा में रहते हैं आज भी इंसान।
ए0एम0यू0 तक पहुंची ब्लॉगिंग की धमक।
baraha is not working in firefox on my pc.
nice to read about the meeting of two of the nicest persons from blog world.
भाव-पूर्ण प्रस्तुति। इस संस्मरण को पढ़ अच्छा लगा।