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ज्ञान जी का प्रस्ताव और धन!

मेरे कल के आलेख प्राचीन भारत में आर्थिक विषमता नहीं थी! पर टिपियाते समय ज्ञानदत्त जी ने एक आश्चर्यजनक बात कह दी जो इस प्रकार है: मनुष्य समान बन नहीं सकता। पूंजी को आप समान बांट भी दें तो वह कालान्तर में पुन: वही असमान बंट जायेगी।  [ज्ञानदत्त पाण्डेय] इसे पढते ही मुझे एक गणना/परीक्षण याद आया जो आज से…

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100 रुपये में मुफ्त खाना??

कल दोपहर को एक भिखारी आया जिसे मैं ने दो रुपये दिये. उसने झुक कर ऐसा प्रणाम किया जैसे मैं ने सारी दुनियां उसकी झोली में डाल दी हो. भीख को अपना हक मानने के बदले उसे एक एहसान मानने वाले भिखारियों को मैं काफी उत्सुकता से देखा करता हूँ. कल भी ऐसा ही हुआ. खिडकी से देखा तो वह…

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केरल में मुस्लिम-ईसाई संघर्ष??

मेरे पिछले आलेख केरल में धार्मिक संघर्ष !! में मैं ने इशारा किया था कि धार्मिक सहिष्णुता के मामले में केरल एक आदर्श प्रदेश है. यहां के हिन्दू, ईसाई, मुस्लिम अपने अपने धर्मो, उसूलों, और कर्मकांड के मामले में बहुत कट्टर  हैं. लेकिन इस कट्टरता ने उनको दंगाई बनाने के बदले आपस में सहिष्णु बनाया है. इस कारण मेरे मित्र…

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बाबू बडा या पीएचडी थीसिस्!!

पिछले कई दिनों से मैं भारतीय शिक्षा व्यवस्था की शोचनीय हालात के बारे में बता रहा था. शिक्षा की इस दयनीय हालत के लिये कई प्रकार के लोग जिम्मेदार हैं और इन में से एक है शैक्षणिक संस्थानों से संबंधित वे  बाबू लोग और कर्मचारी जो बात बात पर अडंगा डालते  हैं. उनको शिक्षादीक्षा से कुछ लेनादेना नहीं होता है,…

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घोडों को खच्चर बनाया जा रहा है!!

भारत की चिंतन परंपरा न केवल अतिप्राचीन है बल्कि अति व्यापक भी है. फलस्वरूप भारतीय मनीषी लोगों ने अपनी तर्कशीलता के आधार पर जो ज्ञान प्रात किया और जिसे लिखित रूप में भावी पीढियों को दिया उसके तुल्य कोई कार्य दुनियां के किसी देश में नही हुआ है. राजाश्रय में या जनसाधारण की मदद से चलने वाले स्वतंत्र आश्रमों में…

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मौलिक चिंतन जाये भाड में!!

कल के मेरे आलेख पर ab inconvinienti  ने टिपियाया: हर मौलिक चीज़ भारत में गटर में फेंकने लायक समझी जाती है. विदेशियों की नक़ल उतार कर उनकी बुराइयाँ ज़रूर अपना लेते हैं पर उनकी अच्छी बातें पूरी तरह नज़रंदाज़ कर दी जाती हैं. इसका एक अच्छा उदाहरण है “प्रेक्टिकल प्रोजेक्ट”. व्यावहारिक प्रोजेक्ट की अवधारणा सबसे पहले पश्चिमी देशों में आई…

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नोबेल प्राईज क्यों नहीं !!

इस साल (शांति को छोड) 12 नाबेल प्राईज दिये गये हैं जिन में 11 अमरीका के निवासियों को मिला  है. क्या कारण है कि हिन्दुस्तानी लोग सहस्त्र-करोड रुपया वैज्ञानिक संस्थाओं पर खर्च करने के बावावजूद एक भी इनाम नहीं ले पाते. जैसा मैं ने पिछले चार आलेखों रट्टा मारो, पोजिशन लाओ!! जब तबलची भौतिकी पढाये!! विद्यालय दिमांग को कुंद कर…

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रट्टा मारो, पोजिशन लाओ!!

1971, बीएससी प्रथम वर्ष, गणित का विद्यार्थी. बडे उत्साह के साथ मैं महाविद्यालय में पहुंचा था. मेरा लक्ष्य एकदम स्पष्ट था — मैं एक वैज्ञानिक बनना चाहता था. गणित की पहली कक्षा में ही हमारे योग्य अध्यापक ने 40 विद्यार्थीयों की कक्षा को समझाया “बेटा, केलकुलस न तो हम समझे, न हमारे डोकर. अत: यह तुम्हारे बस की बात नहीं…

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जब तबलची भौतिकी पढाये!!

मेरे कल के आलेख विद्यालय दिमांग को कुंद कर रहे हैं!! पर अंतर सोहिल ने टिपियाया: छोटे शहरों के छोटे-छोटे स्कूलों में तो 10वीं 12वीं तक पढी हुई लडकियों को 1200-1500/- में टीचर की नौकरी दी जाती है, जिन्हें बिल्कुल भी अनुभव नही होता है। और इन स्कूलों की फीस 400-700/- तक होती है और एक कक्षा में 50-60 बच्चों…

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विद्यालय दिमांग को कुंद कर रहे हैं!!

मेरे कल के आलेख भारतीय उच्च शिक्षा में मैं ने याद दिलाया था कि आज दुनियां के सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में भारतीय विश्वविद्यालयों का नामोनिशान नहीं है. इसका कारण चालू होता है विद्यालय से. आज पढेलिखे एवं थोडे बहुत पैसे वाले लोगों के अधिकतर बच्चे अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों में पढते हैं. अधिकतर अंग्रेजी माध्यम  विद्यालय “शाला” न होकर “कारखाने” हैं जहां…

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